Saturday, May 31, 2025

'एक बार महिला बनकर देखो, प्रभु!'

कन्नड़ लेखिका  बानू मुश्ताक के कहानी संग्रह  Heart Lamp  को बुकर पुरस्कार मिलने पर शुरू में जितनी प्रशंसा हो रही थी, अब  उनकी कहानियों पर उतने ही सवाल भी खड़े किए जाने लगे हैं। फेसबुक में ही कई टिप्पणियों में लेखकों-पाठकों ने कहानियों के विषयों, तथ्यों और उनके संदेशों या निष्कर्षों पर सवाल उठाए हैं। इन सवालों का निशाना शायद बुकर पुरस्कार के निर्णायक अधिक हैं।

सवाल उठने भी चाहिए। कोई भी लेखक, कृति या पुरस्कार भी सवालों से ऊपर कैसे हो सकते हैं? गीतांजलिश्री के उपन्यास रेत समाधिको बुकर पुरस्कार मिलने के बाद भी कई कोनों से सवाल उठे थे। उनमें एक सवाल यह भी है कि यह पुरस्कार हिंदी या कन्नड़ कृतियों की मौलिक रचनाधर्मिता को मिला है या अनुवाद-कौशल को?

कई पाठकों को रेत समाधि जटिल और अपठनीय लगा था लेकिन मुझे वह न केवल बहुत अच्छा लगा, बल्कि उसकी शैली और ट्रीटमेंट, वगैरह ने भी प्रभावित किया था। वह मेरे पसंदीदा उपन्यासों में शामिल है।

मैं बतौर एक पाठक ही ये बातें लिख रहा हूं। बानू मुश्ताक की बिल्कुल सीधी, सरल, सहज और भाषाई चमत्कार या जटिल शिल्प के बिना लिखी गई कहानियाँ मुझे छू गईं। कुरान, हदीस और शरियत के नाम पर सताई, दबाई गई गरीब व मध्यवर्गीय परिवारों की मुस्लिम महिलाओं की स्थितियाँ व यंत्रणाएँ रेशा-रेशा खोलती ये कहानियाँ अपने भीतर प्रतिरोध के स्वर भी साथ लिए हुए हैं। कहीं-कहीं तनिक लाउड होती भी लगती हैं लेकिन धर्म के नाम पर मर्दवाद के लिए जरूरी सांकेतिक चुनौती खड़ी करती हैं।

इन कहानियों का शिल्प इतना सीधा और सरल है कि उसे सपाट या सादाबयानी कहा जा सकता है। शायद आजकल सादाबयानी वाली कथाएं हमारे यहां बहुत सराही नहीं जातीं। इन कहानियों की विषय वस्तु और उनके संदेश पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। जैसे कि रेड लुंगीकहानी में हज्जाम के सामान्य चाकू से किया गया खतना और घाव पर पोती गई राख, डॉक्टर के यहां किए गए खतने और दवाओं से बेहतर और सुरक्षित साबित हुआ। किशोर उम्र बच्चों का खतना करने पर भी सवाल उठे हैं।

सवाल मेरे मन भी उठते रहे। सवाल तो प्रेमचंद की कहानी मंत्रपढ़ते हुए भी उठा था कि प्रेमचंद क्या कहना चाहते हैं जब बताते हैं कि जहरीले सांप के काटे अपने बच्चे को डॉक्टर नही बचा पा रहा था तब उसे एक झाड़-फूक करने वाले ओझा ने बचा लिया?

सवाल गलत नहीं हैं लेकिन क्या कहानियों का संदेश मात्र इसी तरह सम्प्रेषित होता है? क्या कहानियों के मर्म किन्हीं और प्रसंगों में नहीं होते? जो हालात बयां किए जाते हैं, अतिरंजित ही सही, समाज का आईना नहीं होते? आबे जमजम में भिगाया गया कफन ओढ़कर कब्र में जाने की यासीन बुआ के दिली अरमान ही कहानी का मर्म हैं या कि कहानी में वर्णित वे हालात जिनसे ऐसी मन:स्थितियां बनती हैं, ताउम्र जकड़े रहती हैं, और वह वर्ग चरित्र भी जो शाजिया और यासीन बुआ के परिवारों का फर्क बनाता है?  

ज़्यादा बड़ा सवाल शायद यह होगा कि मुस्लिम महिलाओं के जो हालात इन कहानियों में वर्णित हुए हैं, क्या वे पहली बार साहित्य में दर्ज़ हुए हैं? क्या पहले भारतीय भाषाओं में इन पर नहीं लिखा गया या इससे बेहतर रूप में दर्ज़ नहीं हुआ? या फिर अंग्रेजी अनुवाद से पहली बार बुकर पुरस्कार के निर्णायकों के सामने आया?

सबसे बड़े और प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार का भी तो एक पक्ष और विपक्ष होता ही है।

बहरहाल, बानू मुश्ताक की ये कहानियां देर तक मेरे भीतर प्रतिध्वनित होती रहीं। यह तकलीफ भी कि विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य के मामले में हिंदी कितनी दरिद्र है।

रेड लुंगीकहानी में जब एक फटेहाल भूखी महिला झूठ बोलकर अपने लड़के का दोबारा खतना करवाने आ जाती है, ताकि उसे कुछ रुपए और खाने का सामान मिल सके, तो पाठक भीतर तक हिल नहीं उठता? जब उस महिला को इस झूठ के लिए दुत्कार कर भगा दिया जाता है, तो वहां मौजूद लोगों की खिलखिलाहट समाज और शासन के मुंह पर तमाचा नहीं है? खतना तो छोटे शिशुओं का होता है, इस तथ्य से क्या कहानी खारिज की जा सकती है? उसमें जो मुस्लिम समाज है और जैसी स्थितियां दिखाई गई हैं, उन पर ध्यान नहीं जाता क्या?

पढ़े-लिखे, सम्पन्न मुस्लिम परिवारों में भी स्त्रियों का साल-दर-साल बच्चे पैदा करते जाना, बीमार होने या शरीर ढल जाने पर इस आशंका से त्रस्त रहना कि खाविंद कब दूसरा-तीसरा निकाह कर ले और उसे दर-दर भटकना पड़े, (ऐसा होता भी है इन कहानियों में) सताई जा रही विवाहित महिला का ससुराल छोड़कर मायके जाना और भाइयों द्वारा जबरन वापस ससुराल पहुंचाया जाना, पतियों का यह कहना कि क्या दिक्कत है तुम्हें, सब कुछ तो दिया है, क्या कमी है?’, बीवियों को इंसान नहीं, बच्चे पैदा करने की मशीन और घरेलू नौकर समझा जाना, बीवी को जीते-जी ताजमहल बनवाने का ख्वाब दिखाना और उसके मरते ही कमसिन लड़की से ब्याह रचा लेना और जवान बेटी को आगे पढ़ाने की बजाय घरेलू नौकरानी एवं भाई-बहनों की आया बना देना, जैसी कितनी ही अमानवीय हालात में जीती मुस्लिम महिलाओं की इन सामान्यकहानियों में निर्णायकों ने बहुत कुछ देखा-पाया है। नेट पर उनकी प्रशंसात्मक टिप्पणियां पढ़ी जा सकती हैं।

इन कहानियों में महिलाओं का प्रतिरोध भी सामने आता है, कहीं मद्धिम सुरों में पर्दे के पीछे तो कहीं बगावत की तरह। ब्लैक कोबराजमें एक मस्जिद के मुतवल्ली साहब जो अपने समुदाय को कुरान और शरियत के नाम पर जकड़न में बनाए रखने में लगे रहते हैं, उनकी ही बीवी कहानी के अंत में मुतवल्ली-पति से यह ऐलान करती है कि “दरवाजा बंद करो, जो सात बच्चे तुम्हें दे चुकी हूं, उन्हें संभालो, मैं चली अस्पताल ऑपरेशन कराने।”

हाई हील्ड शूमें नायिका का प्रतिरोध बड़ा प्रतीकात्मक और सुन्दर बन पड़ा है। गर्भवती आरिफा को उसका पति ऊंची एड़ी वाली ऐसी जूतियां जबर्दस्ती पहना देता है, जो उसके पैर में फिट नहीं हैं, चुभती हैं, काटती हैं, वह गिर-गिर पड़ती है, गर्भस्थ शिशु पर जोर पड़ता है लेकिन पति हुजूर बीवी को ऊंची एड़ी की जूतियां पहनाकर मुदित मन आगे-आगे चले गए हैं। असल में वह जूतियां नहीं, उसकी बेड़ियां हैं, जिनसे मुक्त होने के लिए वह लाख जतन करती है लेकिन सफल नहीं होती। अंतत: गर्भस्थ शिशु की पुकार वह सुनती है, उसमें एक उम्मीद नजर आती है और जूतियों पर वह इतना जोर डालती है कि उनके टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं।   

यह भी ध्यान देना होगा कि बानू मुश्ताक 1970-80 के दौर में कन्नड़ साहित्य में शुरू हुए दलित एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों (मुख्यत: मुस्लिम) की प्रतिरोधी धारा (बंदया या बांदया, जो भी उच्चारण हो) से उभरी लेखिका, सामाजिक कार्यकर्ता और वकील हैं। इन कहानियों का लेखन काल भी तीन-चार दशक पुराना है। समाज बदला होगा, महिलाओं के हालात भी कुछ सुधरे होंगे लेकिन हम अपने चारों ओर जो देख रहे हैं, मुस्लिम ही नहीं, हिंदू समाज में भी, महिलाओं को पितृसत्ता की जकड़न और अत्याचारों से कहां-कैसी मुक्ति मिली है? लेखिका के प्रगतिशील नजरिए और आंदोलनकारी भूमिका के बावजूद इन कहानियों में थोपी हुई क्रांति नहीं है।

संग्रह की अंतिम कहानी बि अ वुमन वन्स, ओ लॉर्डमें प्रभु (यहां अल्लाहसम्बोधन नहीं है) को चिट्ठी लिखती महिला अपनी दुखभरी कहानी लिख चुकने के बाद अंत में साग्रह निवेदन करती है-

“हे प्रभु, अगर तुम दोबारा दुनिया बनाओ, उसमें फिर से स्त्री और पुरुष बनाओ, तो अनुभवहीन कुम्हार की तरह मत करना। इस धरती पर एक महिला की तरह आना। एक बार महिला बनकर देखो, प्रभु!”

यह पीड़ा भरी पुकार इस धरती पर कब से गूंज रही है और जाने कब तक गूंजती रहेगी।

-    न जो, 31 मई 2025

             


Friday, May 09, 2025

फेक न्यूज के मुकाबिल मीडिया साक्षरता- एक जरूरी किताब

इस समय जब भारत-पाकिस्तान सीमा के दोनों ओर युद्धोन्माद छाया हुआ है, सोशल मीडिया ही नहीं, टीवी चैनलों और अखबारों में भी फेक न्यूज का बोलबाला है। कोई इस्लामाबाद पर भारतीय कब्जे की खबर पूरे भरोसे के साथ दे रहा है तो कोई पकिस्तानी सेना का आत्मसमर्पण करा चुका है। किसी की फेक न्यूज ने कराची बंदरगाह तबाह करा दिया है तो कहीं पाकिस्तान के तीन-चार टुकड़े हो जाने का जश्न मनाया जा रहा है। कोई हद ही नहीं। हम समझते थे कि चुनावों के समय ही फेक न्यूज अपने चरम पर होती है लेकिन युद्धोन्माद के इस दौर ने तो फेक न्यूज के जरिए मीडिया-सोशल मीडिया के पतन के नए पाताल दिखा दिए हैं। 

यह संयोग ही है कि अभी-अभी अखिल रंजन की सद्य: प्रकाशित पुस्तक 'फेक न्यूज, मीडिया और लोकतंत्र' पढ़कर पूरी की है। अखिल रंजन  प्रखर पत्रकार हैं और लम्बे समय से फेक न्यूज की गहन पड़ताल एवं उसका पर्दाफाश करने का जिम्मेदारी भरा काम करते आए हैं। इसी कारण उनकी यह किताब जहां एक ओर फेक न्यूज की जड़ों तक जाकर उसकी मॉडस ऑपरेण्डी समझने-समझाने का काम करती है, वहीं दूसरी ओर फेक न्यूज को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किए जाने के तौर-तरीकों, उसके दीर्घकालीन नुकसान, मीडिया की खत्म होती विश्वसनीयता, आदि पर विस्तार से बात करती है। अखिल यहीं तक सीमित नहीं रहते। वे  यह भी विस्तार से बताते हैं कि सामान्य जन भी थोड़ी सी समझदारी के साथ फेक न्यूज को कैसे पकड़ सकते हैं, कि सामान्य सा एक स्मार्ट फोन भी फेक न्यूज, छेड़छाड़ किए गए वीडियो और फोटो की पड़ताल करने में सक्षम होता है। 

अखिल लिखते हैं कि महाभारत के युद्ध में जब अजेय द्रोणाचार्य को मारने के लिए पाण्डवों ने रणनीतिपूर्वक युधिष्ठिर से 'अश्वत्थामा हतो नरो कुंजरो वा' कहलवाया और उनके 'अश्वत्थामा हतो' कहते ही कृष्ण ने शंख फूक दिया तो वह भी फेक न्यूज को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाना था। तब से लेकर आज तक देश-विदेश के कई युद्धों, सामाजिक-आर्थिक उठापटकों, व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विताओं और राजनीतिक तिकड़मों में फेक न्यूज को शस्त्र की तरह प्रयोग किया जाता रहा है। आधुनिक युग में जब से मास मीडिया का स्वरूप बदला, सत्ता और मीडिया के बीच साठगांठ सघन हुई, मीडिया पर कुछ खास घरानों का कब्जा होता गया और नित नई टेक्नॉलॉजी के आविष्कार ने हर व्यक्ति को 'समाचार' (कॉन्टेंट) का जनक और प्रसारक बना दिया, तब से तो फेक न्यूज अनियंत्रित बाढ़ की तरह समाज में उथल-पुथल मचा रहा है। 

विशेष रूप से जब से मास मीडिया का जनसरोकार खत्म हुआ,  हर हाल में ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा कमाना उसका एकमात्र ध्येय बना और डिजिटल दौर में 'व्यूज' एवं 'लाइक्स' ने मुनाफे तक पहुंचने के द्वार खोले, फेक न्यूज का विस्तार असीमित हो चला है। 

सबसे खतरनाक बात यह है कि फेक न्यूज बनाने और पहली बार प्रसारित करने वाला तो जानता है कि यह फेक न्यूज (या वीडियो या फोटो) है लेकिन फिर उसे निरंतर आगे बढ़ाते रहने वाले असंख्य लोग न यह जानते हैं कि यह फेक है, न जानना चाहते हैं, और न ही यह समझने की कोशिश करते हैं कि इसके पीछे क्या नापाक इरादे हो सकते हैं। हजारों-लाखों में फॉर्वर्ड होने वाली फेक न्यूज इस तरह विश्वनीयता हासिल करती जाती है। 

अच्छे-अच्छे, समझदार कहे जाने वाले लोग भी उस पर भरोसा कर जाते हैं। जब मैं यह लिख रहा हूं तो फेसबुक की एक पोस्ट बता रही है कि प्रसिद्ध पत्रकार राजदीप सरदेसाई यह स्वीकार कर रहे हैं कि दो दिन पहले 'इण्डिया टुडे टीवी' पर अपने सहयोगी गौरव सावंत की बताई हुई एक फेक न्यूज को वे सही मान बैठे थे। 

अखिल रंजन अपनी इस किताब में दुनिया भर के विशेषज्ञों के हवाले से कई नई, बल्कि चौंकाने वाली जानकारियां देते हैं। कनाडाई दार्शनिक और मीडिया सिद्धांतकार मार्शल मैक्लुहन के हवाले से वे बताते हैं कि सोशल मीडिया के वर्चस्व के इस दौर में हम सब 'नार्सिस नॉर्कोसिस' यानी एक प्रकार के आत्म सम्मोहन के शिकार हैं, उसके कैदी हैं और हमें पता ही नहीं कि यह मीडिया हमारे साथ क्या-क्या कर रहा है। जो चतुर और समझदार इनसान यह मानते हैं कि उन पर सोशल मीडिया या फेक न्यूज का प्रभाव नहीं हो सकता, दरअसल वे भी उसके अनजाने ही शिकार हैं। 

इसे 'थर्ड पार्टी इफेक्ट' कहा जाता है। हम सब अपने-अपने 'फिल्टर बबल' के भीतर हैं और हमारा अपना 'ईको चैम्बर' बन गया है, जहां हमें वही दिखाई देता है, जो हम देखना चाहते हैं, उसी पर भरोसा करते हैं और किसी दूसरी राय, दूसरे पक्ष या असहमति तक हमारी पहुंच नहीं रह जाती। उस पर सोचना, विचार करना तो दूर की बात रही। वे लिखते हैं- "अपनी सोच-समझ पर हमारा अति-आत्मविश्वास ही हमें सोशल मीडिया के सबसे खतरनाक बाईप्रॉडक्ट 'फेक न्यूज' का शिकार बनाता है।"

इसीलिए 'फेक न्यूज' को 'इण्टरनेट युग का भस्मासुर' घोषित करते हुए अखिल सोदाहरण बताते हैं कि दुनिया के कई दलों के कई नेता सोशल मीडिया की सहज विश्वासी जनता को विशुद्ध झूठ परोसते रहे हैं, जिनमें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और अपने प्रधानमंत्री मोदी जी बहुत आगे हैं, हालांकि उनके विरुद्ध भी विपक्षी पार्टियां और नेता इस खेल में लगे रहते हैं।  

लेखक फेक न्यूज के विविध प्रकारों का विश्लेषण करते हैं और यह भी स्पष्ट करते हैं कि फेक न्यूज की भाषा, विषय और मुद्दे इस तरह रचे जाते हैं कि वे सीधे हमारी भावनाओं को कुरेदने या आहत करने वाले होते हैं ताकि हम तत्काल उस पर भरोसा कर लें। हम भारतीय दुनिया भर में फेक न्यूज के सबसे बड़े और आसान शिकार बने हुए हैं। अखिल ने इसे साबित करने के लिए 2024 के वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम, 2019 के माइक्रॉसॉफ्ट और 2018 के बीबीसी के शोधों-सर्वक्षणों को उद्धृत किया है। 

फेक न्यूज को समझने और उसके चक्कर में न आने का एक ही तरीका अखिल बताते हैं - मीडिया लिटरेसी, जो दुर्भाग्य से हमारे देश में सबसे कम है जबकि सबसे ज्यादा यहां जरूरत इसलिए है कि 'अपने देश में अधिकतर लोग पहली, दूसरी या तीसरी पीढ़ी के साक्षर हैं, जो लिखे हुए शब्दों और देखी-सुनी बातों पर सहज यकीन कर लेते हैं।' अब इसकी जरूरत दुनिया भर में महसूस की जा रही है। अमेरिका के कई राज्यों ने स्कूली पाठ्यक्रम में मीडिया लिटरेसी को गणित और विज्ञान की तरह एक विषय के रूप में शामिल किया है।

 'मीडिया लिटरेसी (या साक्षरता)' हमें इस बात के लिए तैयार करती है कि कोई संदिग्ध या भ्रामक सूचना मिलने पर हमारी प्रतिक्रिया कैसी होनी चाहिए। कि किस तरह की सूचनाओं पर शक करना चाहिए और कोई संदेहास्पद सूचना मिलने पर कैसे उसकी विश्वसनीयता परखने एवं तथ्यों की पड़ताल की कोशिश करनी चाहिए।' जैसे एक सूत्र यह है कि 'बिना स्रोत या तारीख वाली सूचना पर सहज विश्वास करने से बचना चाहिए।'

अंत में अखिल विस्तार से और बिंदुवार यह समझाते हैं कि संदिग्ध सूचना, वीडियो या फोटो को किस प्रकार अपने फोन से ही जांचा जा सकता है। एक सामान्य व्यक्ति भी अपने फोन के गूगल लेंस से किसी फोटो की सच्चाई जांच सकते हैं। अखिल ने बहुत से सामान्य और तनिक जटिल तकनीकी तरीके भी समझा कर बताए हैं जिनसे कोई व्यक्ति, खासकर पत्रकार और तनिक डिजिटल शिक्षित व्यक्ति फॉर्वर्डेड झूठ की पोल खोल सकते हैं और उसके फंदे में फंसने से बच सकते हैं, बचा सकते हैं।

इस मायने में यह किताब बड़ी मूल्यवान है क्योंकि यह फेक न्यूज को समझाने के साथ ही उसे जांचने-पकड़ने के तरीके भी समझाकर बताती है अर्थात इसमें मीडिया लिटरेसी के भी जरूरी पाठ शामिल हैं।

यह किताब आज हर व्यक्ति के हाथ में होनी चाहिए- पढ़कर मीडिया साक्षर बनने के लिए। 'नवारुण प्रकाशन' को यह पुस्तक प्रकाशित करने के लिए साधुवाद। पिछले वर्ष नवारुण से ही प्रकाशित पत्रकार हरजिंदर की पुस्तक 'चुनाव के छल-प्रपंच' भी ऐसी ही महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। 

- न जो, शनिवार, 10 मई, 2025



 

Thursday, May 08, 2025

यादों का नायाब खजाना

 

मेवाड़ी जी, हमारे देवेन (देवेन्द्र) मेवाड़ी, के अंदाज़े बयां के क्या कहने! युवावस्था में कथा लेखन से शुरू करके वे विज्ञान लेखक बने और जटिल से जटिल विज्ञान की गुत्थियां किस्से-कहानियों में इस तरह समझाने लगे कि बड़ों से लेकर बच्चों तक की कल्पनाओं के पंख उड़ान भरने लगे। आज वे हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय विज्ञान लेखक हैं, खूब घूमते हैं और अपनी रोचक संवाद शैली में बच्चों-बड़ों को अंतरिक्ष की सैर करा लाते हैं। वे जैसा सुंदर लिखते हैं, वैसा ही आकर्षक बोलते हैं। उन्हें पढ़ना और सुनना बांध लेता है।

उनकी याददाश्त भी खूब है और स्मृतियों का जैसा लेखा-जोखा वे लिखते या सुनाते हैं, उसमें व्यक्ति और व्यक्तित्व-कृतित्व ही नहीं, उसका पूरा पर्यावरण अपनी ध्वनियों समेत गूंजने लगता है। मेरी यादों का पहाड़’, ‘छूटा पीछे पहाड़’, ‘जीवन जैसे पहाड़और कथा कहो यायावरके बाद उनकी यादों की नई किताब यायावर की यादेंभी उतनी ही रोचक और बांधकर रखने वाली है, जिसमें मनीषी साहित्यकारों, मित्र रचनाकारों, अग्रज एवं साथी विज्ञान लेखकों के स्मृति-चित्र हैं। 1980 के दशक में हमने लखनऊ में मेवाड़ी जी से भीष्म साहनी, शैलेश मटियानी, मनोहर श्याम जोशी, हेम चंद्र जोशी, नारायण दत्त, रमेश दत्त शर्मा, कैलाश साह, सईद शेख, आदि के संग-साथ के कई किस्से सुन रखे थे। इस पुस्तक में इन सबका और कई अन्य रचनाकारों (कुल 19) के बारे में पढ़ना जैसे उनके ही साथ समय बिताना है। इनके अलावा पुस्तक में डॉ अब्दुल कलाम, गुणाकर मुले, खड्ग सिंह वल्दिया, प्रो यशपाल, चंद्र शेखर लोहुमी, प्रेमानंद चंदोला, दिलीप सालवी, शुकदेव प्रसाद, अरुण कौल, गिर्दा और वीरेन डंगवाल की बोलती-बतियाती स्मृतियां दर्ज़ हैं।

भीष्म साहनी जैसा स्थापित साहित्यकार एक अनजान युवक के साथ कितना सहज और आत्मीय हो सकता था और किस प्रकार उसे लेखन की दिशा दे सकता था, मनोहर श्याम जोशी जैसे बहुआयामी लेखक-पत्रकार के भीतर किस प्रकार एक विज्ञान लेखक-प्रेरक हुआ करता था, वर्षों तक नवनीतजैसी पत्रिका के सम्पादक रहे नारायण दत्त जी कैसे युवा लेखकों के लेख सम्पादित करके छापने से पहले उन्हें देखने-समझने के लिए लेखक के पास भेज दिया करते थे, रमेश दत्त शर्मा, गुणाकर मुले, प्रेमानंद चंदोला, कैलाश साह, दिलीप सालवी और शुकदेव प्रसाद का सहज-सरल विज्ञान लेखन में कितना बड़ा योगदान है और चंद्र शेखर लोहुमी नामक के सामान्य ग्रामीण अध्यापक ने किस तरह बिना किसी संसाधन के मात्र अपनी जिज्ञासा और शोध-प्रवृत्ति से लेण्टाना बगकी खोज की, यह सब पढ़ते हुए हम इस अपराध बोध से भी भर उठते हैं कि हिंदी का लेखक-पाठक संसार कितना नाशुक्रा है कि अपनी ऐसी विभूतियों को भुला बैठा है। शैलेश मटियानी को आज कितने लेखक-संगठन या पाठक याद करते हैं, जिनके संघर्ष और जीवट की मिसाल नहीं मिलती और जिन्होंने एक-दो नहीं, कम से कम एक दर्जन कालजयी कहानियां हिंदी को दीं? भाषा विज्ञान पर अंतरराष्ट्रीय स्तर का काम करने वाले डॉ हेम चंद्र जोशी, जिन्होंने एक दौर में धर्मयुगसमेत कई पत्रों का सम्पादन भी किया था, का नाम भी किसी को स्मरण नहीं होगा। गिर्दा, वीरेन डंगवाल और सईद शेख, तीनों अपनी-अपनी तरह के अद्भुत रचनाकार और इनसान, तो हाल-हाल में दिवंगत हुए हैं। मेवाड़ी जी इन सबके साथ बिताया अपना समय, रोचक किस्से, आदि तो बताते ही हैं, उनके काम का महत्त्व भी दर्ज़ करते चलते हैं। इसी कारण यह किताब मात्र स्मृतियों का लेखा-जोखा नहीं रह जाती। 

पुस्तक का अंतिम अध्याय जीवन यात्रा में साथ चलती हुई चीजेंमेवाड़ी जी ही लिख सकते हैं जो मेरे जैसे भावुक प्राणी को भीतर तक भिगो देता है। एक बड़ी, गोल, सितारों वाली नथ है, जो साठ साल पहने मेवाड़ी जी की मां पहना करती थी, दसवीं कक्षा की रूलदार कॉपी के पन्नों को सिलकर बनाई गई आत्मकथा डायरी है, 1965 से साथ रही नीली डायरी है, कभी हैदराबाद में खरीदा गया सिरेमिक का जग है, 1968 से अधूरी पड़ी एक कहानी के पीले-भुरभुरे हो चुके पन्ने हैं, 1968 में इलाहाबाद में वीरेन डंगवाल का बीयर पीने के लिए दिया हुआ एक गिलास है, 1967 में खरीदी गई एचएमटी की घड़ी है, 1969 में शादी के साल खरीदा गया फिलिप्स का कमाण्डर ट्रांजिस्टर है, नौकरी लगने पर खरीदा गया बत्ती वाला केरोसीन का स्टोव है, इक्यावन वर्ष पहले तुन की लकड़ी से बनवाई गई टीवी ट्रॉली और छुटकी रैक है, जनम भर साथ निभाने को गलबहियां डाले दो जड़ें हैं, 47 साल पहले नैनीताल में शेखर पाठक की दी हुई जैकेट है और किताबों की अल्मारी में पड़ी कुछ सूखी पत्तियां हैं, पहाड़ के बांज, बुरांश, काफल, आदि की। यह अत्यंत संवेदनशील एक रचनाकार का अद्भुत और कीमती खजाना है। हरेक के साथ यादों के अंतहीन सिलसिले हैं जो उन्हें अपनी मिट्टी, रिश्तों, दोस्तियों, मुहब्बतों, और भावनाओं से जोड़े रखते हैं। यूज एण्ड थ्रोके इस चरम उपभोक्तावादी दौरकी पीढ़ी इस दीवानेपन पर हंस सकती है लेकिन वो क्या जाने कि शब्दों में प्राण कैसे भरे जाते हैं!

मेवाड़ी जी की इस शानदार किताब को उनकी छोटी बेटी मानसी मेवाड़ी ने अपने जीवंत रेखाचित्रों से सजाया और सम्भावना प्रकाशन ने प्रकाशित किया है।  

- नवीन जोशी, 08 मई 2025