यह लगातार पंद्रहवां सप्ताह
है जब यह स्तम्भ कोरोना पर लिखा जा रहा है. मन-मस्तिष्क पर यह विषय ही छाया हुआ
है. पूरी दुनिया के मीडिया का यही हाल है. शुरू के दो-तीन महीने दुनिया इस महामारी
से लड़ने में लगी रही. अब भी लड़ रही है लेकिन उबरने की कोशिश भी साथ-साथ चल रही है.
जो सांसारिक गतिविधियां ठप थी वे शुरू हो रही हैं. लोग घरों से निकल रहे हैं, दफ्तर जा रहे हैं, बाजारों में सीमित मगर चहल-पहल दिख रही है.
कुछ लोगों के लिए यह खतरे का बढ़ जाना है तो कुछ के लिए जीवन
यापन के अवसरों का खुलना. सवाल है कि आप कहां खड़े हैं. पिछले हफ्ते
एक दोपहर फालसे बेचता एक ठेले वाला मिला. ‘मास्क नहीं लगाते’,
हमने पूछा. उसने जवाब में गले में पड़ा गमछा नाक-मुंह में लपेट लिया.
पचास रुपए में एक पाव फालसे तोलते हुए हमारे पूछने पर उसने बताया- ‘सुबह चार बजे दुबग्गा मण्डी गए थे. फालसे और किसी मण्डी में नहीं मिलते.’
दुबग्गा मण्डी में दैहिक दूरी और साफ-सफाई की सतर्कता के
बारे में पूछने पर उसने हंसते हुए कहा- ‘उहां कउन देखत है. मार पिला रहता है आदमी.’
‘इसमें तो खतरा है,’ हमने कहा. उसका सारा
ध्यान तराजू पर था. बोला- ‘खतरा-हतरा कछु नाहीं.’ फिर कागज की पुड़िया लपेटते हुए कहा- ‘पेट देखे मनई
के रोग देखे?’
हमने बड़ी सावधानी से दूर से पुड़िया पकड़ी, इस
तरह कि उसका हाथ न छू जाए. फौरन उन्हें नमक पानी में ‘सैनीटाइज’
किया. इसके बाद भी खाते समय डर लग रहा था. एक ठेले वाले का नज़रिया
है, एक हमारा. वह भीड़ भरी मण्डी में पेट के लिए चार बजे सुबह
‘पिल पड़ता’ है. न मास्क, न सैनिटाइजर. हमें मास्क, सैनिटाइजर और आवश्यकता से
अधिक दैहिक दूरी रखने के बावजूद भय लगता है.
हम दोनों अलग-अलग जमीन पर खड़े हैं. हमें लगता है, लॉकडाउन
ही चलता रहता तो ठीक था. संक्रमण नियंत्रण में था. लोग बहुत ज़्यादा सतर्क थे. जब
से बंदी खुली है, लोग निकल पड़े हैं. ऐसा लग रहा है कि कोरोना
भाग गया. तभी तो संक्रमण तेजी से बढ़ रहा है. लोग दफ्तर जा रहे हैं, बाजार जा रहे हैं, मण्डी जा रहे हैं, कबाड़ी वाला भी फेरी लगाने लगा है. हमारा भय बढ़ गया है. हम आपस में कह रहे
हैं, दोस्तों-परिचितों को समझा रहे हैं कि अब बहुत सावधान
रहने की आवश्यकता है. जो भी सामने दिखे, समझो वही संक्रमित है. बाहर बिल्कुल न निकलो.
फालसे वाला लॉकडाउन में बहुत चिंतित था. बाहर निकलना मना
था. मण्डी बंद थी. ठेला खड़ा रहा और दिहाड़ी नहीं मिली. रोटी के लाले पड़ गए. कुछ भले
लोग मदद नहीं करते तो बच्चे भूखे रह जाते. बहुत अच्छा हुआ कि मण्डी खुल गई. अब दिन
भर फेरी लगाने के बाद शाम को घर में चूल्हा जल जाता है. वह अपने साथियों को बता
रहा है- मण्डी चले चलो, खूब भीड़ है. सब मिले लाग है.
उसका डर भूख थी. हमारा डर कोरोना है. उसे राहत मिल गई है.
हमारी चिन्ता बढ़ गई है. हम अलग-अलग जमीन पर खड़े हैं. खतरे को देखने की हमारी नज़र
फर्क है. जो जिस जमीन पर खड़ा होता है, वह वहीं से चीजों को देखता है. हमारे लिए
खतरा बढ़ रहा है, उसके लिए अवसर खुल रहे हैं.
इस महामारी ने जीवन के विविध रंग दिखाए. इनसान के भीतर के
कई अनजान कोने खोले, कई परदे उठाए. लोगों की निगाह भी शायद कुछ बदली. जीवन के प्रति
नज़रिया उलट गया है, ऐसा भी लोग कह रहे हैं. पता नहीं, लेकिन पांवों के नीचे तो सबकी अपनी वही जमीन है.
(सिटी तमाशा, नभाटा, 20जून, 2020)
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