लेकिन गुरु जी, स्मृतियों के इस झंझावात को रोकना होगा. हाँ, उससे पहले वह पक्ष अवश्य कहना होगा जिसके बिना आपके बारे में कुछ भी कहा-लिखा
अपूर्ण रहेगा- आपकी ‘श्रीमती जी’, जैसा
कि आप उन्हें कहते रहे.
कोई आठ-दस वर्ष पहले एक बार किसी इण्टरव्यू के सिलसिले में
मैंने आपसे पूछ लिया था- ‘अपनी रचनात्मक यात्रा में आपको परिवार का
कितना सहयोग मिला?’ आपके जवाब ने मुझे स्तब्ध कर दिया था, जो शब्दश: इस तरह था- ‘खेद है कि परिवार की ओर से
मुझे सहयोग नहीं मिला.’
मैंने सोचा था आप अपने परिवार को, खासकर
पत्नी को पूरा श्रेय देंगे लेकिन यह क्या कह गए थे गुरू जी,
आप? उस दिन नहीं टोक पाया था. आज आप चले गए हैं तो कुछ सवाल
करने की गुस्ताखी करूं? आप नाराज मत होना. मुझसे आप कभी नाराज
नहीं हुए. भरोसा करते रहे मुझ पर. तो बताइये, यह क्रूर जवाब
आपने क्यों दिया था?
हां, आज भी आपका जवाब मुझे अन्यायपूर्ण लगता है.
पांच जून 1955 को अल्मोड़ा से जिस देवकी देवी को आप ब्याह
लाए थे और जिसने इतने वर्ष आपकी हर प्रकार अद्भुत सेवा की, अगर
वह पूर्ण सहयोगी नहीं थी तो गुरू जी, कोई परिवार सहयोगी नहीं
हो सकता.
मैंने आपको इतने लम्बे सम्पर्क में कभी एक नीबू खरीदते नहीं
देखा. आप सिर्फ एक चीज खरीद सकते थे, सिगरेट की डिब्बी. घर में किताबों के अलावा
आपको सिर्फ ऐशट्रे और बाथरूम के मग्गे का पता होता था. आप पूरा वेतन ईमानदारी से
श्रीमती जी के हाथ में रख देते थे और रोज घर छोड़ने से पहले उनके सामने अपना हाथ
फैला देते थे, जिस पर वे हिसाब लगाकर आपकी दिन भर की सिगरेट
और चाय का खर्च रख देती थीं. यदा-कदा इस शिकायत के साथ कि ‘कल
तुमने एक डिब्बी सिगरेट ज्यादा खर्च की है, हां!’
परिवार चलाना, बच्चे पालना क्या होता है, आप कतई नहीं जानते थे. बच्चों को पढ़ने के लिए बिना शोर डांटा जा रहा होता
था या आटा-दाल के कनस्तर धीरे से खाली किए जा रहे होते थे तो सिर्फ इसलिए कि तब आप
रची जा रही कविता में छंद की मात्राएं दुरुस्त कर रहे होते थे. आपके रचनाकार का उस
घर में कितना सम्मान था, यह शायद आपको पता न रहा हो लेकिन आखिरी
सांस तक भी आपने जिन पुस्तकों को अलमारी में सजा-धजा देखा, उनमें
साफ, नया जिल्द चढ़ाने की फुर्सत भी ‘श्रीमती
जी’ ने ही निकाली थी.
आप भूले हों तो हों, हम कैसे भूल सकते हैं कि खुर्रमनगर
(पंतनगर) में जब आपका मकान बन रहा था तो देवकी जी फटी धोती पहन कर दिन भर मजदूरों के
साथ ईटा-गारा ढोती थीं ताकि रोज एक मजदूरी बचे. आपकी रोटी पकाने के बाद भी वे
अंधेरे में सिर पर ईटें रख कर छत के ढोले तक पहुंचाया करती थीं ताकि सुबह आते ही
राजमिस्त्री काम पर लग सके. जिस मकान पर आपने बड़े फख्र से ‘बंसीधर
पाठक ‘जिज्ञासु’ की तख्ती टांगी, उसका गारा-सीमेण्ट आपकी देवकी पर्वतीया के खून-पसीने में सना है. यह नाम
कभी आपने ही उन्हें दिया था लेकिन नेम प्लेट पर इसे भी शोभायमान करना आप भूले ही
रहे!
और, याद है, घर से
चाय-सिगरेट के खर्च के साथ रोज मिलने वाली हिदायत- ‘किसी की एक पैसे की चाय मत पीना, हां! अपने पैसे से
पीना.’ (घर आने पर चाय पिलाइए तो जिज्ञासु शौक से पीएंगे
लेकिन दफ्तर में पी गई हर कप चाय का पैसा वे अपनी जेब से देते थे. कलाकार-रचनाकार
से चाय पी लेना अपराध था उनके लिए.)
रिटायरमेण्ट के बाद जिन-जिन बीमारियों का हमला आप पर हुआ, उनसे
वे ही लड़ती रहीं. रोग ग्रस्त शरीर आपका था लेकिन युद्ध उनका. घंटों आपका मलपश
खुजलाना है, दवा चुपड़नी है, अपने हाथों
खाना खिलाना है. पिछले आठ-दस सालों से वे आपकी नींद सोती थीं, आपकी हर करवट पर जगती थीं. अपनी उनकी सिर्फ सांस थी और वह भी आप ही के
लिए जरूरी थी. जाड़ों में धूप में बैठा कर दो-तीन बार हाथ-पैरों और कमर की मालिश से
लेकर हर जरूरत का पूरा ध्यान. सुबह के दलिया से रात के दूध तक, समय-समय पर दवा, फल, जूस, बिस्कुट, जाने क्या-क्या, जिनका
एक टुकड़ा कभी उनके अपने मुंह में नहीं गया. वह पतली-दुबली काठी दो रोटी और दाल-भात
से चलती रही. उनकी चौकसी सीमा पर तैनात जवान की सतर्कता को मात करती थी. और जब कभी, आप कुछ खाने-पीने से मना कर देते थे तो क्या प्यारी डांट लगाती थीं, कि ‘बुड्ढे, खाओ-खाओ, खाओगे नहीं तो टिकोगे कैसे, और तुमको मैं मरने
दूंगी क्या!’ पिछले कई साल से तो आप उनके लिए नन्हे बालक ही थे
जिसे लाड़ में गरियाना-खिलाना-हंसाना जैसे उनके अपने लिए भी जीने का जरिया था. गालियों
भरी उनकी प्यारी डांट सुनकर आपके होठों पर हंसी थिरक उठती थी और आप चुपचाप खा लेते
थे. सब कहते थे कि जिज्ञासु जी को तो उनकी पत्नी ने टेक रखा है. बिल्कुल सच कहते
थे. वह तो सृष्टि का अटूट नियम टूटने का खतरा था, नहीं तो
देखते कि आठ जुलाई को भी आप कैसे जाते!
आपकी सारी कविता-कहानियों के नेपथ्य में, आपकी
सारी भटकनों में, आपके रिश्तों के निर्वाह में, आपकी एकनिष्ठ कुमाऊंनी सेवा तथा साफगोई और ईमानदारी के पीछे वे अनिवार्य
रूप से रही हैं, गुरू जी! उनका सहयोग अप्रतिम है. देखिए, आपके जाने के बाद वे एकदम से खाली हो गई हैं.
आपकी कुमाऊंनी सेवा का समादर समाज ने किया, आपको
प्यार और सम्मान मिला. इस लोक में आपको याद रखा जाएगा. और, उस लोक में अब आपको खूब पता चल रहा होगा कि कौन थीं देवकी और उनका आपके
जीवन एवं कर्म में कितना बड़ा योगदान रहा. अब तो आप अपना बयान बदल देना, गुरू जी!
और, आज अपने नब्बू का नमस्कार भी लेना, जिसे कहना मैं आपके सामने पड़ते ही हमेशा भूल जाता रहा. (फिलहाल इतना ही)
1 comment:
सच कहा आपने नवीन, अगर जिज्ञासु जी की पत्नी का ज़िक्र उनको दी जाने वाली इस श्रद्धा यात्रा में छूट जाता तो आपके हाथों भी एक अन्याय अनजाने में हो जाता। किसी की साहित्य यात्रा की चर्चा में यह पक्ष प्रायः छूटता है परन्तु आपसे छूटे यह शायद सम्भव नही। जिज्ञासु जी की पत्नी के त्याग को मैने भी अनुभव किया है। बहुत सुन्दर लिखा है आपने। बहुत प्यारी श्रद्धांजलि अर्पित की आपने जिज्ञासु जी को।
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