तीन-चार दिन पहले वर्मा जी बहुत परेशान मिले। घर के पोर्टिको में खड़ी अपनी पुरानी मारुति कार को उदासी से सहला रहे थे। यह कार उन्होंने कोई पच्चीस वर्ष पहले बड़े शौक से खरीदी थी। जब उनके किसी रिश्तेदार के पास कार नहीं थी तब वे सपत्नीक कार से उनके घर जाते थे। गाहे-बगाहे किसी को अस्पताल ले जाना हो या और कोई आपात आवश्यकता आ पड़े तो कार लेकर उपस्थित हो जाते थे। फिर वे रिटायर हो गए। बेटा नौकरी में चला गया। बेटी की शादी कर दी। पति-पत्नी अकेले रहते हैं लेकिन इस उम्र में पुरानी कार का बड़ा सहारा है। बाजार आना-जाना, डॉक्टर के यहां या किसी जरूरत के समय ही निकलना होता है। वे रोज सुबह उसे झाड़ते-पोछते–धोते हैं, साल में समय पर सर्विस कराते हैं और अपने से अधिक उसका ध्यान रखते हैं।
‘अब यह कार भी हम नहीं रख सकते,’ वर्मा जी
सचमुच उदास थे- ‘सरकार ने बीस साल से अधिक पुरानी गाड़ियों का
रजिस्ट्रेशन समाप्त करने का फैसला किया है। हम बूढ़े-बुढ़िया क्या करेंगे?’
‘सरकार चाहती है कि पुराना सब खारिज कर दिया जाए और आप नई कार
खरीदें,’ हमने उन्हें हलका करने की कोशिश की।
‘नई कार का हम बूड्ढे-बुढ़िया क्या करेंगे? और, क्यों खरीदें? कहां से
पैसे लाएं? छोटी-मोटी जरूरत इससे पूरी हो जाती है।‘
वर्मा जी अकेले इस तकलीफ में नहीं हैं। अकेले लखनऊ में कोई
सवा तीन लाख निजी कारें बीस साल से पुरानी चिह्नित की जा चुकी हैं। निर्णय हुआ है
कि इन कारों का निबंधन स्वत: समाप्त कर दिया जाएगा। यानी इन्हें चलाने की अनुमति
रद्द। इन्हें कबाड़ करार दिया जा चुका है किंतु वर्मा जी जैसे बहुत सारे लोगों के
लिए ऐसी पुरानी गाड़ियां कबाड़ नहीं, बहुत उपयोगी और सहारा बनी हुई हैं। वे क्या
करें?
इन गाड़ियों से प्रदूषण फैलने का तरक बचकाना है। इनसे कहीं
अधिक प्रदूषण फैलाने वाली गाड़ियां और दूसरी चीजें धड़ल्ले से चल रही हैं। वास्तव में
यह नव उदार व्यवस्था का जबड़ा है जिसमें हर पुरानी चीज ‘स्क्रेप’
कहकर डाल दी जाएगी ताकि जनता नित नया सामान खरीदती रहे और इस
उपभोक्ता-अर्थव्यवस्था को धक्का देती रहे। जनता नई-नई कारें नहीं खरीदएगी तो वाहन
उद्योग को गति कैसे मिलेगी? इस निर्मम व्यवस्था को वर्मा जी
जैसे बुजुर्गों या गरीबों से कोई वास्ता नहीं रह गया है।
हमने रिटायर होने से पहले नई कार खरीदी थी। एजेंसी मालिक ने
पूछा था- ‘सिर, कितने साल तक रखने का इरादा है?’
हमने कहा था- ‘जब तक चल जाए।’ उन्होंने हंसते हुए बताया था- ‘अब तीन साल में गाड़ी
बदल देने का चलन है।’ हमारी कार सात साल बाद आज भी नई-नवेली-सी
चल रही है। वाहन उद्योग को तेजी दिलाने के लिए मुझे अब तक कम से कम दो नई कारें
खरीद लेनी चाहिए थी। कार की बात जाने दीजिए, बाइक, टीवी, मिक्सी, घरेलू आवश्यकता
के बहुत सारे उपकरण ज़ल्दी-ज़ल्दी बदलने का दबाव तरह-तरह से बाजार बनाता है। ‘एक्सचेंज स्कीम’ साल भर चालू इसीलिए रहती है कि आप
पुराना खारिज कर नया-नया सामान घर लाते रहें। दो खरीदिए तो एक मुफ्त! जरूरत एक भी
नहीं लेकिन लालच में खरीदिए। हम कबाड़ और कचरा पैदा करने वाले नागरिक बना दिए गए
हैं। यहां उपयोगिता की कोई बात नहीं करता।
नौकरियां जाने और वेतन कटौती के इस दौर में नई पीढ़ी भी इतना
खर्च कर पाने की सामर्थ्य नहीं रखती लेकिन सरकार है कि उद्योगों को ‘इंसेण्टिव
पैकेज’ और कर्मचारियों को नकद अग्रिम देकर अधिक से अधिक
खरीदारी के लिए उकसा रही है। ऐसे में वर्मा जी जैसों की पीड़ा कौन सुने?
(सिटी तमाशा, नभाटा, 3 अप्रैल, 2021)
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