Wednesday, December 27, 2017

विपक्षी एकता के अंतर्विरोध


बीती 23 दिसम्बर को पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की जयंती के मौके पर जब समाजवादी, वामपंथी और कांग्रेस के नेता एक मंच पर जुटे तो किसानों और जाटों के उस बड़े नेता की प्रशस्ति से ज्यादा विपक्षी दलों के एकजुट होने की जरूरत पर ज्यादा चर्चा हुई. दिल्ली में इस मंच पर चार समाजवादी धड़े थे- समाजवादी पार्टी के रामगोपाल यादव, जनता दल (यू) के विद्रोही शरद यादव, जनता दल (एस) के दानिश अली, राष्ट्रीय जनता दल के अजित सिंह. साथ में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सीताराम येचुरी और कांग्रेस के आनंद शर्मा.
इन नेताओं के भाषणों के स्वर से लेकर आपसी बातचीत तक एक ही मुद्दा केंद्र में रहा कि 2019 के लोक सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का मुकाबला करने के लिए विपक्षी दलों की एकता हो जानी चाहिए. हालांकि यह पहली बार नहीं है. नरेंद्र मोदी की अजेय-सी लगने वाली छवि बनने के बाद से विपक्षी दलों को एकता की जरूरत ज्यादा ही लगने लगी है. यह अलग बात है कि उसे व्यवहार में उतारना उनके लिए मुश्किल बना रहा. विरोधी दलों के अंतर्विरोध, वैचारिक और क्षेत्रीय टकराव कम नहीं.

विपक्षी दलों की एकता की नयी चर्चा गुजरात चुनाव नतीजों के बाद छिड़ी है. इन नतीजों ने साबित किया कि भाजपा अजेय नहीं है. नतीजों के तत्काल बाद विरोधी दलों की प्रतिक्रियाओं से उनकी एकता की चाहत सामने आने लगी है. उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा कि 2019 में  भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों का साथ लेना चाहिए. स्पष्ट है कि अखिलेश अब भी कांग्रेस से गठबंधन करने के इच्छुक हैं, यद्यपि उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों में सपा-कांग्रेस गठबंधन पिट गया था. मुलायम सिंह यादव मानते हैं कि सपा की हार कांग्रेस की वजह से ज्यादा हुई लेकिन अखिलेश भाजपा को बड़ी चुनौती मानते हुए विपक्षी एकता के पक्षधर हैं. यहां तक कि वे धुर विरोधी मायावती से भी हाथ मिलाने के हिमायती हैं.

मायावती उत्तर प्रदेश में आज भी बड़ी राजनैतिक ताकत हैं. भाजपा ने उनके दलित वोट बैंक में सेंध लगाई है. भाजपा के खिलाफ किसी मोर्चे में उनके शामिल होने की सम्भावना तो बनती है और वे असहमत भी नहीं लेकिन जैसी उनकी राजनीति है, उसमें शर्तें और शंकाएं ज्यादा हैं. कुछ समय पहले उन्होंने कहा था कि वे भाजपा के खिलाफ किसी गठबंधन में शामिल हो सकती हैं लेकिन सीटों का बंटवारा पहले हो जाना चाहिए. दिक्कत यह है कि सपा-बसपा का मुख्य आधार उत्तर प्रदेश है. दोनों ही वहां अपनी जमीन दूसरे के लिए आसानी से नहीं छोड़ने वाले.

उत्तर प्रदेश में विपक्षी एकता का एक महत्त्वपूर्ण अवसर आगामी अप्रैल में आने वाला है जब राज्य सभा की 10 सीटों का चुनाव होगा. सपा एक और भाजपा आठ सीटें आसानी से जीत लेंगी. अगर सपा, बसपा और कांग्रेस एक हो जाएं तो वे दसवीं सीट भाजपा को नहीं जीतने देंगे. क्या ऐसा हो पाएगा?  

ममता बनर्जी भी गुजरात नतीजों से बहुत उत्साहित हैं. वे नरेंद्र मोदी की कट्टर विरोधी हैं. भाजपा बंगाल में पैर जमाने में लगी है. उसका वोट वहां लगातार बढ़ रहा है. इसलिए वे भाजपा के खिलाफ एक मोर्चे में आ सकती हैं लेकिन उनकी समस्या यह है कि उन्हें वाम दलों से भी बंगाल में  उतनी ही मजबूती से लड़ना है. भाजपा विरोधी मोर्चे में वाम-दल और तृणमूल कांग्रेस एक साथ कैसे फिट होंगे?

सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल विपक्षी मोर्चे के नेतृत्व का है. क्या कांग्रेस को मोर्चे का नेतृत्त्व सौंपने को सभी दल तैयार हो जाएंगे? यूपीए के दौर में सोनिया को नेता मानने में कोई बड़ी अड़चन नहीं थी. अब कांग्रेस की बागडोर राहुल के हाथ है और कांग्रेस बहुत कमजोर हो चुकी है.  क्या सोनिया की तरह राहुल भी सर्व-स्वीकार्य हो सकते हैं?

राहुल और कांग्रेस के पक्ष में एक बात जरूर है कि लगभग पूरे देश से सफाये के बावजूद वह जनता के बीच सुपरिचित पार्टी है. उसका प्रतिष्ठित इतिहास है. गुजरात के नतीजों ने राहुल और कांग्रेस को कुछ संजीवनी-सी दी है. मगर गुजरात ने एक सवालिया निशान भी खड़ा किया है. कांग्रेस की सेकुलर छवि को दबाते-छुपाते राहुल ने गुजरात में उदार हिंदुत्त्व का जो चोला ओढ़ा है, क्या उस पर समाजवादी और वाम दल सवाल नहीं उठएंगे? कांग्रेस ने यह नया चोला सिर्फ गुजरात के लिए पहना या आगे भी यही बाना धारण करने का उसका इरादा है?

महत्त्वपूर्ण यह भी है कि हमारे यहां विपक्षी एकता के लिए एक बड़े और स्वीकार्य सूत्रधार की जरूरत पड़ती रही है, ऐसा नेता जो तात्कालिक आवश्यकता के लिए विभिन्न दलों के अंतर्विरोधों को एक किनारे रखवा सके. लोहिया, जे पी या हरकिशन सिंह सुरजीत जैसा सूत्रधार अथवा मार्गदर्शक आज कौन है? तुलना की बात नहीं, लेकिन एक लालू यादव हैं जो भाजपा विरोधी विपक्षी मुहिम को साध रहे थे लेकिन वे अपने ही पाप-पंक में पूरी तरह घिरे हैं. नीतीश कुमार इस भूमिका में हो सकते थे लेकिन वे भाजपा के पाले में चले गये. शरद यादव एकता की पहल करते रहे हैं लेकिन आज उनके पीछे कोई पार्टी नहीं है. सीताराम येचुरी भी विपक्षी एकता के वकालती हैं मगर कांग्रेस से रिश्ते बनाने पर उन्हें अपनी ही पार्टी के भीतर मोर्चा लेना पड़ रहा है.

कुल मिलाकर आज जो परिदृश्य है, उसमें विपक्क्षी एकता का दारोमदार  राहुल के नेतृत्त्व में कांग्रेस पर ही आ ठहरता है. कांग्रेस की मुश्किल यह है कि वह ज्यादातर राज्यों में जनाधार खो चुकी है. उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्यों में वह अस्तित्त्व के लिए लिए जूझ रही है. विपक्षी एकता के लिए स्वाभाविक ही उसे बड़ी कीमत चुकानी होगी. क्षेत्रीय दलों को साथ लेने के लिए उसे अधिकसंख्य सीटें उन्हें देनी होंगी. यूपी-बिहार जैसे बड़े राज्यों में उसकी खोई हुई जमीन वापस नहीं आने वाली.  यूपी के विधान सभा चुनाव यह साबित कर चुके हैं.

2019 के लोक सभा चुनाव से पहले आठ राज्यों के चुनाव होने हैं. इनमें कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ इस माने में महत्त्वपूर्ण हैं कि यहां भाजपा और कांग्रेस की सीधी लड़ाई है.  क्या गुजरात की तरह कांग्रेस यहां भी भाजपा को कांटे की टक्कर दे पाएगी? क्या कर्नाटक में अपनी सत्ता बचा पाएगी? इसी पर विपक्षी मोर्चे में कांग्रेसी नेतृत्त्व का फैसला निर्भर है. लेकिन पहले राहुल को तय करना होगा कि वे कांग्रेस को ही सीधे भाजपा के मुकाबले खड़ा करने का कठिन लक्ष्य साधना चाहते हैं या फिलहाल भाजपा को हराने के लिए विपक्षी एकता को महत्त्व देते हैं.
(प्रभात खबर, 28 दिसम्बर 2017) 
  
 




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