Friday, June 05, 2020

बंदी खुलने के खतरे और कुछ आवश्यक प्रश्न

कोरोना संक्रमण के बढ़ते जाने के बावजूद लगभग सब कुछ खुल गया है. तरीकों और प्राथमिकताओं पर विवाद हो सकता है लेकिन आर्थिक गतिविधियों को शुरू किए बिना चारा नहीं था. बहुत बड़ी आबादी के सामने भुखमरी की नौबत आ पड़ी थी. काम-काज शुरू होने से उम्मीद बनती है. कोरोना का डर बना रहेगा,  बढ़ेगा और बहुत सावधानियां बरतनी होंगी- यह निश्चित है. क्या हम सबने ये सावधानियां बरतना शुरू कर दिया है? खतरे से बचना है तो जीवन शैली ऐसी बनानी होगी कि कोरोना के साथ जिया जा सके. यह समझ कितनी विकसित और प्रसारित हो सकी है? यह परीक्षा भी अभी होनी है कि बंदी के दौरान चिकित्सा एवं और स्वास्थ्य तंत्र को जो क्षमताएं और सुविधाएं जुटानी-बढ़ानी थीं, वे भरसक कर ली गई हैं या नहीं. कोरोना संक्रमण अपने चरम पर नहीं पहुंचा है. वह चरम आएगा और तभी इस व्यवस्था की परीक्षा होगी.

यह जानना आश्चर्यजनक और दुखद है कि प्रदेश में मीट-मुर्गा-मछली कारोबार को खोलने की अनुमति नहीं मिली है. अगर इससे सम्बद्ध लाखों लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है तो यह बड़ी समस्या है. पता चल रहा है कि तीन साल से मीट-मुर्गा बेचने के लिए लाइसेंस ही जारी नहीं हुए थे. यानी बंदी से पहले जो कारोबार चल रह था वह अवैधथा और प्रशासन की अनुमति से यह अवैधव्यवसाय चल रहा था? तो बंदी खुलने के बाद वही व्यवस्था क्यों नहीं चल सकती जो पहले चल रही थी?
2017 में योगी सरकार आने के बाद बिना लाइसेंस चल रहे बूचड़खानों पर रोक लगी थी. ये बूचड़खाने बड़ी गंदगी में चल रहे थे. गली मुहल्ले मीट-मुर्गा बेचने वाली छोटी-छोटी दुकानें भी साफ-सफाई का ध्यान नहीं रखती थीं. सब्जी मण्डियों या खुले में कहीं भी बकरे-मुर्गे काटे जा रहे थे. बीमारियां फैलाने का कारण भी वे बन रहे थे. फिर प्रशासन ने एक व्यवस्था बनाई. दुकानों में साफ-सफाई के कुछ नियम तय किए. उसके बाद कुछ बेहतर व्यवस्था में मीट-मुर्गा बिकने लगा था. बंदी से पहले तक यही व्य(वस्था चल रही थी.
उसी व्यवस्था को, बल्कि कुछ और बेहतर बनाकर फिर से चलाने में क्या दिक्कत है जबकि सिर्फ राजधानी लखनऊ में ही पचीस हजार से ज्यादा परिवारों की रोजी-रोटी इस व्यवसाय से जुड़ी है? प्रशासन अनुमति नहीं दे रहा लेकिन ऐसा नहीं कि चोरी-छुपे मुर्गे-बकरे नहीं कट रहे. खाने वाले बता रहे हैं कि मीट की कालाबाजारी हो रही. आठ सौ रु किलो तक बिक रहा है जबकि बंदी से पहले पांच सौ रु किलो मिल रहा था. मुर्गा-मछली भी बहुत महंगे दामों पर चोरी-छुपे मिल रहा है. इस चोरी-छुपेमें पुलिस शामिल नहीं है, ऐसा कौन कह सकता है?
जहां तक नियमों के पालन का सवाल है, क्या प्रशासन यह दावा करता है कि डेरियों से लेकर खान-पान की तमाम छोटी-बड़ी दुकानें या नामी खोंचे-ठेले लाइसेंस से चलते हैं या आवश्यक नियमों का पालन कर रहे हैं? पाश्चराइज्ड दूध के नाम पर कच्चा और अशुद्ध दूध क्यों मिल रहा है? अगर हमारे पास एक भी लाइसेंस प्राप्त मानक-आधारित बूचड़खाना नहीं है तो इसका जिम्मेदार कौन है? मांसाहार आवश्यक खाद्य सामग्री की सूची में सरकार ने ही शामिल किया है. वह यथासम्भव नियमानुसार मिले यह देखना सरकार का काम है और जो कमियां हैं, उन्हें दूर करना भी उसी का दायित्व है. जो व्यवसाय बंदी से पहले प्रशासन की अनुमति से चल रहा था, उसे अचानक बंदी खुलने पर भी बंद ही रहने देना भ्रष्टाचार और चोर-बाजारी को बढ़ावा देना नहीं तो क्या है? 
(सिटी तमाशा, नभाटा, 6 जून, 2020)             

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