मुझे कुछ दिन से रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी ‘काबुलीवाला’ बहुत याद आ रही है. काबुलीवाला जैसे मुहब्बत
वाले इनसान बहुत होंगे और इनसान के रूप में शैतान बहुत कम मगर क्या अब कोई बच्ची
किसी काबुलीवाले को प्यार से पुकार नहीं सकेगी? क्या सभी
बच्चों को सिखाना होगा कि हर बाहरी आदमी खूंखार हत्यारा और बलात्कारी है? कोई काबुलीवाला किसी नन्हीं बच्ची में अपनी बिटिया का चेहरा नहीं देख सकता?
छोटे बच्चे, या हम बड़े भी नकली और असली
काबुलीवाला में भेद कैसे करें?
गुड़गांव के एक स्कूल में सात साल के बच्चे की हत्या ने सबकी
रूह कंपा दी है. एक हफ्ते से ज्यादा हो गया, यह दर्दनाक खबर सुर्खियों में बनी हुई है.
इस बहाने बच्चों की सुरक्षा पर हर छोटे-बड़े शहर में हर कोण से विमर्श हो रहा है.
केंद्र से लेकर राज्यों की सरकारें तक बच्चों की सुरक्षा के उपाय सुझाने में लगी
हैं. सरकारें, प्रशासन. स्कूल प्रबंधन और अभिभावक सभी चिंतित
और सतर्क दिखाई दे रहे हैं.
स्कूलों में जगह-जगह खुफिया कैमरे लगाने, स्कूल-वाहनों के ड्राइवर-कण्डक्टर से लेकर सभी टीचरों एवं बाकी कर्मचारियों
का पुलिस सत्यापन कराने जैसे उपायों पर जोर दिया जा रहा है. अभिभावकों को सलाह दी
जा रही है कि वे अपने बच्चों पर निगाह रखें, उनकी बात ध्यान
से सुनें और उनके साथ समय बिताएं.
बेतहाशा भागती आज की दुनिया में अबोध बच्चे सबसे ज्यादा
खतरे में हैं. अभिभावकों की आपा-धापी ने इस खतरे को बढ़ाया है. बच्चे आज अकेले और
भावनात्मक रूप से उपेक्षित हैं. टेक्नॉलॉजी ने एक झटके में सारी दुनिया उनके सामने
खोल दी है. इस रहस्य को साझा करने या समझाने वाले उनके पास नहीं हैं. स्कूल पवित्र
स्थान नहीं, दुकान है. महंगी दुकान में बच्चे को पहुंचा कर गौरवान्वित
माता-पिता को इस गोरखधंधे की तरफ देखने की फुर्सत नहीं. दुकान वालों को सिर्फ धंधे
के मुनाफे से मतलब है.
गुड़गांव के स्कूल में सुरक्षा की चूक थी कि कण्डक्टर बच्चों
के शौचालय में चला गया. उसे स्कूल परिसर में प्रवेश की अनुमति नहीं होनी चाहिए थी.
परंतु जब स्कूल का ही चौकीदार या अध्यापक
बच्चों को हवस का शिकार बनाए तो क्या कहेंगे? उसे किस चौकसी से रोकेंगे? खुफिया कैमरा अपराधी को पकड़ने में सहायक हो सकता है लेकिन अपराध होने को
कैसे रोकेंगे?
मनुष्य के भीतर का शैतान
क्या अब ज्यादा जागने लगा है? क्या आजकल वह ज्यादा विवेकहीन और
सम्वेदनहीन हो गया है? हमने स्कूल आते-जाते बच्चों से रिक्शा
वालों और ड्राइवर-कण्डक्टरों के बड़े मोहिले रिश्ते देखे हैं. अनेक बार वे उनके
सबसे अच्छे और निश्छल दोस्त होते हैं. अब क्या हर ऐसे रिश्ते को शक की निगाह से
देखना होगा? क्या बच्चों से कहना होगा कि वे रिक्शा वाले से, स्कूल बस वाले से डरे-डरे रहें, उनसे बातचीत या
दोस्ती न करें?
सात साल के बच्चे को क्या, किसी बड़े को भी
यह कैसे समझाया जा सकता है कि दोस्त लगने वाला स्कूल बस का कण्डक्टर उसका गला रेत
सकता है? या पांच साल की बच्ची को स्कूल के माली और चौकीदार
या क्लास टीचर को शैतान समझना कैसे सिखाया जा सकता है? उनका
बचपन ही कुचल देना होगा क्या? हमेशा सतर्क और डरे रहने की
घुट्टी बच्चों को पिलानी होगी? इनसानी रिश्तों और कोमल
भावनाओं की कोई जगह ही इस जमाने में नहीं होगी?
यह सोच कर भी तो रूह कांपती है!
(सिटी तमाशा, 16 सितम्बर, 2017)
1 comment:
बहुत अच्छा लेख। वास्तव में हमारे नन्हे-मुन्ने हर पल खतरों से घिरे हुए हैं। बिल्कुल सही कहा आपने कि महँगी दुकान में बच्चों को पहुँचा कर गौरवांवित माता-पिता को इस गोरखधंधे को देखने की फुर्सत नही है। माता पिता अब बच्चों को सुरक्षा देते नही हैं,अपितु खरीदते। चर्चाएँ बहुत हैं परन्तु क्या होगा, कितना होगा, यह तो समय ही बतायेगा।
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