Friday, June 12, 2020

यह दारुण दु:ख और वह निश्छल हंसी


'आज हर उम्मीद को तोड़ती खबर आई. हम लखनऊ भागे... अंतिम विदाई... पूरा परिवार था, पर बॉडी बैग में सील्ड देह थी... अंतिम दर्शन, मुख देखना भी न हो सका... विद्युत शवदाह गृह के कर्मचारी अपने विशेष वस्त्र पहनने लगे. हमें भी अपने पांव, सर, हाथ, मुंह सब ढकना था.. वहां सबकी पहचान खो गई... बेटी ने रोते हुए मुझसे कहा- बहुत बिजी रखा आप लोगों ने, पिता की सेहत खराब होती रही. मैंने हाथ जोड़े... क्या कहता?’
यह अम्बेडकर नगर के जिलाधिकारी राकेश मिश्र की फेसबुक पोस्ट के अंश हैं जो उन्होंने जिले के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक डॉ एस पी गौतम की कोरोना संक्रमण से हुई मौत पर चंद दिन पहले लिखी थी. पोस्ट में डॉ गौतम की अथक सेवा और कोरोना-मरीजों के प्रति समर्पण की दिल खोलकर प्रशंशा की गई है. यह सिर्फ किसी की मृत्यु पर कहे जाने वाले तारीफों के शब्द भर नहीं हैं. इनमें पीड़ा है, असहायता का बोध है और शायद अपराध-बोध भी.
कुछ दिन पहले एक तस्वीर देखी थी. युवा बेटे की संक्रमण से मौत हो गई है. दूर रहने वाले माता पिता बेटे का अंतिम संस्कार करने आए हैं लेकिन उसे देख भी नहीं सकते. अस्पताल कक्ष के खुले दरवाजे के बाहर खड़े होकर जिसे वे देख पा रहे हैं वह सिर्फ प्लास्टिक का पूरी तरह बंद लम्बा बंडल है. वहां न किसी का चेहरा है, न हाथ-पांव. एक प्रतीति भर है कि उसमें उनके जाये बेटे की ठंडी देह है. यह अहसास भी अस्पताल के कर्मचारियों के बताने से हुआ है.
चेहरा भी न देख पाने की यह कसक कोरोना-काल की ही दारुण कथा नहीं है. कितने ही ऐसे हादसे पहले भी होते रहे हैं जिनमें परिवार को अपनों का चेहरा देखना भी नसीब नहीं होता. इस अभिनव संकट-काल ने स्थितियों को कुछ अधिक ही दारुण बना दिया है. मीडिया का फोकस भी इसी पर बना हुआ है. शायद इसलिए.
मानव की जीजिविषा के अद्भुत उदाहरण भी इस काल में सामने आ रहे हैं. दो दिन पहले अखबार के पहले पन्ने पर 76 साल की नाजुकजहां का मुस्कराता चेहरा दिखा था, जिन्होंने दिल की गम्भीर बीमारियों के बावजूद कोरोना को मात दी. ऐसी और भी तस्वीरें हैं जो आशा की किरण जगाती हैं. वह तस्वीर तो शायद ही कोई भूल पाएगा जिसमें एक लड़की अपने बूढ़े पिता को सायकिल पर बैठाकर 1200 किमी दूर अपने घर सकुशल ले गई. मीडिया ने उसके छोटा-से घर का पीपली लाइवजैसा हाल कर दिया था.
एक और तस्वीर है जो दिल-दिमाग में चिपक गई है. पैदल गांव लौटती एक श्रमिक मां की गोद में उसका नन्हा बच्चा बड़ा-सा कजरौटा लगाए इतनी उन्मुक्त हंसी में मगन है कि उसकी आंखें बंद हो गई हैं और पूरे खुले मुंह में टूटे दूध के दांतों के पार मुझे जैसे कृष्ण का जैसा जीवन का विराट रूप दिखने लगा है. बच्चे को खिलखिलाता देखती मां के दुबले-पतले चेहरे पर जो हास्य खिला है, उसका वर्णन कर पाना मुश्किल है. घनघोर विपरीत स्थितियों के बीच किसी प्रसंग से सहसा उपजा यह दृश्य जीवन के संघर्ष में सौंदर्य का सुंदर और शाश्वत प्रतीक है.
सृष्टि का नियम है कि मृत्यु अंतिम सत्य है. फिर भी विजय उसकी नहीं होती. जीवन हर हाल में नईं कोपलें लेकर आता है. रोग–दोष से जानें जाती रहती हैं. कोरोना ने भी कई कीमती जानें ले ली हैं. पता नहीं वह और किस-किस की इस दुनिया से विदाई का बहाना बनेगा. उनका शोक विह्वल करेगा लेकिन जीवन अपनी रफ्तार चलता चला जाएगा.
रह जाएगा तो वह निर्मल हास्य जो उस अभावग्रस्त मां के चेहरे पर अपने खिलखिलाते शिशु को देखकर नाच रहा है. 
(सिटी तमाशा, नभाटा, 13 जून 2020)    

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