नवीन जोशी
सबसे पहले हमने निर्वाचन आयोग की होर्डिंग में पढ़ा- ‘वोट कीजिए’ तो सोचा कि छापे की
गलती होगी. गलत लिखावट जहां-तहां देखने को मिलती रहती है. ‘दीजिए’ का ‘कीजिए’ हो गया होगा. एक-दो
रोज बाद एक अखबार में पढ़ा- ‘वोट जरूर कीजिए’. तब भी यही सोचा कि गलती से हो गया होगा. एक से एक विद्वान
सम्पादकों-उप सम्पादकों के आ जाने के बाद अखबार प्रूफ रीडरों को विदा कर चुके हैं.
वैसे भी, सूचना विस्फोट के
इस युग में हिज्जों की गलती की किसे परवाह है.
अर्थ का अनर्थ होता रहता है. यह पाठक की जिम्मेदारी है कि वह गलत पढ़े और
सही समझे. हमने भी ठीक ही समझा कि ‘वोट दीजिए’. जरूर, अपना वोट अवश्य
देंगे, भाई!
फिर दूसरे समाचार पत्रों में भी पढ़ने को मिलने लगा. टीवी चैनलों के पर्दे पर
भी दिखाई दिया- ‘वोट करना हमारा
लोकतांत्रिक दायित्व है.’ मुस्कान बिखेरते
परिचित चेहरे चहकने लगे- ‘छुट्टी नहीं मनाना
है, वोट करने जाना है.’ तब हमारा माथा ठनका. गलती न छापे की है, न प्रिण्टर की, न कॉपी एडिटर की.
गलती हमारी है. हम बदलते और बेहतर
होते समय के साथ नहीं चल पा रहे. ‘वोट देना’ भी अब ‘वोट करना’ हो गया होगा. यह
नया चुनाव सुधार होगा.
पहले मत पत्र होता था और मत पेटी होती थी. मत पत्र पर मुहर लगा कर उसे मत पेटी
में ‘डाला’ जाता था. इसलिए कहा जाता था- हमने
अपना ‘वोट डाल’ दिया. ‘मुहर मेरी लगेगी
वहां...’ जैसे गाने भी बजते थे.
‘वोट डालना’, ‘मुहर लगाना’, ‘बैलेट बॉक्स लूटना’ पुरानी
बातें हो गईं. ‘मतपेटी से निकली
पंजे की आंधी’ जैसा शीर्षक सुन कर
आज का पत्रकार चकरा जाएगा. जैसे ‘वोट करना’ पढ़-सुन कर हम चकरा रहे हैं.
हमारे एक युवा साथी ने कहा- सर, वक्त के साथ
टेक्नॉलॉजी बदलती है और भाषा भी. पहले ‘खत
लिखते’ थे अब ‘ईमेल करते’ हैं. लिखने की क्रिया ‘करने’ में बदल गई. हमने उसे शाबाशी दी, समझाने के लिए. फिर पूछा- ‘सो
तो ठीक, लेकिन ये बताओ कि जब
इलेक्ट्रॉनिंग वोटिंग मशीन में बटन दबाते हैं तो ‘वोट
दबाना’ क्यों नहीं कहते. जैसे, अपना अमूल्य वोट अवश्य दबाइए?’
युवा साथी चकरा गया. थोड़ी देर बाद बोला- ‘सर, आप अब भी खाना खाते हैं?’ हमने
कहा- ‘कैसी बात करते हो, खाना नहीं खाएंगे तो जिंदा कैसे रहेंगे?’ वह हंसा- ‘सॉरी सर, मेरा मतलब था कि अब तो हम ब्रेकफास्ट करते हैं, लंच करते हैं, डिनर करते हैं. खाना खाना अब पचता नहीं’.
‘तो, वोट करना पचता है? वोट
देना क्यों नहीं पचता?’ हमने पूछा. वह हंसता
हुआ चला गया, जैसे कह रहा हो कि आप समझेंगे नहीं! हम गुजरे जमाने का
होने को तैयार नहीं थे. इसलिए फौरन पड़ोसी
के घर की घण्टी बजाई, सॉरी, कॉल बेल. पूछा- ‘वोट
कर आए?’
वे हंसे- ‘क्या हो गया आपको? वोट कब से किया जाने
लगा? हम तो वोट दे कर आए हैं.’
हमने कहा- ‘आप ध्यान से अखबार
नहीं पढ़ते? टी वी ठीक से नहीं
देखते? इस साल से वोट किया जाने लगा है.’
‘भाई जी, कम से कम हमारे वोट के साथ मजाक मत कीजिए.’ कह कर उन्होंने मुंह फेर लिया. हम उन्हें कैसे समझाएं कि
अखबार-टी वी मजाक नहीं करते. (नभाटा, 26 फरवरी, 2017)
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