पत्रकारों पर इधर हमले ही बहुत नहीं हुए, दलगत
और व्यक्तिगत निष्ठाओं के लिए भी उनकी खूब लानत-मलामत हो रही है. आरोप-प्रत्यारोप
और व्यक्तिगत हमलों तक पहुंचे इस संग्राम से सोशल साइट्स भरे पड़े हैं. कई वरिष्ठ पत्रकार
भी इस अप्रिय विवाद में जूझे हुए हैं. पत्रकारिता के स्तर, पत्रकारों की नयी पीढ़ी की भाषा, विषयों की उसकी समझ, आदि
पर चर्चा कम ही होती है. वैसे तो संस्कृति, अपराध, संसदीय, लगभग सभी क्षेत्रों
की रिपोर्टिंग में कई बार रिपोर्टर के अज्ञान और सम्पादन की लापरवाहियों
से हास्यास्पद खबरें छपी मिलती हैं. मेडिकल रिपोर्टिंग की स्थिति तो अक्सर बड़ी
दयनीय दिखाई देती है.
बीते शुक्रवार की सुबह लखनऊ के एक हिंदी दैनिक में यह खबर पढ़कर हम चौंके कि
लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान में ‘पेट की सीटी मशीन’ लगाने की स्वीकृति मिल गयी है. खबर कह रही थी कि “संस्थान
के निदेशक डॉ दीपक मालवीय ने बताया कि पेट की सीटी मशीन......” कोई डॉक्टर तो ऐसा नहीं कह सकता. हमने एनबीटी समेत कुछ
दूसरे अखबार देखे तो बात साफ हुई. बात “पेट की सीटी मशीन” की नहीं, “पेट” जांच मशीन की है. पोजिट्रॉन एमीशन टोमोग्राफी यानी पी
ई टी जांच को संक्षेप में “पेट” कहा जाता है, जिससे
कैंसर समेत शरीर की विभिन्न जटिल व्याधियों की पहचान आसानी से हो जाती है. बेचारे
उस रिपोर्टर ने “पेट” को शरीर का अंग, पेट समझ लिया, लिख दिया और छप गया.
बताने-समझाने-सिखाने वाले
सम्पादक और वरिष्ठ पत्रकार अब कम होते जा रहे हैं. पठन-पाठन, शोध, सलाह-मशविरे, और सीखते रहने की प्रवृत्ति नये पत्रकारों में लगभग गायब है.
कभी अपनी ‘कॉपी’ (खबर) जंचवाने में नयी पीढ़ी के पसीने छूटते थे. क्लास लग
जाती थी. कुछ गुस्सैल सम्पादक रिपोर्टर के मुंह पर कॉपी दे मारते थे. अब लाखों की
फीस लेने वाले पत्रकारिता संस्थानों से ‘प्रशिक्षित’ युवाओं की बड़ी फौज आने के बावजूद यह हाल है. आखिर वे वहां
क्या सीखते हैं और सिखाने वाले क्या सिखाते हैं? इतना
तो सिखाया ही जाना चाहिए कि जो बात आपको खुद समझ में नहीं आ रही, उसे पाठक क्या समझेंगे? इसलिए
या तो पूछ कर समझ लीजिए या फिर उस बात को लिखिए ही नहीं.
‘टूटे-फूटे स्ट्रेचर’ से लेकर ‘डॉक्टर की लापरवाही
से मरीज की मौत’ जैसी खबरों तक सीमित
मेडिकल रिपोर्टिग के बारे में वरिष्ठ डॉक्टर कभी शिकायत और हंसी-मजाक किया करते
थे. पीजीआई के एक प्रोफेसर ने कभी मेडिकल रिपोर्टिंग पर कार्यशाला का सुझाव दिया
था. एक डॉक्टर मित्र ने हाल में एक खबर दिखाकर सवाल उठाया था कि ‘डॉक्टर ने ऑपरेशन में लापरवाही की’ लिखने
वाला रिपोर्टर यह भी तो लिखे कि क्या गलती हुई. तब मन में सवाल उठा था कि मेडिकल
रिपोर्टर डॉक्टर न सही, पैरा-मेडिकल स्टाफ
की तरह प्रशिक्षित क्यों नहीं होना चाहिए? और यह बात हर बीट पर लागू क्यों नहीं होनी चाहिए? ऐसा दिन कभी आएगा?
पत्रकारों के लिए पहले एक कहावत मशहूर थी- “जैक ऑफ ऑल ट्रेड्स एण्ड मास्टर ऑफ वन.”
यानी उन्हें हर विषय के बारे में थोड़ा-थोड़ा जानना चाहिए लेकिन एक विषय का विशेषज्ञ
होना चाहिए. अब तो लगता है कि पत्रकारों ने अपने को हर विषय का पैदाइशी विशेषज्ञ
मान लिया है. सीखने की जरूरत ही नहीं. वैसे भी रिपोर्टर जो लिख देता है, वैसा ही छप जाता है. ज्यादातर जगह सम्पादन नाम की चिड़िया
फुर्र हो गयी.
निष्ठा जताने के लिए भी आखिर कुछ समझ और भाषा की जरूरत होती होगी!
(सिटी तमाशा, नभाटा, 30 सितम्बर 2017)
No comments:
Post a Comment