पिछले महीने ‘नैनीताल एक्सप्रेस’ की छोटी लाइन की ट्रेन पूरी तरह बंद होने की खबर पढ़कर यादों
का पिटारा खुला तो खुलता ही चला गया. बचपन के दिन. हर साल 20 मई को हमें स्कूल से
रिजल्ट मिलता था. उसी शाम बाबू मुझे चारबाग स्टेशन की छोटी लाइन ले जाते, जहां नैनीताल एक्सप्रेस खड़ी रहती. ट्रेन में दो-चार परिचित
मिल ही जाते. किसी एक को मेरा हाथ थमा कर बाबू उससे कहते- ‘बच्चे को हल्द्वानी से बागेश्वर की बस में बैठा देना तो!’ मैं मजे से उनके साथ यात्रा करता. दूसरी सुबह वे हल्द्वानी से मुझे ‘के एम ओ यू लि’ की एक बस में बैठा
देते जो खरामा-खरामा चलते हुए देर शाम बागेश्वर पहुंचा पाती. रास्ते में कण्डक्टर
कई जगह उसके गर्म हो गए इंजिन में ठंडा पानी डालता. खैर, बागेश्वर में पिस्सू-खटमल भरी किसी कोठरी में एक रात काटकर
अगले दिन गांव पहुंच जाता. जुलाई के पहले हफ्ते में लखनऊ लौटने के लिए आस-पास के
गांवों से काठगोदाम तक जाने वाले की खोज की जाती. कोई न कोई मिल ही जाता. तब हर
शाम काठगोदाम से दो खास ट्रेनें चलती थीं- आगरा फोर्ट और नैनीताल एक्सप्रेस, जो पहाड़ की बड़ी आबादी को शहरों में पहुंचाती थीं. दोनों ही
ट्रेनें अब इतिहास हो गईं. वक्त के साथ छोटी लाइनें बड़ी होने लगीं, आवागमन का स्वरूप बदल गया, प्रवास
की प्रवृत्ति परिवर्तित हो गई और ये ट्रेनें सिर्फ यादों में रह गईं जो हमारे लिए
अपने पहाड़ से जुड़े रहने का आत्मीय माध्यम थी.
लखनऊ वापसी में हम देखते कि उत्तराखण्ड के विभिन्न अंचलों से बसें भर-भर कर
आतीं और नौकरी पर लौटते फौजियों, सरकारी कर्मचारियों
और रोजी-रोटी की तलाश में भाग कर आते किशोरों को काठगोदाम स्टेशन में जमा करती
जातीं. आगरा फोर्ट जल्दी छूटती थी, सात बजे के करीब. इसलिए उसे पकड़ने की
बड़ी हड़बड़ी होती. बस का ड्राइवर रास्ते भर पूछता रहता कि कोई सवारी आगरा फोर्ट
पकड़ने वाली है क्या? ‘हां, हो, हां’ आगरा जाने वाले यात्री पीछे से आवाज देते. कण्डर को बीड़ी पर
बीड़ी पिलाई जाती कि जगह-जगह गाड़ी न रोके. देर होने लगती तो यात्री बेचैन होते
लेकिन ड्राइवर-कण्डक्टर उन्हें आगरा फोर्ट पकड़वाने की जिम्मेदारी लेते थे. कई बार
ऐसा भी होता था कि सुस्त बस का ड्राइवर थोड़ा तेज रफ्तार गाड़ी को पास देते हुए आगरा
वाले यात्रियों को उसमें भिजवा देता.
तो, काठगोदाम स्टेशन से
आगरा फोर्ट रवाना होने के बाद नैनीताल एक्सप्रेस प्लेटफॉर्म पर लगती. इंतजार करते
यात्रियों में जगह घेरने की होड़ मच जाती. तब रिजर्वेशन होता था या नहीं, मुझे नहीं मालूम. तब मैं जानता भी नहीं था कि ट्रेन में
रिजर्वेशन जैसी कोई चीज भी होती होगी. आज सोचता हूँ कि फर्स्ट क्लास में रिजर्वेशन
होता होगा. उसका एक ही डिब्बा लगता था, जिसे
हम बड़ी हसरत से देखते. तब ए सी डिब्बे न थे. बहुत बाद में नैनीताल एक्सप्रेस के
फर्स्ट क्लास डिब्बों में ए सी पलाण्ट लगाकर उसे सेकंड ए सी का दर्जा दिया गया.
खैर, जब यह ट्रेन प्लेटफॉर्म पर लगती
तो रेलवे का कोई कर्मचारी एक डिब्बे पर चॉक से खूब बड़े हर्फ में लिख देता- ‘56 ए पी ओ.’ यह पहाड़ का बहुत
जाना–पहचाना पता था. हम बचपन से ही इससे खूब परिचित थे. गांव के कई लोग फौज में
थे. उनके घर वाले स्कूली बच्चों को पकड़ कर उनसे चिट्ठी लिखवाते. पते की जगह फौजी
का नम्बर, नाम और ‘मार्फत 56 ए पी ओ’ लिखना काफी होता.
हर फौजी का कई संख्याओं वाला एक नम्बर होता था जिसे घर वाले बहुत सम्भाल कर रखते
थे और चिट्ठी लिखने वाले को कई बार हिदायत देते कि ‘भाऊ, नम्बर ठीक से लिख देना, हां!’ कुछ फौजी ‘99 ए पी ओ’ वाले भी होते. ए पी
ओ का अर्थ आर्मी पोस्ट ऑफिस’ होता है, यह भी हमने बड़े होकर जाना.
हां, तो जिस डिब्बे पर ’56 ए पी ओ’ लिख दिया जाता था, वह
फौजियों के लिए रिजर्व होता. वही सबसे सुरक्षित डिब्बा माना जाता. छोटे बच्चों
वाली महिलाएं और अकेले बच्चे अक्सर उसी में जा बैठते. फौजी उन्हें प्यार और
सम्म्मान से जगह देते. कंधे पर भांति-भांति का सामान लादे कोई और आदमी उस डिब्बे
में चढ़ने लगता तो फौजी टोक देते. छुटपन में मैंने इस डिब्बे में बहुत बार सफर
किया. बिल्कुल युवा से प्रौढ़ सैनिक तक अपने घर-परिवार की स्थितियां एक-दूसरे से
कहते रहते. वे किस्से ज्यादातर दुख और कष्टों के ही होते. कुछ फौजियों की नम आंखें
और उदास चेहरे मुझे भी रुलाते. गांव से लौटते वक्त मैं नराई से भरा होता जो लखनऊ
आने के कई दिन बाद धीरे-धीरे फिटती. लखनऊ से रवाना होते समय नैनीताल एक्सप्रेस खुशी
और उल्लास से चहकती रहती. वापसी में उस पर उदासी पसर जाती. इस ट्रेन ने पहाड़ की
कितनी व्यथा-कथाएं चुपचाप सुनकर अपनी सीटी और छुक-छुक में उड़ा दी होंगी.
नैनीताल एक्सप्रेस हमें बहुत अपनी लगती. लकड़ी की फंटियों से बनी उसकी बेंचें
हमें कभी नहीं चुभीं. बंगाली और दूसरे पर्यटक शिकायत करते लेकिन हमें उन पर बैठने
में बड़ा आनंद आता, जैसे तब घर की टूटी
लोहे की कुर्सी भी सोफा जैसी लगा करती थी. इसी ट्रेन में आते-जाते हम बड़े होते गए
और पहाड़ के सुख-दुख से हमारा साक्षात्कार होता रहा. दुख और विरह भरी चिट्ठियों से
लेकर, पहाड़ी सौगातों की कितनी ही
पुंतुरियां इसने लखनऊ के गली-मुहल्लों तक पहुंचाई. कितने किशोरों को ढाबों- होटलों, घरों और दफ्तरों में नौकरियां दिलवाईं. चारबाग स्टेशन पर
अक्सर इस ट्रेन से भाग कर आए पहाड़ी लड़के उतरते और शहर की भीड़ में खो जाते. पता
नहीं उनमें से कितने पहाड़ लौट पाए होंगे!
सन 1969 में जब मैं आठवीं का छात्र था, एक
सुबह कोई रिक्शा वाला एक भगोड़े प्रेमी युगल को कैनाल कॉलोनी वाले हमारे अहाते में
पहुंचा गया था- ‘आपके मुलुक से भाग
कर आए हैं ये.’ हमारा अहाता
पहाड़ियों के मुहल्ले के रूप में ख्यात था. घरेलू नौकर ढूंढने के लिए भी की लोग वहां
आते रहते थे. तो, गोरी-फनार, भरी देह वाली उस युवती की छवि मुझे आज भी याद है. लड़का बहुत
दुबला-पतला था. हमारे एक पड़ोसी पहाड़ी ने उन्हें अपनी कोठरी में जगह दे दी थी. लड़का
सिंचाई विभाग की निर्माणाधीन इमारत में मजदूरी करने लगा. उसे टीबी का रोग रहा
होगा. खून की उलटी करते-करते जल्दी ही वह मर गया. लड़की काफी समय उम्रदराज पड़ोसी के
साथ रही. मैं उससे पहाड़ी गीत पूछ-पूछ कर डायरी में लिखा करता था. एक दिन स्कूल से
लौटने पर सुना कि वह किसी के साथ भाग गई. बाद में वह मुझे उदय गंज-हुसैन गंज की
गलियों में सब्जी का टोकरा सिर पर धरे फेरी लगाती दिखी. कई पहाड़ी परिवार उसके
नियमित ग्राहक और दुख-दर्द के भागीदार थे. फिर उसकी गोद में एक नन्हीं बच्ची आई.
बेटी को गोद में लेकर वह हुसैन गंज तिराहे पर सड़क पर बैठ सब्जी बेचने लगी. कुमाऊं
परिषद का दफ्तर वहीं पर था. मैं उधर जाता तो वह दिखाई देती. उसकी बेटी बड़ी होती
रही और वह मोटी-थुलथुल और बीमार. एक दिन कुमाऊं परिषद में ही सुना कि वह सब्जे
बेचने वाली मर गई. उसकी बेटी का पता नहीं क्या हुआ होगा. नैनीताल एक्सप्रेस की
यादों के साथ ऐसी व्यथा-कथाएं भी जुड़ी हैं.
1971 में उसी मुहल्ले में शेखर दा से भेंट हुई. उसी के माध्यम से साल-दो साल
बाद शमशेर से मुलाकात हुई जब वह अल्मोड़ा महाविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए थे. फिर उत्तराखण्ड छात्र संघर्ष वाहिनी के
कई साथियों से परिचय बढ़ा. ये लोग प्रतिनिधिमण्डल लेकर विधायकों-मंत्रियों से मिलने
लखनऊ आते रहते. शेखर दा को उनके अलावा भी बहुत सारे लोगों से मिलना होता था. उसकी
डायरी फोन नम्बरों और पतों से भरी होती. मैं उसके साथ ही लगा रहता. वापसी में वह देर
ही कर देता. स्टेशन जाने से पहले उदयगंज तिराहे पर हलवाई की दुकान से कुल्हड़ में
दूध लेकर ब्रेड या बन भी खाने जरूरी होते थे. हम रिक्शे पर गर्म दूध छलकाते हुए
स्टेशन भागते. एकाधिक बार ऐसा भी हुआ कि नैनीताल एक्सप्रेस के छूटने का टाइम हो
गया और शेखर पाठक का पता नहीं. गार्ड की सीटी और हरी झण्डी रोकने का दुस्साहस
शमशेर ही कर सकता था. प्लेटफॉर्म पर गार्ड से शमशेर की बहस हो रही होती कि
लम्बे-लम्बे डग ट्रेन की तरफ बढ़ते दिखते. इस दौड़ में मैं पीछे छूट जाता. चलती
ट्रेन से शेखर दा का लम्बा हाथ ‘फिर मिलेंगे’ कहता हुआ हिलता दिखता तो मैं घर लौट आता. शमशेर को जरूर याद होगा और हमारे प्रिय प्रोफेसर शेखर पाठक नैनीताल एक्सप्रेस
की उन यात्राओं को कैसे भूल सकते हैं भला.
और गिर्दा! वह पीता-गाता रहता और हमारी महफिल पीती-सुनती सम्मोहित रहती. ट्रेन
कबके जा चुकी होती और टिकट लौटाने की सुध भी किसे होती थी. कभी समय पर याद दिलाए
जाने पर वह हाथ हिला देता- ‘छोड़ो हो, आज नहीं जाते!’ फिर कौन उसे मना
सकता था. ट्रेन में बैठ गया तो भी फैज़ या नाजिम या साहिर या गौर्दा या खुद का कलाम
जारी रहता. सुनने वालों में नैनीताल एक्सप्रेस के यात्री और टी टी सभी शामिल होते, जब तक कि ट्रेन का झटकेदार पालना उसे सुला न देता होगा. सोमरस की तरंगों पर सवार हमारे प्यारे हरुआ दाढ़ी
ने भी इस ट्रेन के टी टी को अंग्रेजी में कम भाषण नहीं सुनाए ठहरे! चंद्रेश
शास्त्री के साथ देखी अंग्रेजी फिल्मों का असर ऐसे ही मौकों पर बाहर निकलता था.
बहुत बाद तक नैनीताल एक्सप्रेस हमारे लिए पहाड़ का हरकारा बनी रही. दोस्तों के
लिए किताबें, अखबारों-पत्रिकाओं
के लिए लेख और चिट्ठियां हमने इसी ट्रेन से भेजे. नैनीताल एक्सप्रेस के डिब्बों का
चक्कर लगाते हुए सिर्फ इतना कहना होता- ‘दाज्यू, अल्मोड़ा के चेतना प्रेस या नैनीताल के राजहंस प्रेस तक यह
बण्डल पहुंचा देंगे?’ परिचित न होते तो
भी कई हाथ उठ जाते और सामान ठिकाने तक जल्दी और सुरक्षित पहुंच जाता. ‘नैनीताल समाचार’ के लिए कितनी ही बार
हाफ टोन ब्लॉक इसी तरह भेजे गए. राजीव या हरीश डाक से फोटो भेज देते और मैं ब्लॉक
बनवा कर स्टेशन पर नैनीताल जाने वाले किसी भी दाज्यू के हाथ में पैकेट थमा देता.
कोई 18-20 वर्ष पहले जब यह ट्रेन काठगोदाम से आखिरी बार चली, संयोग से मैं उसमें सवार था. पूरी यात्रा में लोग उदास होकर
इस ट्रेन के संस्मरण सुनाते रहे थे. उसके बाद भी नैनीताल एक्सप्रेस लाल कुंआ से
लखनऊ के बीच चलती रही. तब भी हमारे लिए इस ट्रेन का महत्व बना रहा था. जब लालकुंआ
से भी वह गायब हो गई तभी हमारा रिश्ता उससे टूट गया था, हालांकि वह लखनऊ को पहाड़ के एक कोने टनकपुर से अपने सफर की
आखिरी रात तक जोड़े रही थी.
भावुकता अपनी जगह है लेकिन सच यही है कि यादें हमें परिवर्तन की प्रवृत्ति और
उसकी दशा-दिशा का संकेत देती हैं. नैनीताल एक्सप्रेस के बंद हो जाने का कारण सिर्फ
आमान परिवर्तन नहीं है. उत्तराखण्ड राज्य का बनना, समाज
के मिजाज और आर्थिकी का बदलना बड़े कारण हैं. प्रवास का रूप-स्वरूप भी तो कितना बदल
गया. कुछ समय बाद बड़ी लाइन पर लखनऊ से काठगोदाम तक एक नैनीताल एक्सप्रेस फिर
चलेगी. उसके कोच बेहतर और आरामदायक होंगे लेकिन हमारी पीढ़ी के लिए वह वही ‘नैनीताल एक्सप्रेस नहीं होगी जो बंद हो गई. उस ट्रेन की छुक-छुक, इंजिन से उड़ते कोयले के चूरे और देह भर में समाई धुएं की गंध हम भुला न पाएंगे.
(इसे यहां भी पढ़ सकते हैं-
http://www.nainitalsamachar.com/lekin-yaadon-ki-nainital-express/
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