चुनाव हमारे यहां कौतुक भी कम नहीं. महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक प्रक्रिया के
अलावा मेला और मनोरंजन. पिछले दो दशक में चुनाव आयोग ने इसकी शुचिता के लिए कई
जरूरी एवं सख्त कदम उठाए. नतीजा यह हुआ कि राजनैतिक दलों और प्रत्याशियों की बहुत
सारी अराजकता और मनमानियां दूर हुईं. जनता की परेशानियां कम हुईं लेकिन चुनाव का
जो कौतुक पक्ष था, वह भी जाता रहा.
झण्डे, पर्चे-पोस्टर, बैनर, बिल्ले, नारे, चौबीस घण्टे का
गीत-संगीत और गली-मुहल्ली
घूमती गाड़ियों के पीछे भागते बच्चे, आदि-आदि गायब हो गए.
प्रचार के नए तरीके निकल आए. मोबाइल पर भांति-भांति के ऑडियो-वीडियो संदेशों में वह मजा कहां जो चींघाड़ती गाड़ियों से उड़ाए
जाते पर्चों-बिल्लों को देखने या लूटने में आता था. आमने-सामने डटीं दो विरोधी
प्रत्याशियों की प्रचार गाड़ियों की जवाबी नारेबाजी या कव्वाली अब देखने को नहीं
मिलतीं. खैर.
गांवों कस्बों में आज भी चुनाव अच्छा मेला-तमाशा है. ढाबों-चौपालों की बैठकी
बहुत मजेदार होती है. सयाने लोगों के सामने मजमा लगा रहता है. तरह-तरह की बातें
होती हैं. प्रत्याशी आते हैं तो दृश्य रोचक हो जाता है. दुआ-सलाम से लेकर पांयलगी
तक होती है. प्रत्याशी आशीर्वाद मांगता है तो खुले दिल से दिया जाता है. कहा जाता
है कि तुम ही जीतोगे. दूसरे प्रत्याशियों पर भी कृपा बरसाई जाती है. उनके जाने की
बाद हंसी-ठट्ठा भी होता है. आलोचना और तारीफें होती हैं. कई बार बहस तीखी हो जाती
है. जाति-उप जाति के लोग एक-दूसरे को तौल रहे होते हैं.
मीडिया की टीम पहुंचती है तो माहौल फिर बदल जाता है. गम्भीर बने ग्रामीण अपना
मन खोलते नहीं. आप पूछते रहिए, किसका जोर है, कौन जीतेगा, वे कभी सीधा उत्तर
नहीं देंगे. घुमा-फिरा कर बात करेंगे. उलटे पूछ लेंगे, आप पंच बताओ, केहिका जितावा जाई? वे सवाल पूछने पर और प्रत्याशियों के निवेदन करने पर मजे लेते
हैं. आश्चर्य नहीं कि, एक ही क्षेत्र से
लौटे अलग-अलग मीडिया वालों की राय अलग-अलग होती है. ज्यादातर तो राय बना ही नहीं
पाते और जनता के डायलॉग कोट करके या हिन्दू-मुसलमान और जातियों का आंकड़ा बता कर
चुनाव रिपोर्ट तैयार कर देते हैं. भारतीय मतदाता मीडिया को ही नहीं, चुनाव सर्वेक्षणों और एक्जिट पोल विशेषज्ञों को भी चकमा
देने में माहिर हैं.
जातियों-उपजातियों में गहरे बंटा असमान भारतीय समाज चुनाव नतीजों में मुखर
होता रहा है. खास लहर वाले कुछेक चुनावों को छोड़ दें तो समाज का यही बंटवारा
प्रत्याशियों की नैया पार लगाता या
डुबोता है. आजादी के बाद के शुरुआती दशकों
के चुनावों में जातीय रणनीतियों पर विकास और विचार की राजनीति हावी थी. तब राजनीति
में कुछ मूल्य होते थे. धीरे-धीरे जाति की राजनीति हावी होती गई. आज राष्ट्रीय कहे
जाने वाले दल भी जाति और धर्म की राजनीति पर उतर आए हैं. क्षेत्रीय दलों का उभार
जाति आधारित रहा, भले ही समाजवाद जैसे
शब्द आवरण बने हों. जातीय असमानता और घोर वंचना से यह राजनीति पनपी और कुछ
संदर्भों में उसकी सार्थकता भी है. मतदाता इस आधार पर अपना वोट नहीं तय करने वाला
हो तो भी राजनैतिक दल उसे मजबूर कर देते हैं.
क्या विडम्बना है कि प्रबंधन के विशेषज्ञ कम्प्यूटर और सॉफ्टवेयर पर जातीय
समीकरण का जोड़-तोड़ करके जीत का फॉर्मूला बनाते हैं! उसी आधार पर जिताऊ प्रत्याशी
चुना जाता है. भारतीय चुनावों में यह भी कम कौतुक की बात नहीं. (नभाटा, 12 फरवरी, 2017)
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