Friday, July 15, 2016

जिज्ञासु जी : 'उत्तरायण' से आगे 'आंखर' तक

जिज्ञासु जी ने 'उत्तरायण' के लिए चलाना शब्द इस्तेमाल किया था लेकिन जो उन्होंने किया वह चलाना नहीं उसे सींचना, पालना, पोषना और निरंतर समृद्ध करना था. वे बताते थे कि जब मैं उत्तरायण में तैनात हुआ तब मुझे खुद कुमाऊंनी नहीं आती थी. बचपन से देहरादून, दिल्ली, शिमला और अम्बाला रहा. पंजाबी को मैं अपनी मातृभाषा कहा करता था. फिर कुमाऊंनी सीखनी शुरू की. श्रीमती जी से शुरुआत की. फिर लखनऊ की सयानी महिलाओं के साथ बैठा.

 दरअसल, यह कहना कि उन्हें कुमाऊंनी नहीं आती थी, उनकी विनम्रता थी. अपनी दुधबोली उन्हें ठीक-ठाक आती थी लेकिन वे उस बोली में 'उत्तरायण' कार्यक्रम का नियोजन और संचालन करने के लिए उसमें पारंगत होना चाहते थे. कुमाऊंनी के विविध उच्चारण, इलाकाई विभेद, उच्चारण के जरा से अनतर से गहरा अर्थ-भेद, सब भली-भांति जान लेना चाहते थे. बहुत जल्दी जिज्ञासु जी ने बहुत अच्छी कुमाऊंनी सीख ली और कामचलाऊ गढ़वाली भी. जबलपुर वाले कुमाऊंनी भाषा और संस्कृति विशेषज्ञ त्रिलोचन पाण्डे जी से पत्र व्यवहार होने लगा. 1964 तक अपनी दुधबोली पर उनकी बढ़िया पकड़ हो गई थी. अब वे लोगों को भांति-भांति के कुमाऊंनी उच्चारण और उसके बारीक भेद सिखाने लगे थे. इसके बाद शुरू हुआ कुमाऊंनी कवियों से सम्पर्क. खुद भी कुमाऊंनी में कविता, गीत, कहानी, रूपक और नाटक लिखने लगे. लिखने को तो उन्होंने कुमाऊंनी में कव्वाली भी लिखी और गवाई. उसके बाद वे ओबीआर पार्टियों के साथ रिकॉर्डिंग मशीन लेकर पहाड़ के कौतिकों में घूमने लगे. बागेश्वर, द्वाराहट, जौलजीवी, गोचर, देवीधुरा, जाने कहां-कहां. ब्रजेंद्र लाल साह, चारु चंद्र पांडे, अनुरागी जी की मार्फत लोक संगीत की समझ बढ़ी. 1939-40 में अल्मोड़ा से कुमाऊंनी में अचल पत्रिका निकालने वाले जीवन चंद्र जोशी अपना बुढ़ापा लखनऊ में काट रहे थे. जिज्ञासु जी उनकी शरण भी जाते.

फिर एक नया दौर आया जब आकाशवाणी के स्टूडियो में आमंत्रित श्रोताओं के समक्ष लोक भाषा की कवि गोष्ठियां और लोक संगीत संध्याएं आयोजित होने लगीं. उत्तरायण कार्यक्रम की ऐसी धूम मची कि पहाड़ी गांव-कस्बों से ही नहीं, सीमांतों पर तैनात उत्तराखण्डी फौजियों की चिट्ठियों से उत्तरायण एकांश की मेजें और अल्मारियां भरने लगीं. पंद्रह मिनट से शुरू हुआ कार्यक्रम बहुत जल्दी पहले आधे घण्टे और फिर एक घण्टे का कर दिया गया. सांसदों-विधायकों की भेंट वार्ताओं, विकास के खोखले दावों, वगैरह की बजाय, वह सम्पूर्ण उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक धड़कन बन गया. प्रवासी उत्तराखण्डियों के साथ-साथ समूचे उत्तराखण्ड के संस्कृति कर्मियों का लोकप्रिय मंच वह बहुत अरसे तक बना रहा. 'उत्तरायण' का कार्यक्रम अधिकारी कोई भी रहा हो, कुमाऊं-गढ़वाल का मूल निवासी या हिंदी भाषी, वे जिज्ञासु जी पर इतना भरोसा करते थे कि पूरे कार्यक्रम की तिमाही प्लानिंग उनसे ही कराते. उनके काम में शायद ही किसी अधिकारी ने दखल दिया हो. 
'उत्तरायण' को यह श्रेय जाता है कि उत्तराखण्ड की बोलियों का उस दौर का कोई नया-पुराना कवि, लेखक, गायक, वादक, लोक-कलाकार, वगैरह नहीं बचा होगा जो 'उत्तरायण' का मेहमान न बना हो और जिसकी रिकॉर्डिंग उसके संग्रह में मौजूद न हो.
नाजुक मैग्नेटिक स्पून टेपों में रिकॉर्डेड वह कीमती संग्रह अब वहां नहीं है. चंद ही टेप डिजिटल फॉर्मेट में बदल कर सुरक्षित रखे जा सके. यह भी जिज्ञासु जी का बड़ा दर्द था जिसे लिए-लिए वे चले गए.
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तसव्वुरात की परछाइयां उभरती हैं-
हुसैनगंज चौराहे के बर्लिंगटन होटल के परिसर में मीटिंग हो रही है. जिज्ञासु जी ने कई लोगों को बटोर रखा है. एक सांस्कृतिक संस्था बनाने की बात हो रही है. कुमाऊंनी-गढ़वाली में नाटक मंचित करने की योजना बनती है. 1974 में बनी सस्था का नाम रखा गया शिखर संगम’ और नवम्बर 1975 में लखनऊ के इतिहास में पहली बार एक कुमाऊंनी (मी यो गेयूं, मी यो सटक्यूं- लेखक/निर्देशक- नंद कुमार उप्रेती) और एक गढ़वाली नाटक (खाडू लापता, लेखक-ललित मोहन थपलियाल, निर्देशक-जीत जरधारी) खेले गए. बंगाली क्लब के खचाखच भरे हॉल में बैठे दर्शक रोमांचित थे और मुख्य अतिथि के रूप में आईं शिवानी ने स्वतंत्र भारत के अपने वातायन कॉलम में जी भर कर इन प्रस्तुतियों की सराहना की. उन्होंने दोनों बोलियों में हस्तलिखित/साइक्लोस्टाइल्ड पत्रिका त्वीले धारो बोला का भी लोकार्पण किया था जिसके सम्पादक थे जिज्ञासु. उस पत्रिका में श्यामाचरण दत्त पंत एवं जयंती पंत से लेकर नागेंद्र दत्त ढौंढियाल तक के की महत्वपूर्ण लेख तथा कई कविताएं थीं, जो जाहिर है कि जिज्ञासु जी के उत्तरायण-संग्रह का प्रसाद थे.

'शिखर संगम' जल्दी भंग हो गई. कोई बात नहीं. जिज्ञासु जी ने नई टीम जुटा कर आंखर का गठन कर लिया. दौड़-भाग चल रही है. चंदा जुटाया जा रहा है. जिज्ञासु जी रसीद बुक लेकर पहाड़ियों के घर-घर जा रहे हैं. कहीं तीखी-कटु बातें भी सुनने को मिलती हैं लेकिन चंदा तो लेना ही है. नाटक के लिए महिला पात्र नहीं मिल रही हैं. समझाया जा रहा है लोगों को कि लड़कियों को संस्था में भेजो. गाली भी पड़ रही है कि अपनी लड़कियों को क्यों नहीं नचाते. कोई बाधा उनके संकल्प को तोड़ नहीं पाती. देखते-देखते बड़ी टीम खड़ी हो गई जिसमें लड़कियों-महिलाओं की अच्छी संख्या थी. अगले दस वर्ष तक अपनी बोली के नाटकों का मंचन और बोलियों में आंखर पत्रिका का प्रकाशन चलता रहा. पत्रिका कुछ समय नियमित रूप से मासिक भी निकलती रही. बोलियों के नाटकों की टीम लेकर जिज्ञासु जी ने भोपाल, मुरादाबाद, पीलीभीत, कानपुर और अल्मोड़ा-नैनीताल तक की यात्राएं कीं. बाद में आंखर भी बिखर गया लेकिन जिज्ञासु जी अपनी जेब से पैसा लगा कर आंखर पत्रिका का प्रकाशन किए जा रहे हैं. दुखी भी होते हैं कि कोई सहयोग नहीं करता लेकिन गांठ में दाम और तन-मन में त्राण रहते दो साल खुद से खींच ले गए पत्रिका को. फिर शरीर ने साथ देना छोड़ दिया. शिकायतों-तकलीफों की गठरी लेकर वे घर भीतर सीमित हो गए. अकेले. तब तक यह शिष्य भी गुरू बन कर अपनी दुनिया में ज्यादा माती गया था.

आकारवर्धक शीशा लेकर पढ़ना और छिट-पुट लिखना तब भी उनका जारी था. यदा-कदा कुछ पत्रिकाओं में वे छपे दिखाई देते थे या घर जाने पर कतरनें दिखाते थे. उनका एक कविता संग्रह हिंदी में (मुझको प्यारे पर्वत सारे) और एक कुमाऊंनी में (सिसौंण) छप पाया था. और संग्रहों के लिए पाण्डुलिपियां तैयार करते रहते थे लेकिन छापने वाला था कौन! तीन महीने पहले मेरी आखिरी मुलाकात में भी कह रहे थे कि यार, नब्बू, कुछ कहानियां पूरी करनी हैं, संग्रह निकलवाना है.

वैसे, सच यही है कि उनकी कविताओं-कहानियों का उस सबके सामने कोई मोल नहीं है जो उन्होंने कुमाऊंनी बोली के लिए किया, नई पीढ़ी को तैयार करने के लिए किया. (क्रमश:)

1 comment:

सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...

हमेशा की तरहअच्छा और सच्चा दिल को छूने वाला लेख। जिज्ञासु जी की सघर्ष कथा लोगो तक पहुँचनी ही चाहिये। साधुवाद आपको।