सिटी तमाशा
मुश्किल से एक साल की रही होगी वह गुड़िया-सी बच्ची, जिसे लेकर युवा दम्पति हमसे मिलने आये थे. गोद से उतर कर वह अपने
मम्मी-पापा के मोबाइल पकड़ने की जिद कर रही थी.
-‘आंख खोलते ही इसे मोबाइल चाहिए’ मम्मी ने सगर्व बताया- ‘स्मार्ट
फोन ऑपरेट कर लेती है.’
-‘बेटा, अंकल को दिखाओ मोबाइल में अपनी फोटो,’ पापा ने प्रदर्शन शुरू कराया. नन्ही बिटिया ने मोबाइल
स्क्रीन पर तेजी से अंगुली दौड़ाई और फोटो खोल दिये. फिर अंगुली की रफ्तार से
उन्हें खिसकाया और अपनी फोटो पर अंगुली रख दी.
-‘शाबाश!’ मम्मी चहकी-‘अब पापा को कॉल करो.’ बिटिया ने स्क्रीन पर कुछ अंगुलियां चलाईं और फोन कान पर
लगा कर तुतलाई- ‘हैलो..हैलो, पापा!’ फोन उसकी हथेलियों
के लिए काफी बड़ा था, फिसल कर गिर गया.
मम्मी परेशान हो कर फोन को हुआ नुकसान जांचने लगीं. बिटिया अब पापा के फोन की ओर
लपकी. जितनी देर वे बैठे बिटिया के मोबाइल-प्रेम और नन्ही उम्र में विशेषज्ञता की
बातें होती रहीं.
उन्हें विदा कर गेट बंद कर रहा था कि सामने के पार्क पर नजर गयी. वहां कुत्ते
के चार-छह पिल्ले उछल-कूद कर रहे थे. अच्छा बड़ा, हरा-भरा पार्क है. गर्मी के बावजूद शाम खुशनुमा थी. वहां
मनुष्य का एक भी बच्चा नहीं था. पानी उगलते पाइप से भी पिल्ले ही खिलंदड़ी कर रहे
थे.
उसी सुबह अखबार में पीजीआई में पेट रोगों पर हुए सम्मेलन में
विशेषज्ञ-चिकित्सक डा घोषाल का वक्तव्य छपा था- ‘बच्चों
को मिट्टी में खेलने दीजिए. हैण्ड पम्प का पानी पीने दीजिए. इससे उनका इम्यून
सिस्टम मज्बूत होगा. इसके बिना आजकल के बच्चों का इम्यून सिस्टम कमजोर हो रहा है.
रोगों से लड़ने की उनकी क्षमता खत्म हो रही है.’
मुझे पंद्रह-बीस वर्ष पहले के इसी पार्क के दृश्य याद आ गये जब बच्चों से
पार्क गुलजार रहता था. खेलते-कूदते बच्चे कीचड़ में सन कर लौटते थे. घर आने की
पुकार अनसुनी करके अंधेरा होने तक खेलते रहते थे. पार्क के पाइप से पानी पी लेते
और डांट खाते थे. उनके घुटने छिले रहते थे और आये दिन कपड़ों के बटन गायब पाये जाते
थे. वह पीढ़ी बड़ी होकर अपने सपनों की तितलियों का पीछा करने निकल गयी. उसके बाद की
पीढ़ियों ने अपने पार्क पिल्लों के हवाले कर दिये. उनके सपनों और शरीर पर
मोबाइल-हमला हो गया.
मुहल्ले में बच्चे हैं पर वे कभी-कभार ही बाहर दिखाई देते हैं. बालकनियों, छतों पर मोबाइल से बात करते या उसमें खोए बच्चों के दृश्य
बहुत आम हैं. कमरों में मोबाइल या कम्प्यूटर में डूबे खामोश बच्चों की पीढ़ी हमारे
सामने बड़ी हो रही है. गौर कीजिए तो सुबह
कॉलोनी से स्कूल जाते बच्चों में ज्यादातर थुल-थुल दिखाई देंगे. उनका खान-पान बदल
गया है. उनके खेल बदल गये
हैं. गेंद ताड़ी, छुपन-छुपाई, सेवन टाइल्स, रस्सी कूद, गुट्टक, सिकड़ी, जैसे नाम आज के
बच्चों के लिए कतई अनजान हैं. मोबाइल के स्क्रीन पर लेकिन अजब-गजब खेल हैं. खेल
हैं कि खतरनाक हथियार हैं!
पुराने को बदलना ही है. अपने जमाने को ही आज पर आरोपित करना गलत है लेकिन
विकसित होते तन-मन के लिए उछल-कूद का
कोई विकल्प नहीं. मोबाइल में सिमटती दुनिया से आंखें नहीं मोड़ी जा सकतीं लेकिन
पार्क को पिल्लों के हवाले करके मोबाइल में पल रही पीढ़ी के बारे में चिंता करनी
चाहिए. (नभाटा, 27 मई, 2017)
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