उत्तर प्रदेश के नगर निकाय चुनाव नतीजों के विश्लेषण से दो विशेष तथ्य उभरे
हैं, जो राजनैतिक रूप से महत्त्वपूर्ण
हैं. पहला यह कि भारतीय जनता पार्टी
(भाजपा) की विजय वास्तव में उतनी बड़ी नहीं है, जितनी कि मीडिया में बताई गयी. इससे बड़ा दूसरा तथ्य यह है
कि मुस्लिम-बहुल शहरी इलाकों में भाजपा को हराने के लिए मुसलमानों ने एकजुट होकर
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को वोट दिये.
मुस्लिम मतदाता का नया रुझान
यह नया रुझान है. पिछले विधान सभा चुनाव में मायावती ने इसके लिए बड़ी कोशिश की
थी लेकिन वे कामयाब नहीं हुईं. क्या अब उनकी कोशिश रंग ला रही है?
1992 में बाबरी मस्जिद-ध्वंस के बाद से मुसलमानों के वोट समाजवादी पार्टी
(सपा) को मिलते रहे हैं. ताजा प्रयोग का संदेश दूर तक गया तो समाजवादी पार्टी के
लिए बड़ी मुश्किल होगी. चिंता की लकीरें अखिलेश यादव के माथे पर पड़ गयी होंगी.
प्रदेश के 16 नगर निगमों के मेयरों के चुनाव में 14 पर भाजपा और दो पर बसपा को
विजय मिली. मुख्य विपक्षी दल सपा के
हिस्से सिर्फ निराशा आयी. उधर बसपा ने
भाजपा से दो मेयर पद छीन लिए. इसके अलावा तीन
नगर निगमों में बसपा दूसरे नम्बर रही जबकि सपा को कुछ जगह चौथे स्थान पर रह जाना
पड़ा. बसपा की यह सफलता दलित-मुस्लिम वोट मिलने से ही हो सकी.
बीते 22 नवम्बर को ही अपने जन्म दिन पर मुलायम सिंह यादव ने कहा था कि मुसलमान
आज तक सपा का साथ देते रहे हैं लेकिन इधर पार्टी के नेता उनका समर्थन बनाये रखने
के प्रयास नहीं कर रहे. क्या मुलायम को नये रुझान का भान था? ध्यान रहे कि समाजवादी पार्टी की बगडोर अब अखिलेश यादव के
हाथ में है. मुलायम पार्टी के संरक्षक भर हैं.
क्या कहता है वोट-गणित?
बसपा ने अलीगढ़ और मेरठ नगर निगमों के मेयर पद जीते हैं. वहां पड़े वोटों का
गणित देखिए- बसपा को एक लाख 25 हजार और भाजपा को एक लाख 15 हजार वोट मिले. सपा
मात्र 16,510 वोट पा सकी.
करीब ढाई लाख मुस्लिम और पचास हजार दलित मतदाता वाले अलीगढ़ में भाजपा की हार सिर्फ
दस हजार वोटों से हुई. जाहिर है भाजपा को हराने के लिए मुसलमानों ने दलितों के साथ
बसपा को चुना, सपा को नहीं.
मेरठ का हाल भी ठीक ऐसा ही रहा. बसपा को दो लाख 34 हजार और भाजपा को दो लाख
पांच हजार वोट मिले. सपा सिर्फ 47 हजार वोट जुटा सकी. इस मुस्लिम बहुल नगर निगम
में मुसलमान मतदाताओं की एकमात्र पसंद बसपा बनी. सहारनपुर में बसपा बहुत कम अंतर
से हारी. समाजवादी पार्टी 16 निगमों में से सिर्फ पांच पर दूसरे नम्बर पर रही.
बाकी जगह उसे तीसरे-चौथे स्थान पर रहना पड़ा.
मुसलमान मतदाताओं का बसपा की ओर यह झुकाव पूरे प्रदेश में नहीं दिखाई दिया
लेकिन सपा से उनकी दूरी ज्यादा परिलक्षित हुई. सपा के गढ़ फिरोजाबाद में, जहां से रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय सांसद हैं, मुस्लिम मतदाताओं ने असददुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के प्रत्याशी को तरजीह दी, जो दूसरे नम्बर पर रही. मुरादाबाद और सहारनपुर नगर निगमों
में भी सपा के मुस्लिम उम्मीदवार बुरी तरह पिछड़े. मुरादाबाद में मुस्लिम मतों के
विभाजन के कारण भाजपा जीती लेकिन दूसरे नम्बर पर कांग्रेस रही, सपा नहीं.
ओवैसी की पार्टी का इन निकाय चुनावों में 29 सीटें जीतना भी सपा के लिए खतरे
की घण्टी है.
भाजपा जीत बड़ी नहीं
प्रदेश के नगर निकाय चुनावों के परिणामों पर नजर डालें तो भाजपा की जीत उतनी
चमकदार नहीं दिखती जितनी कि प्रचारित की जा रही है. नगर निगमों के मेयर चुनाव में जरूर उसे भारी
सफलता मिली लेकिन यह कोई नई बात नहीं है. 2012 के निकाय चुनावों में, जब यूपी की सत्ता में समाजवादी पार्टी थी और भाजपा का खेमा
मोदी अथवा योगी के जादू से प्रफुल्लित नहीं था, तब
भी नगर निगमों के 12 में से 10 मेयर पद भाजपा ने जीते थे. शहरी क्षेत्रों में पहले
से उसका दबदबा रहा है.
2017 के नगर निकात चुनाव मोदी और योगी के दौर में इसी वर्ष मार्च में भाजपा की
प्रचण्ड विजय के बाद लड़े गए जिनमें मुख्यमंत्री योगी और उनके पूरे मंत्रिपरिषद ने
खूब चुनाव प्रचार किया. नगर निगमों के नतीजें छोड़ दें तो बाकी निकायों में भाजपा का प्रदर्शन फीका ही कहा जाएगा. भाजपा से कहीं
ज्यादा सीटें निर्दलीयों ने जीतीं. समाजवादी पार्टी का कुल प्रदर्शन भी बहुत खराब
नहीं रहा, हालांकि अपने
परम्परागत गढ़ों में भी उसे पराजय देखनी पड़ी. बसपा ने भी ठीक-ठाक उपस्थिति दर्ज की.
नगर पालिका परिषद अध्यक्ष के 198 पदों में भाजपा सिर्फ 70 (35 %) पर जीती. सपा ने 45, बसपा ने 29 और निर्दलीयों ने 43 पर विजय पायी. नगर पंचायत
अध्यक्ष के 438 पदों में मात्र 100 (करीब
23 प्रतिशत) भाजपा के हिस्से आए. सपा ने
83, बसपा ने 45 और निर्दलीयों ने 182
पद जीते. नगर पालिका परिषद सदस्यों के
64.25% पद और नगर पंचायत सदस्यों के 71% पद निर्दलीयों ने जीते.
यह स्थिति तब है जब मुख्यमंत्री योगी समेत पूरी प्रदेश सरकार प्रचार में जुटी
थी. अखिलेश यादव और मायावती ने अपने को चुनाव प्रचार से दूर रखा. ये चुनाव पहली
बार पार्टी और चुनाव चिन्ह के आधार पर लड़े गये. इससे पहले पार्टी-मुक्त चुनाव होते
थे. सत्तारूढ़ दल अधिकसंख्य निर्वाचित अध्यक्षों एवं सदस्यों को अपना बता देता था.
इस बार इसकी कोई सम्भावना नहीं है. नतीजे
साफ बता रहे हैं कि भाजपा को वैसी विजय कतई नहीं मिली जैसी कि बताई जा रही है.
उसका वोट प्रतिशत भी विधान सभा चुनाव की तुलना में गिरा है.
सपा-बसपा गठबंधन भारी पड़ेगा
ये चुनाव नतीजे एक और संकेत देते हैं. सपा-बसपा मिल कर चुनाव लड़ें तो 2019 में
भाजपा को यू पी में आसानी से हरा सकते हैं. पिछले विधान सभा चुनाव में ऐसी चर्चा
चली भी थी. अखिलेश यादव ने तो सार्वजनिक
रूप से ऐसी सम्भावना जताई थी. मायावती ने
भी ‘न’ नहीं
की थी. तब बात आगे नहीं बढ़ पायी थी. मायावती विपक्षी दलों के महागठबंधन के लिए भी
सशर्त तैयार थीं.
क्या 2019 के लोक सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में मोदी और योगी की भाजपा को
हराने के लिए सपा-बसपा गठबन्धन करेंगे? यह
सवाल हवा में जरूर है लेकिन अभी बहुत दूर की कौड़ी लगता है.
(Firstpost/Hindi, 05 दिसम्बर, 2107)
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