Friday, June 26, 2020

गांव वापस लौटे लोग और रोजगार


लाखों की संख्या में जब दूर-दूर शहरों से कामगारों का रेला अपने गांवों को लौट आया है तो विचार आता है कि क्या इन श्रमिकों को अपने ही घर-देहात के आस-पास ऐसा सम्मानजनक काम नहीं मिल सकता कि वे ठीक-ठाक जीवन जी सकें और बच्चों को भी पढ़ा-लिखा सकें. बड़े-बड़े कारखानों-मिलों को श्रमिकों की आवश्यकता पड़ेगी ही लेकिन क्या जरूरी है कि गांव के गांव खाली होकर दूर-दूर शहरों की झुग्गियों में समा जाएं?

पिछले दो मास के सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि मनरेगामें काम की इतनी अधिक मांग पहले नहीं हुई. स्वाभाविक ही गांव लौटे मजदूर रोजी-रोटी के लिए मनरेगा के सहारे हैं. इसके अलावा क्या है? कुछेक और सरकारी योजनाएं गिनाई जा सकती हैं. तब? गांवों से पलायन को इस व्यवस्था ने ही मजबूर किया है. ऐसी कोशिशें सरकारी स्तर पर कभी नहीं दिखाई दीं कि गांवों से पलायन न हो या एक सीमा तक ही हो. नव-उदारवादी व्यवस्था में तो इस पर बिल्कुल ही ध्यान नहीं दिया जाता.
पिछले दिनों इस अखबार ने चंद खबरें ऐसी प्रकाशित की जिनसे ग्रामीणों की रचनात्मक और स्वरोजगार सम्भावनाओं की झलक मिलती है. गोँडा के हलधरमऊ ब्लॉक के कमलापुर गांव की महिलाओं ने डेढ़ लाख पौधों की नर्सरी तैयार कर दी. इस पौध को करीब 22 लाख रु में प्रशासन ने खरीद लिया, जिसे पौधारोपण अभियान में रोपा जाएगा. यह एक उदाहरण है.

बांदा के ग्रामीणों ने भांवरपुर में एक लुतप्राय नदी का जीवन लौटा दिया. यह उन श्रमिकों ने खाली समय बिताने के लिए किया जो दूर देश से लौटे थे. उन्हें इससे आय तो नहीं हुई लेकिन पुनर्जीवित नदी कई तरह के रोजगार की सम्भावनाएं बना सकती है. प्रशासन ने स्वयं श्रेय लेने के लिए इसे मनरेगामें दर्ज़ कर लिया लेकिन यदि शासन-प्रशासन में विचारशीलता और दूरदर्शिता हो वह ऐसे कई अवसर प्रदान कर सकता है, जिससे रोजगार पनपें और सामाजिक बेहतरी हो.

ये उदाहरण तो श्रमिकों की अपनी सूझ-बूझ के परिणाम हैं. यदि विकास का हमारा ढांचा ग्राम केंद्रित होता तो अनेक बेहतर सम्भावनाएं हमारी परम्परागत शिल्प-कलाओं में मिल जाती हैं. पिछले दिनों प्रदेश सरकार ने एक जिला-एक उत्पादका खूब शोर किया लेकिन इसे वास्तव में रोजगारपरक बनाया जाए तो न केवल पुराने शिल्प-समाज रोजगार पाएंगे, बल्कि लुप्तप्राय कलाओं को बड़ा बाजार मिलेगा. प्रदेश में ऐसे परम्परागत कला-उद्योगों की अपार सम्भावना है. यह भी ध्यान देने वाली बात है कि अधिकसंख्य शिल्प-कलाएं आज भी हमारे श्रमिक वर्ग के पास हैं. प्रोत्साहन न मिलने और अच्छा बाजार नहीं होने के कारण वे इसे छोड़ते गए और नौकरी ढूढने जाते रहे.

गांवों को गांधी जी के सुझावों के अनुसार आत्मनिर्भर बनाने की सम्भावना तो अब दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती लेकिन क्या कुछ लघुतर उद्योग भी वहीं नहीं लगाए जा सकते? लघु उद्यमियों को अनुदान और प्रोत्साहन की शर्तों में उनका ग्राम-केंद्रित होना शामिल नहीं किया जा सकता? गांवों में 10 लोगों को रोजगार देने वाली इकाइयां भी कहां हैं?

विचारणीय यह भी है कि श्रमिकों का ही नहीं, कुछ बेहतर आर्थिक स्थितियों वाला वर्ग भी गांवों से भागता है कि क्योंकि उसे बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा और मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाएं भी नहीं मिलतीं. शहरों की मलिन बस्तियों में रहते हुए भी उसे स्कूल और अस्पताल मिल जाने का भरोसा रहता है. इसलिए गांवों से पलायन रोकने के लिए आवश्यक है कि वहां मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं.

लाख टके का सवाल यह कि इसे सुन कौन रहा है? किसकी चिंता में ये मुद्दे शामिल हैं?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 27 जून, 2020)   
       

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