Tuesday, May 15, 2018

राजनैतिक बिसात पर एमबीसी



दलित और पिछड़ी जातियों को आरक्षण का लाभ वास्तव में कितना मिला और किसे-किसे, यह शुरू से विवाद का विषय रहा है. कालांतर में यह तथ्य सामने आते गये कि दलितों और पिछड़ों में कुछ गिनी-चुनी, करीब एक तिहाई जातियों ही को आरक्षण का सर्वाधिक लाभ मिला. आरक्षित श्रेणी की बाकी दो तिहाई जातियों के लोग इस लाभ से वंचित ही रहे या बहुत कम लाभ पा सके. इस असंतुलन ने दलितों में भी दलित यानी महादलितऔर पिछड़ों में अत्यधिक पिछड़ी जातियों (एमबीसी) का नया वर्ग बना दिया. चूंकि जाति हमारे देश में राजनीति के केंद्र में रही और सायास बनाये रखी गयी, इसलिए आरक्षण के असंतुलित लाभ ने पिछड़ों और दलितों के भीतर नयी राजनीतिक हलचल को जन्म दिया. यह हलचल बढ़ते-बढ़ते आज देश की चुनावी राजनीति पर पूरी तरह छा गयी है.

मुद्दे के दो पहलू हैं. एक तो यह मांग कि आरक्षण की व्यवस्था का सम्यक विवेचन और संशोधन होना चाहिए ताकि अब तक वंचित रहे आये वर्गों को सामाजिक-आर्थिक मोर्चे पर आगे बढ़ने का मौका मिले. सिर्फ कुछ शहरी पढ़े लिखे वर्ग तथा गांवों में आर्थिक-सामाजिक रूप से ताकतवर जातियां ही लाभ उठाती रहेंगी तो आरक्षण देने का उद्देश्य अधूरा रह जाता है. इससे पैदा हुआ वंचित वर्ग का आक्रोश समझ में आता है लेकिन जब गुजरात के पाटीदार, हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश के जाट और महाराष्ट्र के मराठा जैसे अपेक्षाकृत समर्थ और सम्पन्न वर्ग भी आरक्षण के लिए आंदोलित होते हैं तो आरक्षण के अपने मूल ध्येय से भटक जाने के कटु सत्य से हमारा सामना होता है.

दूसरा पहलू चुनावी लाभ के लिए आरक्षण को राजनीतिक चाल की तरह इस्तेमाल करना है. दुर्भाग्य से यही पहलू सर्वोपरि हो गया है. इसी कारण आरक्षण व्यवस्था की ईमानदारी से समीक्षा की बजाय अलग-अलग ढंग से पार्टियों ने इसे अपने हित में भुनाना जारी रखा.

अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) आरक्षण का ही उदाहरण लें. मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद 27 फीसदी आरक्षण का सर्वाधिक लाभ लेने वाले उत्तर-प्रदेश तथा बिहार में यादव व कुर्मी या कर्नाटक में वोक्कालिंगा हैं, जो पहले ही शेष पिछड़ी जातियों से कहीं बेहतर स्थिति में थे. मण्डल-बाद की समय में समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (एस) जैसे जिन दलों की राजनीति चमकी उन्होंने भी मुख्यत: इन्हीं समर्थ जातियों का प्रतिनिधित्व किया. अपने-अपने राज्यों में ये दल ताकतवर बने. सत्ता पर उनकी पकड़ मजबूत रही. स्वाभाविक ही, ओबीसी आरक्षण का लाभ लेने में पिछड़ गयी दूसरी पिछड़ी जातियों में रोष उत्पन्न हुआ. उनके नेतृत्त्व ने या तो इन दलों पर दवाब बना कर आशिंक लाभ लेने की रणनीति अपनायी या ओबीसी-दलों से विमुख होकर अन्य दलों का दामन थामा.

सीएसडीएस (सेण्टर फॉर द स्टडीज ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज) के एक अध्ययन के अनुसार मण्डल रिपोर्ट लागू होने के बाद जिन राज्यों में क्षेत्रीय दल नहीं उभरे यानी जहां कांग्रेस और भाजपा की सीधी टक्कर होती आयी, यथा मध्य प्रदेश, राजस्थान, आदि वहां 2009 तक आरक्षण-लाभ-वंचित पिछड़ी जातियों ने 2009 के चुनावों तक कांग्रेस को तरजीह दी.  2014 के आम चुनाव में यह समीकरण बदल गया. कारण नरेंद्र मोदी का स्वयं पिछड़ी जाति का दांव चलना हो या कांग्रेस से मोहभंग, उपेक्षित पिछड़ी जातियों के मतदाताओं ने भारी संख्या में भाजपा को चुना. बिहार विधान सभा चुनाव में लालू और नीतीश के एक हो जाने से इस प्रवृत्ति पर विराम लगा लेकिन 2017 में उत्तर प्रदेश के चुनाव में भाजपा एक बार फिर उपेक्षित पिछड़ी एवं दलित जातियों का बड़े पैमाने में समर्थन हासिल करने में कामयाब हुई. बसपा और सपा की भारी पराजय के कारण इसी तथ्य में निहित थे.

2019 के आम चुनाव में भाजपा यही करिश्मा बनाये रखना चाहती है. उसने एमबीसी तथा उपेक्षित दलित जातियों का समर्थन पाने की हर जुगत बैठाने की कोशिश जारी रखी. नरेंद्र मोदी सरकार ने पिछले वर्ष ओबीसी आरक्षण में श्रेणी विभाजन पर विचार करने के लिए जो समिति बनायी थी, वह इसी का हिस्सा थी. इस प्रयास में बड़ा व्यवधान उत्तर प्रदेश से आया. पिछले दिनों सम्पन्न गोरखपुर और फूलपुर संसदीय उप-चुनाव में सपा-बसपा एक हो गये. इस अप्रत्याशित गठबंधन ने भाजपा को हरा दिया. पिछड़ी और दलित जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले इन क्षेत्रीय दलों को इस दोस्ती में भाजपा के दलित-पिछड़ा दांव की काट दिखायी दी. इसलिए इसे वे 2019 तक चलाने को राजी हो गये. भाजपा को इस जातीय गठबंधन का मुकाबला करने के लिए किसी बड़े दांव की जरूरत थी.

सो, उतर प्रदेश की योगी सरकार ने एक पुराना फॉर्मूला सरकारी फाइलों से बाहर निकाल दिया. इसमें एमबीसी की 17 उप-जातियों को अनुसूचित जाति की सुविधाएं देने का प्रस्ताव है. मजे की बात यह है कि यही प्रस्ताव उत्तर प्रदेश के चार पूर्व मुख्यमंत्री पांच बार ला चुके हैं. 1995 और 2004 में सपा के मुलायम सिंह, 2008 में बसपा की मायावती और 2013 में सपा के अखिलेश यादव ने यही प्रस्ताव मंजूरी के लिए केंद्र सरकार को भेजा था. सन 2001 में  भाजपा के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने भी थोड़ा बदल कर इसे केंद्र को भेजा था. ऐसा चुनावों के मौके पर एमबीसी जातियों का समर्थन हासिल करने के लिए किया गया था. सभी को मालूम था कि केंद्र में सत्तारूढ़ दूसरे दलों की सरकार इस प्रस्ताव को मंजूरी नहीं देगी. ऐसे में एमबीसी जातियां उनके पक्ष में और केंद्र में सत्तारूढ़ दल के खिलाफ हो जाएंगी. इस बार योगी सरकार की यह चाल उनके खिलाफ भी जा सकती है क्योंकि केंद्र और राज्य दोनों में भाजपा की सरकार है. प्रस्ताव मंजूर न हुआ तो पांसा उलटा भी पड़ सकता है.

आशय यह कि चुनाव के समय ही राजनैतिक दलों को एमबीसी की याद आती है. दुर्भाग्य यह कि ओबीसी आरक्षण पिछड़ी जातियों के वास्तविक उत्थान की बजाय राजनीतिक दांव ही बनता आया है. 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जब मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू करके ओबीसी आरक्षण का रास्ता खोला था तब भी वह उनका राजनैतिक ब्रह्मास्त्रथा. बाहरी समर्थन पर टिकी उनकी अल्पमत वाली सरकार अधर में थी और अयोध्या में राम मंदिर बनाने के अभियान से भाजपा हिंदू-ध्रुवीकरण में लगी हुई थी. उनकी इस चाल को कमण्डलके जवाब में मण्डलका जबर्दस्त दांव कहा गया था. आरक्षण-विरोध की आग में देश उबला था. आज तक वह राजनैतिक दांव ही बना हुआ है. स्थितियां इतनी बदली हुई हैं कि आरक्षण का विरोध कोई पार्टी नहीं कर रही. कभी मण्डलका भारी विरोध करने वाली भाजपा आज कमण्डलके साथ मण्डलको भी चतुराई से साध रही है.   

(प्रभात खबर, 16 मई, 2018)




2 comments:

सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...
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सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...

बधाई इस खूबसूरत लेख के लिये। जो भी विचार किसी के मन में आ सकते हैं सबका समावेश है इसमें। आरक्षण आवश्यक है, यह तो मानना ही पड़ेगा, साथ ही यह भी निर्धारित करना होगा कि किसको अब आरक्षण नहीं मिलना है। आरक्षण आवश्यकता है, परन्तु कुछ वर्ग लम्बे समय से इसे मलाई की तरह खा रहे हैं, जबकि वे आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से सक्षम भी हो चुके हैं।

राजनीतिक दल भी सदैव से इस मुद्दे में अपने लिये मलाई तलाशते रहे हैं। इसमें समाज की आवश्यकता के अनुकूल परिवर्तन करने का साहस तो किसी दल में नहीं है, उल्टे इसके राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के लिये रोज़ नये दाँव खेले जा रहे हैं। भाजपा की योगी सरकार ने भी वही किया है, जो कि सही में उनके खिलाफ जा सकता है, जैसा कि आपने लिखा भी है।

मैं इस लेख में कुछ और जोड़ना चाहूँगा कि हमारी सरकारों ने कभी भी, और आज भी, निम्न पायदान पर बैठे व्यक्ति को इतना सक्षम बनाने का प्रयास भी नहीं किया कि वह इन आरक्षण का लाभ लेने के लिये कतार में खड़ा भी हो सके। कतार में वे ही दिखेंगे, जो पहले से सक्षम हैं, परन्तु जाति का लाभ उठा कर आरक्षण हेतु अर्ह भी हैं।

जो बातें आपने कहीं, पूर्णतः सही हैं। साथ ही सरकारों को यह कार्य भी करना होगा कि जिन्हें आरक्षण मिलना है, उनकी शिक्षा का उचित
प्रबन्ध हो। यदि उनके छोटे बच्चे मजबूरी में घर के अर्निंग मेम्बर हैं तो उस घर को आर्थिक सहायता भी दे। वैसे आर्थिक सहायता का यह कार्य तो हर जाति के सम्बन्ध मे होना चाहिये।