नवीन जोशी
आजकल सभी पार्टियों के भीतर कुछ नेताओं का दम अचानक घुटने लगा
है. फिर वे किसी दूसरी पार्टी की ‘खुली हवा’ में सांस
लेते दिखाई देते हैं और उसके गुणगान करने लगते हैं, जिसको
कोसते-गरियाते उनकी अब तक की राजनीति परवान चढ़ी होती है.
पार्टियों के रणनीतिकार दूसरे दलों के ऐसे बेचैन नेताओं की
तलाश में रहते हैं. पहला मकसद ‘बड़ी मछलियां’ फंसाने
का होता है. मछली की जाति का विशेष महत्व है. स्वामी प्रसाद मौर्य का उदाहरण लेते
हैं. वे बड़ी मछली हैं और उनका ओबीसी होना और भी मूल्यवान है. मौर्य इस कीमत को
जानते हैं. इसीलिए बसपा छोड़ने पर पहले बाजार का रुख देखते रहे. अंतत: भाजपा में
गए. भाजपा इसे बड़ी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित कर रही है. उसे पिछड़े
और दलित नेताओं की जरूरत है. किसी बड़े मुस्लिम नेता की और भी ज्यादा. लेकिन इससे
अंदरूनी पेंच भी फंसते हैं. जैसे, भाजपा में एक बड़े ‘मौर्य’ पहले से हैं, इस नाते
बड़ा पद भी मिला है. अब दूसरे बड़े मौर्य के आ जाने से उनकी पूछ कम तो होगी. वे कुछ
खिन्न बताए जाते हैं लेकिन इतने नहीं कि बगावत कर बसपा में चले जाएं. बसपा में उनका
बड़ा स्वागत होगा.
हां, दल-बदल के दांव ऐसे भी होते हैं. ‘तू मेरा ऊंट मार, मैं तेरा हाथी.’ जैसे, अभी बसपा
के हाथ पूर्व सपा सांसद रीना चौधरी लग गई हैं. वे आर के चौधरी की कमी पूरी करेंगी,
पार्टी ऐसा मानती है. चुनावी राजनीति मोहरों का खेल है. कांग्रेस के
तीन मुस्लिम विधायक बसपा में खिसक लिए. एक तो मायावती सौ से ज्यादा मुसलमानों को
टिकट दे रही हैं, दूसरे, कांग्रेस में
जीतने के आसार उनको सबसे कम लगे होंगे. कांग्रेस यू पी में खड़े हो पाने के लिए बड़ा
जोर लगाए हुए है. हाल की उसकी रैलियों और सोनिया के रोड शो में खूब भीड़ जुटी लेकिन
कांग्रेस में शामिल होने के लालायित बहुत कम होंगे. चुनाव जीतने की सम्भावना भी
होनी चाहिए.
सबसे ज्यादा सम्भावनाशील पार्टी भाजपा मानी जा रही है. ‘ब्राह्मण’ ब्रजेश पाठक भी उसी के दरवाजे गए. लेकिन
वहां पहले से मौजूद लोगों में चिंता भी है. दूसरे दलों से आए लोगों की पूछ ज्यादा
होगी, टिकट का वादा तो है ही. सो, जो
पहले से पैर जमाए और उम्मीदों से भरे है, उन्हें बेदखल होने
की फिक्र खाए जा रही है. सीधे विरोध कोई नहीं रहा, उसके अपने
खतरे हैं लेकिन कोई साक्षी महाराज से कहलवा रहा है तो कोई किसी और से.
दल-बदल की मण्डी में बसपा के भाव कुछ कम हुए हैं तो सपा के
बढ़े हैं. सपा में समस्या यह है कि कौन-सा दरवाजा खटखटाया जाए कि कोई नाराज न हो. चुनाव
करीब आते-आते यह खेल तेज होगा. असंतुष्टों की फसल बढ़ेगी और दूसरे दल उन मोहरों को
अपनी बाजी में फिट करने का कौशल दिखाएंगे. टिकट के लिए पाला बदलने वालों के बारे
में साबित तथ्य यह है कि अंतत: वे अपना सम्मान और रुतबा खो देते हैं. मगर इस मुई
राजनीति में सम्मान की चिंता है किसे! ( नभाटा, 28 अगस्त, 2016)
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