कितने ही बड़े और गम्भीर हादसे क्यों न हो जाएं, कुछ तरीके कभी नहीं बदलते. हादसे के बाद खूब हो-हल्ला मचता
है, जिम्मेदारियां तय की जाती
हैं, प्रशासन नियमों की याद
दिलाते हुए सख्ती बरतने के निर्देश जारी करता है, आम जनता का कलेजा भी कांपता है लेकिन चंद रोज बाद सब भूल जाते हैं. जो गलत हो
रहा था, जो लापरवाहियां
की जा रही थीं, वे फिर होने
लगती हैं. अगले हादसे पर फिर वही सब कवायद दोहराई जाती है.
बच्चों को स्कूल ले जाने वाले तरह-तरह के वाहनों में बच्चों की असुरक्षा का
मामला भदोही में हुए दर्दनाक हादसे के बाद एक बार गरम है. राजधानी लखनऊ तक उस
हादसे की टीस महसूस की गई. स्कूली वाहनों
की फिटनेस एवं परमिट से लेकर ड्राइवर की सेहत तथा लाइसेंस की जांच करने के साथ ही स्कूलों की जिम्मेदारी तय करने के वे सारे
निर्देश सरकारी फाइलों से बाहर निकाले गए हैं जिन्हें पत्रकार के रूप में चार दशक
से छापते-छापते और प्रशासनिक अधिकारियों के रूप बताते-बताते हमारी पीढ़ी रिटायर हो
गई. अब नई पीढ़ी ठीक वही दोहरा रही है लेकिन वे ऐहतियात और निर्देश कभी अमल में
नहीं लाए जा सके. सच यह है कि जब पूरा तंत्र, जिसमें हम नागरिक भी बराबर के हिस्सेदार हैं, लस्टम-पस्टम पड़ा हो, आंखों में धूल
झौंकने तथा जेबें गरम करने से चल जाता हो तो सिर्फ स्कूली वाहनों का मामला कैसे
चुस्त-दुरुस्त हो सकता है. गरीब के रिक्शे में लदे-फंदे-लटकते और छोटी-बड़ी खटारा
गाड़ियों में ठुंसे स्कूली बच्चे सभी
शहरों-कस्बों का आम नजारा हैं. अक्सर ही उनकी दुर्घटनाएं होतीं हैं. कभी निरीह रिक्शे वाला गालियां और मार खाता है, कभी इयर फोन लगा कर बस चलाने वाला बेवकूफ ड्राइवर. स्कूल प्रशासन, अभिभावक, आरटीओ समेत शासन-प्रशासन, आदि की जवाबदेही कहां है? शिक्षा
स्कूलों का धंधा है और बसें ठेकेदारों का. आरटीओ दफ्तर का ध्यान किसी और चीज पर
है. फिर ड्राइवर के वेतन से लेकर उसकी मानसिक हालत, बसों की फिटनेस, वैध परमिट, वगैरह की चिंता कौन करे? उधर, महंगी फीस के
मारे अभिभावकों को सारी बचत सस्ते वाहन में करनी है. मासूम बच्चों को इस सबकी कीमत
अक्सर अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है. कब तक ऐसा चलता रहेगा, कोई नहीं जानता.
भदोही में जो हादसा हुआ वह भयानक है और उतनी ही निर्ममता से उस पर बात की जा
रही है. हर कोई उस बस ड्राइवर को सारा दोष दे रहा है जो इयर फोन लगा कर बस चला रहा
था. कुछ लोग स्कूल और बस संचालक को भी जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. फिर बहस इयर फोन की
बीमारी से सेल्फी तक चली जा रही है और असल मुद्दा गायब हुआ जा रहा है. यह सवाल
सिरे से नदारद है कि हमारे देश में आज भी बिना फाटक के रलवे क्रॉसिंग हैं ही क्यों? एक खबर बता रही है कि ऐसे करीब बारह हजार फाटक हैं . हाल की
एक खबर ने देश को यह खुश खबरी दी कि सवा सौ-डेढ़ सौ किमी की रफ्तार से ट्रेन चलाने
में सफलता पा ली गई है. जल्दी ही एक बुलेट ट्रेन चलाने की योजना है. क्या इन दोनों
खबरों के एक बेहद अमानवीय सम्बन्ध नहीं है? बुलेट ट्रेन जरूरी है या रेलवे क्रॉसिंग पर फाटक लगाना? हमारी प्राथमिकताएं क्या-कैसी हैं? बुलेट ट्रेन आप जरूर चलाइए लेकिन साथ ही रेलवे क्रॉसिंग पर
फाटक सुनिश्चित कीजिए, ओवरब्रिज
बनवाइए या सब-वे ही सही लेकिन उन मौतों को रोकिए जो इन फाटकों पर अक्सर वाहनों के
ट्रेन से टकरा जाने से हो रही हैं. (नभाटा, जुलई 29, 2016)
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