Saturday, February 24, 2018

जोहारदा से माफी, द.ग. दयाकृष्ण तेवाड़ी-1



-, शैपो! मेरी फोटू क्या उतारते हो, इन भिदड़ों की! सुंदर-सुंदर फूल-पत्ती की उतारो, वो वहां!

वर्षों पहले जब में कक्षा आठ या नौ में पढ़ता था, गुल्लक में बचाए रुपयों से अत्यंत साधारण क्लिक-3 कैमरा लेकर गर्मी की छुट्टियों में गांव गया था. गांव के बाहर ही, पगडण्डी के पास वाला हमारा खेत जोतते हुए वह मिला था. मैं दो-तीन खेत फलांग कर सीधे उसके सामने जा खड़ा हुआ. बाएं हाथ में पकड़ी सण्टी के इशारे से बैलों को हाँकते और दाहिने हाथ से हल की मूंठ पकड़े, हल के फाल को करीने से जमीन में दबाये हुए. अचानक मुझे सामने देख वह चौंक गया था. अचकचा कर उसके रुकते ही बैल भी थम गये थे.

-कैसे हो, जोहारदा?’ मैंने पूछा तो झुर्रियों-भरे उसके चहेहरे पर परिचय की मुस्कान थिरक उठी- ओहो, पहा... कब पहुंचे? अभ्भी? अच्छे हो आप?’

-ठीक हूँ, जोहार दा. तुम कैसे हो?’

- , ठीक ठैरे... यही करना ठैरा हमने.उसने हल की मूंठ फिर सम्भाली- हरदज्यू कैसे हैं? पहा...वह तो असौज में ही आने वाले ठहरे, ना.... हौ-हौ... .बैलों को हाँकते हुए वह बाबू के बारे में पूछ रहा था.

मैंने तत्काल टोका- रुक जा, जोहारदा, तुम्हारी फोटो खींचता हूँ. तुम ऐसे ही बैलों को हाँकते हुए खड़े रहो.
तब उसने कहा था- , शैपो... मेरी फोटो क्या उतारते हो, इन भिदड़ों की!

लेकिन उस दिन मैंने उसकी फोटो खींची थी, उन्ही भिदड़ों में. 120 एम एम की फिल्म का निगेटिव आकार का वह फोटो मेरे बचपन की अलबम में आज भी सुरक्षित है. श्वेत-श्याम, थोड़ा धुंधला लेकिन हल में जुते बैलों के पीछे खड़े, एक हाथ में सण्टी पकड़े जोहारदा की किंचित विस्मय और मंद स्मित वाली फोटो. वक्त के साथ तनिक पीताभ होता हुआ. बाद की गांव यात्राओं में मैंने बेहतर कैमरों से उसकी और भी फोटो खींची, उसके चेहरे की एक-एक झुर्रियों को उभारती हुई लेकिन उस हलकी धुंधली-पीली फोटो की तरह और कोई तस्वीर जीवंत नहीं है. उस फोटो को देखते ही हल की मूंठ पकड़े जोहारदा बोल उठता है.

बरसों हो गये जोहारदा को मरे हुए. यहीं लखनऊ में सुना था. उन दिनों भूले-भटके गांव से जो कोई चिट्ठी आ जाती थी, उसी में लिखी होती थीं गांव की सारी खबरें. किस-किस का ब्याह हुआ, किस-किस के बच्चे हुए, कौन-कौन गांव छोड़ गया, कौन रिटायर हो कर आ गया और कौन गुजर गया. मुझे नहीं, ईजा-बाबू को सम्बोधित होती थीं वे चिट्ठियां, जिनका हंस-पराण शहर में आ बसने की मजबूरी के बावजूद पहाड़ के उस दुर्गम गांव में ही अटका रहता था. उन चिट्ठियों में हरेक का जिक्र होता था जिससे इजा-बाबू की यादों की गठरी खुल जाती थी. वे नराई से भरे देर-तक गांव-घर के उन लोगों की बातें करते रहते थे.  ऐसी ही एक चिट्ठी में जोहारदा के नहीं रहने की खबर आयी थी.

-‘शिबौ, जोहार भी मर गया बलईजा ने अपने कमरे में चिट्ठी पढ़ते हुए बाबू से कहा था और मैं अपने कमरे में जाने क्या करते हुए स्टेच्यू बन गया था.

- आहा, बहुत ही सीधा आदमी था. कितनी सेवा की उसने गांव भर की...बाबू कह रहे थे.

- भौतै भल मैंसईजा ने जोड़ा था कि बहुत ही भला मानुष था.

फिर वे दोनों मौन हो गये थे. मैं जान रहा था कि वे जोहारदा की स्मृतियों में खो गये थे. इधर मैं अपनी अल्मारी खोल कर अपने स्कूली दिनों का अलबम तलाशने लगा था. जोहारदा की मौत की खबर ने मुझे उस फोटो की याद दिला दी थी.  अलबम के पन्ने पलटते ही उस छोटे-से, धुंधले-पीताभ फोटो से जोहार दा बोल उठा- , शैपो... मेरी फोटो क्या उतारते हो...उस दिन और उसके बाद भी कई दिन तक जोहारदा मुझे तरह-तरह से याद आता रहा था.
.......

कई बरस बाद, 1990 की वह गर्मियां. तब बाबू को गुजरे भी छह वर्ष हो गये थे. गांव में छूट गये पुश्तैनी मकान को और भी छोड़ देने के लिए लखनऊ से  हम सपरिवार पहाड़ गये थे. पारिवारिक देवों, ग्वल्ल-गुसैं को नांय (ढोक, पूजा) देने के बाद हम मकान के ओने-कोने में ठुंसे सामान की तलाशी-सी ले रहे थे. उन पुराने बक्सों के भीतर से निकले कुछ कागज-पत्तरों से अचानक जोहारदा निकल कर सामने खड़ा हो जाएगा, इसकी दूर-दूर तक कल्पना नहीं थी. उस समय वह हमारी यादों की ऊपरी परतों में कहीं था भी नहीं.
लोहे के एक पुराने बक्से में भरी जाने कब की कॉपियों, चिट्ठियों और कागजों के ढेर की उखेला-पुखेली में एकाएक ही यह रुक्का मेरे हाथ लग गया था-

“ मैं कि जौहर राम पुत्र झुस राम ग्राम आमड़ पट्टी कमस्यार जिला अल्मोड़ा वाले ने तुम श्री हरीदत्त पुत्र गोपालदत्त ग्राम रैंतोली पट्टी वल्ला अठिगांव जिला पिथौरागढ़ जी से काम जरूरी के वास्ते एक सौ रुपये (100) कर्ज लिये. इन रुपयों के सूद के बजाय हल दन्याले का काम कर दूंगा काम नहीं कर सका तो रुपये अदा कर दूंगा सनद के लिये टिकटसुदा रुक्का तुमको लिख दिया
नि. जौहरराम पुत्र झुसराम
ब.क. दया कृष्ण तेवाड़ी रैंतोली
दि 26-12-71”

दस पैसे का रसीदी टिकट, साथ में दस पैसे का रिफ्यूजी रिलीफ टिकट और दोनों पर बड़ा-सा स्याही छाप वाला अंगूठे का निशान.

, रुक्का पढ़कर तुरंत जोहारदा याद नहीं आया. पहले याद आया रिफ्यूजी रिलीफ टिकट” जो बांग्लादेश युद्ध के बाद भारत आए लाखों शरणार्थियों के कारण देश पर पड़े आर्थिक बोझ को नागरिकों पर डालने के लिए तत्कालीन इंदिरा सरकार ने लगाया था.

फिर याद आये ब.क. यानी बकलम दया कृष्ण तेवाड़ी. निगाल की कलम वाली वह हस्तलिपि पहचानने में देर नहीं लगी. रिश्ते से मेरे भिनज्यू (फूफा जी) और मेरे पहले शिक्षक. मैं जब तक गांव में रहा, तीन-चार किमी दूर प्राइमरी स्कूल में नहीं भेजा गया, जहां गांव के ज्यादातर लड़के जाते थे. यही भिनज्यू, दया कृष्ण तेवाड़ी मुझे घर आकर पढ़ाते थे. वे हमारी करीबी नदुली बूबू (बुआ) के पति, अवकाशप्राप्त अध्यापक, घर जंवाई के रूप में हमारे पड़ोस में रहते थे.

नदुली बूबू के नाम से चार और बूबुओं की याद आ गयी. सबसे पहले मुसै बूबू जो ठीक हमारे पड़ोस में रहती थी. ऊखल वाली छोटी-सी कोठरी थी उसका ठिकाना. वह बहुत चतुर और इधर की उधर करने वाली मानी जाती थी. महिलाएं उसके सामने बात करने से घबराती थीं. किसी भी घर की गोपनीयता उघाड़ देने में उसे महारत हासिल थी. पता नहीं उसका असली नाम क्या था. कद में बहुत छोटी लेकिन कतर-ब्योंत में माहिर होने के कारण ही उसको मुसै’ (चुहिया) कहते होंगे. अनुली और देबुली बूबू हमारे घर से दूर गांव के पार वाले हिस्से में रहती थीं. वे बहुत मीठा बोलती और सबसे प्यार करती थीं. परदेसी बच्चों को गले लगा कर लाड़ करतीं. गांव की अकेली महिलाओं का रात-बेरात साथ देना, हारी-बीमारी में साथ रह जाना जैसे उनकी ड्यूटी हो. चौथी, नदुली बूबू थी जो अपने कमरे या मकान की सीढ़ियों में ही बैठी रहती. वे बहुत चिढ़-चिढ़ी थीं और जाने किस-किस को क्यों गाली बकती रहतीं. उनकी एक बहू साथ में रहती, जिसका पति परदेश में नौकरी में था. बहू नदुली बूबू की सेवा करती मगर सास से हर समय गालियां खाती. गुस्सा आ जाने पर बहू भी खूब सुनाती. दूसरा बेटा-बहू गांव नहीं आते थे. इन्हीं नदुली बूबू के पति थे मेरे पहले मास्टर साहब दया कृष्ण तेवाड़ी. बाकी चारों बूबू बाल विधवा या परित्यक्ता थीं, इसलिए भाइयों ने उन्हें मायके में शरण दे रखी थी. लेकिन नदुली बूबू क्यों सपरिवार अपने मायके में बसीं, इस पर हमने कभी ध्यान नहीं दिया.

जिस साल गर्मियों में हैजे से मुसै बूबू की मृत्यु हुई, तब मैं गांव में था. किसी तरह उसकी ससुराल खबर भिजवाई गई. कुछ दिन बाद उसका एक भतीजा आया और उसकी गठरी-वठरी समेट ले गया. उस ससुराल में, जहां मुसै बूबू कभी नहीं रही या शादी के बाद कुछ दिन रही होगी, उसकी गति-क्रिया की गई, उसका श्राद्ध करके छूत बहाई गई. उसके नाम पर दान-दक्षिणा और भोज दिया गया. जीते जी उसकी कभी कोई खबर नहीं लेने वाले ससुरालियों ने यह सब इसलिए किया कि उन्हें उसका भूत परेशान न करे. मायके में जहां उसने पूरा जीवन बिताया, सुख-दुख में परिवारों का साथ दिया, वहां किसी को न छूत लगनी थी, न भूत ने तंग करना था. अनुली-देबुली बूबुओं के साथ भी ऐसा ही हुआ होगा. नदुली बूबू भाग्यशाली थी कि वह मायके में भी अपने परिवार के साथ थी.  

तेवाड़ीजी बहुत बूढ़े किंतु सख्त मास्टर थे और जरा-सी गलती पर दोनों कान एक साथ बहुत जोर से मरोड़ देते थे. मेरे दोनों कानों की लवें शायद उन्हीं के कारण आज तक टेढ़ी हैं. पढ़ाते बहुत अच्छा थे. गांव में उनकी बहुत इज्जत थी. मास्टर होने के कारण और उससे ज्यादा दामाद होने के कारण. चिट्ठी लिखवाने, पढ़वाने, हर लिखत-पढ़त में सलाह लेने, गवाह बनने, आदि के लिए उन्हें याद किया जाता. झुकी कमर लिए खंखारते हुए वे हर जगह पहुंच जाते. बाद में जब हम शहर पढ़ने आ गये तो हर साल आते-जाते उन्हें प्रणाम करने जाते थे. हर बार वे कहते कि अब अगली बार शायद ही भेंट हो. मगर कई तक बरस वे वैसे ही मिलते रहे थे.

तेवाड़ी जी की मृत्यु की खबर हमें चिट्ठी से लखनऊ में मिली. मास्टरी से रिटायर होने के कई साल बाद भी उनकी पेंशन शुरू नहीं हुई थी. वे बराबर लिखा-पढ़ी करते थे. उस साल उन्हें खबर दी गयी कि पेन्शन शुरू होने वाली है. कुछ कागजी औपचारिकता के लिए उन्हें नैनीताल हाजिर होना पड़ेगा, जहां वे अध्यापक रहे थे. तेवाड़ी जी खुशी-खुशी नैनीताल गये थे. वहीं प्राण छूट गये.   

तो, वह रुक्का पढ़ कर यही तेवाड़ी जी सामने आ खड़े हुए और मैंने फौरन उनसे अपने खूब मरोड़े गए कानों का बदला लेना शुरू किया- ओहो, दया कृष्ण तेवाड़ी जी, आप तो जरा-सी गलती पर हम बच्चों के कान बेदर्दी से ऐंठ दिया करते थे; लेकिन यह रुक्का लिखने में खुद आपने क्या किया? न कहीं अर्द्ध विराम, न पूर्ण विराम! आप तो बहुत सख्त मास्टर थे.’ फिर ध्यान आया कि सन 1971 में हमारे तेवाड़ी जी इतने वृद्ध हो चुके थे कि मुझे उनकी गलती पर ताने मारना उनके साथ बड़ा अन्याय लगा. वे गांव में सबके लिए सुलभ एकमात्र पढ़े-लिखे व्यक्ति थे और हर रुक्के, हर चिट्ठी तथा प्रत्येक मनी-ऑर्डर पर ब. क. (बकलम) और द.ग. (दस्तखत गवाह) के लिए हमेशा उपलब्ध रहे. उन ही का अनुशासन था कि मैं घोटा लगी पाटी पर निंगाल की खत कटी कलम से सुलेख लिखा करता था. आज तक मेरे सुंदर हस्तलेख की तारीफ होती रही है तो उसका श्रेय आदरणीय पं. दया कृष्ण तेवाड़ी जी ही को जाता है. और फिर, उन्हें दिवंगत हुए भी तो जमाना बीत गया.

क्षमा कीजिए, तेवाड़ी जी और मेरे श्रद्धा-सुमन स्वीकार कीजिए.  (जारी)

3 comments:

Ashok Pande said...

आपके संस्मरण बेहतरीन होते हैं. भाषा बहुत प्रांजल और प्रवाहमय! आपको सलाम नवीनदा! अगले हिस्से की प्रतीक्षा है.

सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...
This comment has been removed by the author.
सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...

कितनी यादें और इतिहास सिमटा है आपके लेख में। पहाड़ का गाँव और वहाँ के लोग सामने आ खड़े होते हैं। मैं गाँव से इतना परिचित नहीं था और बाबू व आमा के मुख से ही सुनता रहा वहाँ के किस्से। पात्र और घटनाक्रम अलग अलग हो सकते हैं, परन्तु वहाँ का मूल चरित्र तो सभी जगह एक सा था। सो, मेरा एक जुड़ाव सा हो जाता है, जब आप हमारे पर्वतीय गाँवों के बारे में चर्चा करते हैं। अब तो मैं भी हो आया हूँ अपने गाँव। बदलाव भी है, परन्तु बाबू के मुख से सुना हुआ सा पढ़ना अच्छा लगता है।

और हाँ, लेखनी का तो जवाब नहीं।