नवीन जोशी
उत्तर प्रदेश की चुनावी तस्वीर हाल में बहुत तेजी से बदली
और अब भी बदलती नजर आ रही है. पांच चरणों का मतदान हो चुका है. दो चरण बाकी हैं.
विकास के दावों और वादों से शुरू हुआ प्रचार अब जातीय जोड़-तोड़, धार्मिक ध्रुवीकरण और व्यक्तिगत आरोपों-प्रत्यारोपों के निम्न
स्तर तक उतर आया है. कब्रिस्तान-श्मशान और गदहे तक भाषणों में खासी जगह पा रहे
हैं. इससे भी समझा जा सकता है कि चुनावी तस्वीर किसी एक के स्पष्ट पक्ष में नहीं
दिख रही है. नेता गण विचलित हैं और इसे अपने पाले में करने के लिए कोई कसर नहीं
छोड़ रहे.
समाजवादी पार्टी का झगड़ा जब चरम पर था तब लगता था कि यूपी
की सत्ता के लिए मुख्य लड़ाई भाजपा और बसपा के बीच होगी. सन 1992 के बाबरी मस्जिद
ध्वंस के बाद से सपा के साथ मजबूती से जुड़े रहे मुसलमान मतदाता असमंजस में थे. इसीलिए
उनका झुकाव मायावती की ओर दिख रहा था. मायावती की रणनीति भी दलित-मुस्लिम समीकरण
के सहारे चुनाव जीतने की थी. उन्होंने इस बार सबसे ज्यादा मुसलमान प्रत्याशी इसीलिए
खड़े किए हैं. यह समीकरण बसपा के पक्ष में जाता लग रहा था. भाजपा भी बसपा को मुख्य
प्रतिद्वंद्वी मान कर मायावती को दलित विरोधी साबित करने में लगी थी.
भारतीय जनता पार्टी अपने सवर्ण आधार के साथ गैर-यादव पिछड़ों
और गैर-जाटव दलितों का समर्थन पाने के लिए काफी समय से लगी हुई थी. सपा की लड़ाई का
फायदा उठाते हुए वह बसपा को कमजोर करने की
रणनीति पर काम कर रही थी. स्थिति भी ऐसी बन रही थी कि सपा से खिन्न गैर-यादव
जातियां पार्टी विभाजन से आजिज आकर भाजपा का साथ दे सकती हैं. मायावती के चंद बड़े
दलित और पिछड़े नेताओं को भाजपा पहले ही अपने पाले में ला चुकी थी. इन जातियों के समर्थन और मुसलमान
वोटरों का बंटवारा होने की स्थिति में उसे यूपी की सत्ता का रास्ता साफ लग रहा था.
सपा की लड़ाई का फैसला अखिलेश यादव के पक्ष में होते ही यह
दृश्य बदल गया. लगभग पूरी सपा पर अखिलेश का कब्जा होने, सायकिल चुनाव चिह्न उन्हें मिलने तथा कांग्रेस से अंतिम क्षणों में तालमेल
होने से मुसलमानों का असमंजस खत्म होने के साफ संकेत थे. युवा मुख्यमंत्री अखिलेश
की साफ-सुथरी छवि, विकासपरक उनकी सोच, अपराधी छवि के नेताओं से दूरी बनाने और कतिपय उल्लेखनीय
उपलब्धियों की सर्वमान्य स्वीकृति से लगने लगा कि वे दौड़ में सबसे आगे रहेंगे.
यही वजह थी कि प्रधानमंत्री मोदी समेत सभी भाजपा नेताओं के
हमले अखिलेश की सरकार और कांग्रेस पर तेज हो गए. साथ ही उन्होंने बसपा को मुख्य
प्रतिद्वंद्वी बताना जारी रखा ताकि मुसलमान वोटरों में भ्रम पैदा हो, वे सपा-बसपा के बीच बंट जाएं और भाजपा की जीत की बाधा दूर हो.
ग्यारह फरवरी को मतदान का पहला चरण पूरा होते ही दृश्य फिर
बदल गया. पश्चिमी उत्तर प्रदेश से मतदान के जो संकेत निकले वह भाजपा के पक्ष में
कतई नहीं थे. मतदान के रुझान, मीडिया की जमीनी
रिपोर्टों और पार्टी नेताओं के रुख से लगा कि जाट वोटरों ने भाजपा का साथ नहीं
दिया, जैसा उन्होंने 2014 के लोक सभा
चुनाव में एकमुश्त किया था. खबर यह रही कि जाट वोटर अपने परम्परागत ठिकाने, अजित सिंह की राष्ट्रीय लोक दल की तरफ लौट आए और मुसलमानों
ने भाजपा को हरा सकने वाले सपा या बसपा प्रत्याशी का समर्थन किया. सन 2013 से ही
पश्चिम में धार्मिक ध्रुवीकरण में लगी भाजपा के लिए यह बड़े नुकसान का संकेत है.
उसे पहले चरण से अच्छी उम्मीद थी.
मतदान का दूसरा चरण मुस्लिम बहुल रुहेलखण्ड क्षेत्र में था
और पंद्रह फरवरी की शाम ने हवा बदलने का संकेत दिया. मुसलमान वोटों का सपा-बसपा
में बंटवारा होने की खबरों ने भाजपा के खेमे में उत्साह पैदा किया. तीसरा चरण मध्य
यूपी के मुख्यत: शहरी क्षेत्र में था और भाजपा के काफी अच्छा प्रदर्शन करने की
खबरें हैं. इसी के साथ पहली बार यह दिखाई दिया कि अखिलेश और राहुल की कैमिस्ट्री
मंच पर भले दिखती हो, जमीन पर उनके
कार्यकर्ताओं में आच्चा तालमेल नहीं है. कई जगह ‘दोस्ताना
लड़ाई’ के अलावा भी सपा कार्यकर्ताओं को
लगता है कि वे कांग्रेस के बिना बेहतर करते. मतदान के बुंदेलखण्ड तक
पहुंचते-पहुंचते यह खबरें आने लगीं कि गठबंधन कमजोर पड़ रहा है और भाजपा बेहतर करती
जा रही है.
बुंदेलखण्ड से बसपा के लिए भी अच्छी खबर नहीं आई. बहुत
पिछड़ा और बड़े-बड़े आर्थिक पैकेजों के प्रचार के बावजूद समस्याओं से ग्रस्त यह इलाका
बसपा का गढ़ रहा है. मगर इस बार मतदान के संकेत बताते हैं कि ‘अन्य पिछड़ी’ और कुछ दलित
जातियों ने पाला बदल कर भाजपा का साथ दिया है. कुछ राजनैतिक विश्लेषक मान रहे हैं
कि भाजपा की जातीय जोड़-तोड़ की रणनीति काम कर रही है. करीब एक माह से पूरे प्रदेश
में घूम रहे वरिष्ठ पत्रकार बृजेश शुक्ल दावे के साथ कहते हैं कि गैर-यादव एवं
गैर-जाटव दलित पहली बार भाजपा के पक्ष में एकजुट हो गए हैं. बृजेश तो यह भी कह रहे
हैं कि गांव-देहात के गरीबों में नोटबन्दी का सकारात्मक प्रभाव भी भाजपा को फायदा
पहुंचा रहा है. विरोधी दलों के प्रचार के विपरीत वे नोटबंदी को अमीरों के खिलाफ और गरीबों के हक में मान रहे हैं.
मतदान के पांचवे चरण के समय परिदृश्य यह है कि शुरुआत
में लड़ाई में पिछड़ती दिख रही भाजपा अब आगे निकल रही है. अखिलेश यादव की बेहतर छवि
और उनकी चर्चित उपल्ब्धियों से उन्हें तारीफ तो खूब मिल रही है लेकिन शायद वोट उस
अनुपात में नहीं. सपा-कांग्रेस का गठबंधन सम्भवत: खास फायदे का सौदा नहीं हुआ.
प्रारम्भ में भाजपा को सीधी टक्कर देने वाली मायावती की सोशल इंजीनियरिंग और
दलित-मुस्लिम एकता के प्रयास अंतत: उतने प्रभावकारी नहीं लगते जितने शुरू में दिख
रहे थे.
अपनी पार्टी को अब बढ़त में देख कर ही मोदी समेत भाजपा के
सारे नेता अंतिम दो चरणों में अधिकतम लाभ लेने के वास्ते आक्रामक व्यक्तिगत
प्रचार और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण कराने में लगे हैं. (26 फरवरी, 2017)
https://swarajyamag.com/politics/as-up2017-enters-fifth-round-a-bjp-surge-is-evident )
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