खैर, उत्तराखण्ड में आज भी सार्थक परिवर्तन की दिशा में काम करने वाली ताकतें सक्रिय हैं। कम और बिखरी-बिखरी ही सही, लेकिन हैं। वे भी सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं। सड़क से ज़्यादा सोशल मीडिया पर। नए जमाने में यह स्वाभाविक भी है।
लेकिन जरा यह बताइए कि उत्तराखण्ड लोकवाहिनी के वाट्सऐप ग्रुप में कितने सदस्य हैं- 134। परिवर्तन पार्टी के कितने सदस्य सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं- 224 । हेलंग आंदोलन के समय भी एक ग्रुप बना था। उसमें 108 सदस्य हैं। जन हस्तक्षेप ग्रुप में 17 सदस्य है। नैनीताल समाचार के तीन ग्रुपों में करीब ढाई- तीन सौ लोग हैं। वाम दलों के भी कुछ ग्रुप हैं। सब मिलाकर हजार-डेढ़ हजार से अधिक सदस्य होंगे क्या? बहुत सारे लोग तो सभी ग्रुपों में कॉमन हैं। चलिए, सब मिलाकर पांच हजार मान लेते हैं। तो?
तो साथियो, अब बताइए, क्या इससे अंकिता भण्डारी या जगदीश की हत्या, अवैध खनन, जन संसाधनों की लूट, नफरती एजेंडे, आदि-आदि के विरुद्ध हम जनता को जाग्रत कर सकते हैं? अगर हम यह सोचते हैं कि हम भी अपने फेसबुक और वाट्सऐप ग्रुप बनाकर प्रभावशाली प्रतिरोध का झण्डा उठाए हुए हैं तो यह बच्चे को बहलाने के झुनझुने से अधिक नहीं है।
यह नहीं कह रहा हूं कि यह निरर्थक है और नहीं करना चाहिए। जरूर करना चाहिए। एक छोटा सा दिया ही सही, अवश्य जलाते रहना चाहिए लेकिन जितना अंधकार है, जैसा तूफान है, जो झंझावात है, उसकी विध्वंसक ताकत को अच्छी तरह पहचानना और उससे भिड़ने के रास्ते तलाशते रहना होगा।
दोस्तो, शमशेर के समय में और उससे पहले यह हाहाकारी संकट नहीं था। तब सूचनाएं पाना कठिन था लेकिन झूठी-नफरती सूचनाओं की बमबर्षा नहीं होती थी। यथासम्भव तथ्यपरक सूचनाओं के स्रोत थे। अखबार थे और दबावों के बावजूद सच भी लिख ही देते थे। टी वी इतना एकतरफा नहीं था। सरकार को आईना दिखाने वाले पत्रकार काफी संख्या में मौजूद थे।
शमशेर नियमित रूप से बीबीसी सुनते थे। दिनमान पढ़ते थे। जो भी अखबार उपलब्ध होते थे, पढ़ते थे। किताबें पढ़ते थे। बाद में लिखने भी लगे। पहाड़ की पूरी और सच्ची तस्वीर नहीं छपती थी तो प्रतिकार करते हुए लिखते थे। जगह-जगह दौरा करके, पीड़ित जनता से मिलकर, प्रशासन से सवाल पूछकर असली तस्वीर सामने लाते थे।
मुझे याद है, आप में से बहुतों को याद होगा, कई पुराने साथी यहां बैठे हैं, 1977 में जब तवाघाट में भारी वर्षा और भूस्खलन से खेला, पलपला, कौलिया, वगैरह गांव में जबर्दस्त तबाही मची थी तो शमशेर और उनके कई साथियों की टीम तत्काल वहां गई और कई दिन तक डटी रही थी। पीड़ित परिवारों के पुनर्वास के लिए कई दिन आंदोलन चला था। 1978 में उत्तरकाशी में भागीरथी की भयावह बाढ़ के समय गिर्दा और शमशेर अपनी जान पर खेलकर वहां पहुंचे थे जहां तक सरकार और प्रशासन भी नहीं पहुंच सके। नए शोधार्थी और पत्रकार नैनीताल समाचार की फाइलों को वह सब देख-पढ़ और सीख सकते हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं।
कहना मैं यह चाहता हूं कि यदि आज हमारी पत्रकारिता जिम्मेदार होती, उतनी न सही, कुछ कम भी जिम्मेदार होती, पूरी तरह चारण और बिकी हुई नहीं होती, तो भी शायद जनता, युवा पीढ़ी सोशल मीडिया के झूठ, एकतरफा और नफरती एजेण्डे की कैद से कुछ बची रह सकती थी। कहीं से तो उसे थोड़ी रोशनी मिल रही होती। पत्रकारिता में कुछ तो होता जो युवा वर्ग का विवेक जगाता, उसकी संवेदना को झिंझोड़ता, कुछ आक्रोश भरता। तो भी शायद हम इतने बुरे दौर से, इतनी चुप्पी से नहीं गुजर रहे होते।
पत्रकारिता की क्या तस्वीर आपके सामने पेश करूं! मैंने 38 वर्षों तक प्रांतीय और राष्ट्रीय अखबारों में नौकरी की और यथासम्भव पत्रकारिता की। आज मैं अपना परिचय पत्रकार के रूप में नहीं देता। शर्म आती है। पत्रकारों की ऐसी छवि बन गई है।
कुछ दिन पहले विख्यात पत्रकार पी सांईनाथ का एक व्याख्यान सुना। उनकी स्थापना है कि मीडिया और पत्रकारिता अब बिल्कुल अलग-अलग चीजें हैं। मीडिया कॉरपोरेट धंधा है जो शुद्ध मुनाफे के लिए चलाया जाता है। पत्रकारिता वह है जो हम अपनी रोजी-रोटी के लिए कुछ जिम्मेदारी के साथ करते हैं।
सांईनाथ एक और सत्य कहते हैं- ‘फ्रीडम ऑफ प्रेस’ जैसी कोई चीज नहीं रही। जो है, वह ‘फ्रीडम ऑफ पर्स’ है। बटुए से सब कुछ खरीदा जा रहा है- मीडिया भी और पत्रकारिता भी। पत्रकारिता की शुरूआत में हमें एक कहावत बताई जाती थी- ‘सत्य का मुंह स्वर्णपात्र से ढका है।’ अब स्वर्ण पात्र इतना विशाल है कि सत्य पता नहीं किस कोने में है!
दोस्तो, मैंने दो साल पहले नैनीताल में ‘पर्वतीय’ अखबार के सम्पादक विश्वम्भर दत्त उनियाल जी की स्मृति में हुए समारोह में मीडिया की कमाई का एक फॉर्मूला बताया था। नम्बर एक अखबार या चैनल को कुल विज्ञापनों का 60 फीसदी मिलता है। नम्बर दो को बीस फीसदी और बाकी बीस फीसदी में बाकी सब निपटते थे। अब यह फॉर्मूला फेल हो गया है।
अब कोई गणित नहीं है। अब बकौल पी सांईनाथ ‘फ्रीडम ऑफ पर्स है’। कोई कितना बिक सकता है, कोई कितना लेट सकता है, कोई कितना बड़ा झूठा अभियान चला सकता है, कोई कितना बड़ा मुंह खोल सकता है। यही फॉर्मूला चल रहा है।
इसी खुले मुंह में रोज प्रधानमंत्री कार्यालय से और मुख्यमंत्री कार्यालयों से एक सूची ठूंसी जाती है। उस सूची में होता है कि क्या-क्या छापना-दिखाना है, पहले पेज पर क्या होगा, प्राइम टाइम पर क्या होगा? कितना बड़ा छापना-दिखाना है, क्या नहीं छापना-दिखाना है। मुंह में इतना माल ठूंसा जाता है कि कोई इनकार नहीं कर सकता। इनकार करने वाले के लिए ईडी है, सीबीआई है। लोकल पुलिस भी काफी है।
अभी कुछ दिन पहले ‘द वायर’ के सम्पादक सिद्धार्थ वर्दराजन और करण थापर पर सुदूर असम में दर्जनों एफआईआर दर्ज़ की गई हैं। पुण्य प्रसून बाजपेई, अभिसार शर्मा और रवीश कुमार को नौकरी से निकाला गया या उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। वरिष्ठ पत्रकार परंजय गुहा ठाकुरता गौतम अडानी समूह की वित्तीय अनियमिततओं पर लिखते-बोलते रहे हैं। उनके खिलाफ मुकदमों की सुनवाई एकतरफा ही हो रही हैं। कई और उदाहरण मिल जाएंगे।
अखबार और टीवी चैनलों का मुंह सरकार किस तरह भरती है, सुनिए। संसद में खुद सरकार ने एक सवाल के जवाब में बताया है कि 2017 से 2022 के बीच सरकार ने मीडिया को कुल 33 करोड़ पांच लाख रु के विज्ञापन दिए। इनमें 17 करोड़ 36 लाख प्रिंट को और 15 करोड़ 69 लाख टीवी चैनलों को मिले।
आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि तीन साल पहले तक देश में पंजीकृत पत्र-पत्रिकाओं की संख्या डेढ़ लाख थी। प्राइवेट चैनलों की संख्या 900 थी। दूरदर्शन स्वयं 36 सैटेलाइट चैनल और 100 फ्री टु एयर डी टी एच चैनल चलाता है।
‘फ्रीडम ऑफ पर्स’ के अलावा एक और बड़ा खतरा पत्रकारिता के लिए पिछले दस-पंद्रह वर्षों में खड़ा हो गया है।
वह है ‘मीडिया संकेंद्रण’- मीडिया पर चंद हाथों का कब्जा। सुनिए-
भारत में पहला प्राइवेट टीवी चैनल शुरू करने वाले जीटीवी के सुभाष चंद्रा 2024 में आठ भाषाओं में 15 चैनल चला रहे थे।
सन टीवी वाले कलानिधि मारन, करुणाकरण के पोते, दस से ज़्यादा चैनल चलाते हैं।
मुकेश अम्बानी का ‘नेटवर्क-18’ 26 राज्यों में 20 से ज़्यादा समाचार चैनल चलाता है।
तो, अकेले 60 फीसदी से अधिक मीडिया पर मुकेश अम्बानी का कब्जा है।
अखबारों का हाल सुनिए।
टाइम्स ऑफ इण्डिया ग्रुप, हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप और द हिंदू ग्रुप के अखबार 75 फीसदी पाठक पढ़ते हैं।
दैनिक जागरण, अमर उजाला, दैनिक भास्कर और हिंदुस्तान अखबारों को 76 फीसदी पाठक पढ़ते हैं। कुल हिंदी पाठकों के 25 फीसदी तक अकेले दैनिक जागरण की पहुंच है।
दक्षिण भारत में ईनाडु और साक्षी अखबारों को 71 फीसदी तेलुगु पाठक पढ़ते हैं।
एक और बात। ये सभी मीडिया कम्पनियां सिर्फ चैनल और अखबार ही नहीं चला रहीं, वे डिजिटल संस्करण, एफ एम चैनल, ऑनलाइन न्यूज पोर्टल, वीडियो न्यूज, फैशन चैनल और ओटीटी वगैरह पर भी काबिज हैं। इसी अनुपात में मुनाफे पर भी उनका कब्जा है।
यही मीडिया संकेंद्रण है। यह बहुत खतरनाक है। लगभग एक ही तरह के विचार-समाचार हममें से अधिकतर पाठकों-श्रोताओं के दिमाग में भरे जा रहे हैं। दूसरा पक्ष, वैकल्पिक विचार, अन्य विविध समाचार, उन पर अलग-अलग राय अधिकसंख्य लोगों तक नहीं पहुंच पाती।
ब्रिटेन में एक कानून है- कोई बड़ा अखबार टी वी न्यूज चैनल नहीं चला सकता। अमेरिका में कानून था कि एक व्यक्ति या कम्पनी एक क्षेत्र विशेष में अखबार, टीवी या रेडियो में से किसी एक ही माध्यम का संचालन कर सकता है। ट्रम्प ने इसे बहुत लचीला बना दिया है। वहां भी अब मीडिया चंद बड़े घरानों के हाथ में है। कुछ अन्य देशों में भी ऐसे नियम हैं। भारत में मीडिया मालिक पूरी तरह निरंकुश हैं।
पत्रकारिता को पहले ‘ओपीनियन मेकर’ कहा जाता था। सारे पक्ष जनता के सामने रख दिए जाते थे ताकि वह अपनी राय बना सके। अब मीडिया ‘ओपीनियन थोपर’ है, एक ही राय थोपता है। राय बनाने का विकल्प नहीं देता।
एक ही बात, एक ही तरह के विचार सुनते-सुनते हम उसे ही मानने लग जाते हैं। उसका परीक्षण करने का, उस पर सोचने का हमारा विवेक छिन जाता है।
मार्शल मैक्लुहन नाम के एक विख्यात मीडिया अध्येता हैं। उन्होंने इस प्रवृत्ति के खतरों का गहन अध्ययन किया है। उनकी एक किताब है- “मीडियम इज द मैसेज’। उन्होंने इस प्रवृत्ति को ‘नार्सिस नार्कोसिस’ नाम दिया है। यानी मीडिया, विशेष रूप से सोशल मीडिया हमारी चेतना को सम्मोहित कर लेता है। सुन्न कर देता है। देश दुनिया में क्या-क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है, क्या गलत हो रहा है, यह सब हमें पता ही नहीं चल पाता। या, देख-सुनकर भी वह हमारे दिल-दिमाग को स्पर्श नहीं करता।
इंटरनेट एक्टिविस्ट एली पेरियर इसे ‘फिल्टर बबल’ कहते हैं। इसी नाम से उनकी किताब भी है। यानी हम सोशल मीडिया के बनाए हुए एक अदृश्य गुब्बारे के भीतर कैद रहते हैं। अपना ही मनचाहा देखते-सोचते हैं। सोशल मीडिया का एल्गोरिदम यानी बुनावट ऐसी है कि हम जो पसंद करते हैं, वही वह बार-बार दिखाता-सुनाता है। इस तरह हम समाज हो रहे परिवर्तनों, दूसरी हलचलों, आदि से लगभग अछूते रह जाते हैं। इसे ‘ईको चैम्बर’ भी कहा गया है। एक ऐसा कमरा जहां एक जैसी अनुगूंज हमेशा बनी रहती है।
ऐसे में हमें न अंकिता भण्डारी की हत्या परेशान करती है, न झूठ और नफरत का खेल, न अन्याय-उत्पीड़न, न विकास योजनाओं के पीछे छुपा विनाश। और, अगर कहीं थोड़ा-बहुत प्रभावित करता भी है तो हम सोशल मीडिया पर ही एक पोस्ट, या कोई इमोजी, वगैरह लगाकर सोचते हैं कि हमने अपनी जिम्मेदारी निभा दी।
जैसे किसी की मृत्यु की सूचना पर लिख देते हैं ‘रिप’- आर आई पी!
तो साथियो, जब 60-70 प्रतिशत आबादी, विशेष रूप से युवा वर्ग अपने-अपने फिल्टर बबल और ईको चैम्बर में कैद है तो हम कैसे उम्मीद करें कि हमारे छोटे-छोटे प्रतिरोधी ग्रुपों की राय कोई सुन रहा होगा। जमीनी पत्रकारिता कर रहे कुछ युवाओं की निष्पक्ष और जनपक्षीय रिपोर्टिंग देख-सुनकर लोग प्रभावित होंगे और जागेंगे? कैसे आशा करें कि हमारी प्रेस विज्ञप्तियां अखबारों के किसी कोने में छप भी गईं तो उन्हें कोई पढ़ेगा और सक्रिय होगा?
अभी थराली हादसे के समय जब राहुल कोठियाल, हृदयेश जोशी जैसे पत्रकार जोखिम उठाकर सच देखने-दिखाने गए तो उनके वीडियो को एकतरफा, सरकार विरोधी, आदि-आदि ठहराने वाले कई वीडियो सामने आ गए। उनके ‘हिट्स’ की संख्या देख लीजिए, उन पर कमेण्ट पढ़ लीजिए, सोशल मीडिया की ताकत का पता चल जाएगा। अखबारों का भी कमोबेश वैसा ही स्वर है।
तो दोस्तो, इस निराशाजनक हालात में स्वाभाविक सवाल है कि क्या करें। रास्ता नहीं सूझता। निराशा घर कर रही है। पुराने एक्टिविस्ट साथी हताश और अकेले होते जा रहे हैं। कुछ साथी लगातार सक्रिय भी हैं। सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक जूझ भी रहे हैं।
देश-प्रदेश के कई कोनों में प्रतिरोध की लौ जली हुई है। हाल के वर्षों में शाहीनबाग आंदोलन और किसानों की दिल्ली-घेराबंदी सबसे बड़े प्रतिरोधी जनांदोलन हुए। मीडिया ने उनकी भी उपेक्षा ही की। सोशल मीडिया में उनके खिलाफ कैसा-कैसा घिनौना दुष्प्रचार हुआ, आप जानते हैं।
पिछले ही सप्ताह आपने नैनीताल में अंकिता भण्डारी के मामले में एक प्रदर्शन किया। भागीदारी कम है, लेकिन है। इससे उम्मीद बनी रहती है। ये प्रतिरोध और यत्र-तत्र विरोध-प्रदर्शन हमारी रोशनी हैं।
एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि जो सोशल मीडिया आज व्यापक स्तर पर उस ओर झुका हुआ है, जब कभी हवा बदलेगी तो वह उतनी ही ताकत से इस ओर झुक आएगा। तब परिवर्तन की लहर इतनी तेज होगी कि आज कल्पना करना मुश्किल है।
तो, छिट-पुट ही सही, प्रतिरोध की लौ जलाए रखनी होगी। लेकिन इतने से ही काम नहीं चलने वाला।
शमशेर के समय को याद कीजिए। वह सघन जन-सम्पर्क का दौर था। गांवों-कस्बों की यात्राओं, सभाओं का दौर था। जनता से सीधे बात होती थी। उसका असर होता था।
नैनीताल में दर्जन भर युवाओं का जुलूस शहर भर को जगाकर वनों की नीलामी रुकवा देता था। बसभीड़ा की छोटी सी सभा तत्काल ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन में बदल जाती थी। कई उदाहरण हैं। सब जन सम्पर्क से होता था।
आज यह आसान नहीं रहा। कारण गिना चुका हूं। हमारी बात सुनने वाले कान और दिमाग अपने-अपने फिल्टर बबल और ईको चैम्बर में हैं। वे सम्मोहित हैं। इस सम्मोहन को तोड़ना बिना सघन और निरंतर जन सम्पर्क के नहीं होगा।
सोशल मीडिया विशेषज्ञ ‘मीडिया साक्षरता’ का रास्ता सुझाते हैं। सोशल मीडिया में ही उसका कच्चा चिट्ठा खोल डालने के उपकरण छुपे हैं। उस अदृश्य गुब्बारे को फोड़ने का तरीका भी उसी सोशल मीडिया में है, जो इसे फुलाता है।
तो, आज की चंद मुख्य चुनौतियों को संक्षेप में गिनाता हूं-
1. जो सबसे जरूरी मुझे लगता है, वह है जनता से, ग्रामीणों से निरंतर सम्पर्क। सघन और निरंतर सम्पर्क। परिवर्तनकामी ताकतों की आज की सबसे बड़ी कमजोरी जनता से कट जाना है। वाम दलों से लेकर जन संगठनों तक का जनाधार सिकुड़ता गया है। तो, जनता से निकट और लगातार सघन सम्पर्क बनाना होगा।
2. मीडिया साक्षरता को बड़ा अभियान बनाना होगा। यह लम्बी और कठिन लड़ाई है। सम्मोहन का गुब्बारा फूटेगा भी बहुत जल्दी। बस, उसे समझ की सुई चुभाने की जरूरत है।
3. शमशेर की पीढ़ी ने, उनके पीछे और बाद की पीढ़ियों ने भी ज्वलंत मुद्दों पर आंदोलन तो किए लेकिन जनता में राजनैतिक चेतना पैदा नहीं कर सके। यानी यह समझ कि हमारे दीर्घकालीन हित में क्या अच्छा है क्या बुरा।
4. राजनैतिक और वैज्ञानिक चेतना ज़िंदा कौमों के लिए बहुत जरूरी है। यह समझ बनानी और फैलानी बहुत जरूरी है कि मुफ्त का राशन लेना ठीक है या रोजी-रोटी कमाने का पक्का जरिया मांगना। भीख चाहिए या अधिकार?
5. हमारे संविधान की खूब तारीफ होती है। आज भी हो रही है। सब कहते हैं कि संविधान को बचाना है, लेकिन वास्तव में क्या बचाना है, यह समझ जन-जन तक नहीं पहुंचाई जा सकी। संविधान के मूल्य जीवन में नहीं उतारे जा सके।
6. और, लोकतंत्र की भी समझ विकसित की जानी है। वास्तव में यह है क्या? यह समझ कि बदलाव लाने की असली ताकत जनता के ही हाथ में है। उसका उपयोग कैसी समझ से किया जाना चाहिए।
7. और अंतिम बात वह जो मैं वर्षों से कह रहा हूं कि उत्तराखण्ड की परिवर्तनकामी संगठनों, दलों, आदि को एक मंच पर आना ही होगा। आखिर, उत्तराखण्ड लोक वाहिनी और उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी को अलग-अलग चलाए रखने का क्या अर्थ है, इस घोर संकट के समय में।
तो दोस्तो, धन्यवाद।
आज मैंने बहुत निराशाजनक बातें की हैं। उदासियों और हताशाओं का जिक्र शुरूआत में ही कर दिया था। समापन निराशा से नहीं होना चाहिए। इसलिए एक कविता सुनाना चाहता हूं। गिर्दा का गीत हम सब जगह-जगह गाते हैं- ‘जैंता, एक दिन त आलो उ दिन यो दुनी में। वैसी ही उम्मीद भरी कविता। वीरेनदा यानी वीरेंद्र डंगवाल की।
उजले दिन जरूर
आएंगे, उजले दिन जरूर आएंगे
आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ
है हवा कठिन, हड्डी-हड्डी को ठिठुराती
आकाश उगलता अंधकार फिर एक बार
संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती
होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार
तब कहीं मेघ ये छिन्न-भिन्न हो पाएंगे।
तहखानों से निकले मोटे-मोटे चूहे
जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे
हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें
चीं-ची, चिक-चिक की धूम मचाते घूम रहे
पर डरो नहीं चूहे आखिर चूहे ही हैं
जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएंगे
यह रक्तपात, यह मारकाट जो मची हुई
लोगों के दिल भरमा देने का जरिया है
जो अड़ा हुआ है हमें डराता रस्ते में
लपटें लेता घनघोर आग का दरिया है
सूखे चेहरे बच्चों के उनकी तरल हंसी
हम याद रखेंगे, पार उसे कर जाएंगे
मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूं
हर सपने के पीछे सच्चाई होती है
हर दौर कभी तो खत्म हुआ ही करता है
हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है।
आए हैं जब हम चलकर इतने लाख वर्ष
इसके आगे भी चलकर ही जाएंगे
आएंगे, उजले दिन जरूर आएंगे।
...
(शमशेर स्मृति व्याख्यान का अंतिम अंश)
(इस वक्तव्य को तैयार करने में मैंने कुछ वेबसाइटों, कुछ शोध-अध्ययनों और कुछ किताबों से संदर्भ और आंकड़े लिए हैं। उन सबका आभार। दो किताबों का उल्लेख विशेष रूप से करूंगा। पहली है पत्रकार और मीडिया शोधार्थी अखिल रंजन की पुस्तक- ‘फेक न्यूज, मीडिया और लोकतंत्र’। इसी साल आई है। दूसरी किताब है पत्रकार साथी हरजिंदर की- ‘चुनाव के छल-प्रपंच- मतदाताओं की सोच बदलने का कारोबार’। दोनों नवारुण प्रकाशन से आई हैं। मैं चाहूंगा कि आप इन किताबों को अवश्य पढ़ें। मीडिया साक्षरता की दिशा में पहला कदम बन सकती हैं।)
-अल्मोड़ा, 22 सितम्बर, 202
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