Tuesday, September 30, 2025

सघन जन सम्पर्क और सड़कों पर उतरे बिना रास्ता नहीं

खैर, उत्तराखण्ड में आज भी सार्थक परिवर्तन की दिशा में काम करने वाली ताकतें सक्रिय हैं। कम और बिखरी-बिखरी ही सही, लेकिन हैं। वे भी सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं। सड़क से ज़्यादा सोशल मीडिया पर। नए जमाने में यह स्वाभाविक भी है।

लेकिन जरा यह बताइए कि उत्तराखण्ड लोकवाहिनी के वाट्सऐप ग्रुप में कितने सदस्य हैं- 134। परिवर्तन पार्टी के कितने सदस्य सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं- 224 । हेलंग आंदोलन के समय भी एक ग्रुप बना था। उसमें 108 सदस्य हैं। जन हस्तक्षेप ग्रुप में 17 सदस्य है। नैनीताल समाचार के तीन ग्रुपों में करीब ढाई- तीन सौ लोग हैं। वाम दलों के भी कुछ ग्रुप हैं। सब मिलाकर हजार-डेढ़ हजार से अधिक सदस्य होंगे क्या? बहुत सारे लोग तो सभी ग्रुपों में कॉमन हैं। चलिए, सब मिलाकर पांच हजार मान लेते हैं। तो?

तो साथियो, अब बताइए, क्या इससे अंकिता भण्डारी या जगदीश की हत्या, अवैध खनन, जन संसाधनों की लूट, नफरती एजेंडे, आदि-आदि के विरुद्ध हम जनता को जाग्रत कर सकते हैं? अगर हम यह सोचते हैं कि हम भी अपने फेसबुक और वाट्सऐप ग्रुप बनाकर प्रभावशाली प्रतिरोध का झण्डा उठाए हुए हैं तो यह बच्चे को बहलाने के झुनझुने से अधिक नहीं है। 

यह नहीं कह रहा हूं कि यह निरर्थक है और नहीं करना चाहिए। जरूर करना चाहिए। एक छोटा सा दिया ही सही, अवश्य जलाते रहना चाहिए लेकिन जितना अंधकार है, जैसा तूफान है, जो झंझावात है, उसकी विध्वंसक ताकत को अच्छी तरह पहचानना और उससे भिड़ने के रास्ते तलाशते रहना होगा।

दोस्तो, शमशेर के समय में और उससे पहले यह हाहाकारी संकट नहीं था। तब सूचनाएं पाना कठिन था लेकिन झूठी-नफरती सूचनाओं की बमबर्षा नहीं होती थी। यथासम्भव तथ्यपरक सूचनाओं के स्रोत थे। अखबार थे और दबावों के बावजूद सच भी लिख ही देते थे। टी वी इतना एकतरफा नहीं था। सरकार को आईना दिखाने वाले पत्रकार काफी संख्या में मौजूद थे।

शमशेर नियमित रूप से बीबीसी सुनते थे। दिनमान पढ़ते थे। जो भी अखबार उपलब्ध होते थे, पढ़ते थे। किताबें पढ़ते थे। बाद में लिखने भी लगे। पहाड़ की पूरी और सच्ची तस्वीर नहीं छपती थी तो प्रतिकार करते हुए लिखते थे। जगह-जगह दौरा करके, पीड़ित जनता से मिलकर, प्रशासन से सवाल पूछकर असली तस्वीर सामने लाते थे।

मुझे याद है, आप में से बहुतों को याद होगा, कई पुराने साथी यहां बैठे हैं, 1977 में जब तवाघाट में भारी वर्षा और भूस्खलन से खेला, पलपला, कौलिया, वगैरह गांव में जबर्दस्त तबाही मची थी तो शमशेर और उनके कई साथियों की टीम तत्काल वहां गई और कई दिन तक डटी रही थी। पीड़ित परिवारों के पुनर्वास के लिए कई दिन आंदोलन चला था। 1978 में उत्तरकाशी में भागीरथी की भयावह बाढ़ के समय गिर्दा और शमशेर अपनी जान पर खेलकर वहां पहुंचे थे जहां तक सरकार और प्रशासन भी नहीं पहुंच सके। नए शोधार्थी और पत्रकार नैनीताल समाचार की फाइलों को वह सब देख-पढ़ और सीख सकते हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं।

कहना मैं यह चाहता हूं कि यदि आज हमारी पत्रकारिता जिम्मेदार होती, उतनी न सही, कुछ कम भी जिम्मेदार होती, पूरी तरह चारण और बिकी हुई नहीं होती, तो भी शायद जनता, युवा पीढ़ी सोशल मीडिया के झूठ, एकतरफा और नफरती एजेण्डे की कैद से कुछ बची रह सकती थी। कहीं से तो उसे थोड़ी रोशनी मिल रही होती। पत्रकारिता में कुछ तो होता जो युवा वर्ग का विवेक जगाता, उसकी संवेदना को झिंझोड़ता, कुछ आक्रोश भरता। तो भी शायद हम इतने बुरे दौर से, इतनी चुप्पी से नहीं गुजर रहे होते।

पत्रकारिता की क्या तस्वीर आपके सामने पेश करूं! मैंने 38 वर्षों तक प्रांतीय और राष्ट्रीय अखबारों में नौकरी की और यथासम्भव पत्रकारिता की। आज मैं अपना परिचय पत्रकार के रूप में नहीं देता। शर्म आती है। पत्रकारों की ऐसी छवि बन गई है।

कुछ दिन पहले विख्यात पत्रकार पी सांईनाथ का एक व्याख्यान सुना। उनकी स्थापना है कि मीडिया और पत्रकारिता अब बिल्कुल अलग-अलग चीजें हैं। मीडिया कॉरपोरेट धंधा है जो शुद्ध मुनाफे के लिए चलाया जाता है। पत्रकारिता वह है जो हम अपनी रोजी-रोटी के लिए कुछ जिम्मेदारी के साथ करते हैं।

सांईनाथ एक और सत्य कहते हैं- फ्रीडम ऑफ प्रेसजैसी कोई चीज नहीं रही। जो है, वह फ्रीडम ऑफ पर्सहै। बटुए से सब कुछ खरीदा जा रहा है- मीडिया भी और पत्रकारिता भी। पत्रकारिता की शुरूआत में हमें एक कहावत बताई जाती थी- सत्य का मुंह स्वर्णपात्र से ढका है।अब स्वर्ण पात्र इतना विशाल है कि सत्य पता नहीं किस कोने में है!

दोस्तो, मैंने दो साल पहले नैनीताल में पर्वतीयअखबार के सम्पादक विश्वम्भर दत्त उनियाल जी की स्मृति में हुए समारोह में मीडिया की कमाई का एक फॉर्मूला बताया था। नम्बर एक अखबार या चैनल को कुल विज्ञापनों का 60 फीसदी मिलता है। नम्बर दो को बीस फीसदी और बाकी बीस फीसदी में बाकी सब निपटते थे। अब यह फॉर्मूला फेल हो गया है।

अब कोई गणित नहीं है। अब बकौल पी सांईनाथ फ्रीडम ऑफ पर्स है। कोई कितना बिक सकता है, कोई कितना लेट सकता है, कोई कितना बड़ा झूठा अभियान चला सकता है, कोई कितना बड़ा मुंह खोल सकता है। यही फॉर्मूला चल रहा है।

इसी खुले मुंह में रोज प्रधानमंत्री कार्यालय से और मुख्यमंत्री कार्यालयों से एक सूची ठूंसी जाती है। उस सूची में होता है कि क्या-क्या छापना-दिखाना है, पहले पेज पर क्या होगा, प्राइम टाइम पर क्या होगा? कितना बड़ा छापना-दिखाना है, क्या नहीं छापना-दिखाना है। मुंह में इतना माल ठूंसा जाता है कि कोई इनकार नहीं कर सकता। इनकार करने वाले के लिए ईडी है, सीबीआई है। लोकल पुलिस भी काफी है।

अभी कुछ दिन पहले द वायरके सम्पादक सिद्धार्थ वर्दराजन और करण थापर पर सुदूर असम में दर्जनों एफआईआर दर्ज़ की गई हैं। पुण्य प्रसून बाजपेई, अभिसार शर्मा और रवीश कुमार को नौकरी से निकाला गया या उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। वरिष्ठ पत्रकार परंजय गुहा ठाकुरता गौतम अडानी समूह की वित्तीय अनियमिततओं पर लिखते-बोलते रहे हैं। उनके खिलाफ मुकदमों की सुनवाई एकतरफा ही हो रही हैं। कई और उदाहरण मिल जाएंगे। 

अखबार और टीवी चैनलों का मुंह सरकार किस तरह भरती है, सुनिए। संसद में खुद सरकार ने एक सवाल के जवाब में बताया है कि 2017 से 2022 के बीच सरकार ने मीडिया को कुल 33 करोड़ पांच लाख रु के विज्ञापन दिए। इनमें 17 करोड़ 36 लाख प्रिंट को और 15 करोड़ 69 लाख टीवी चैनलों को मिले। 

आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि तीन साल पहले तक देश में पंजीकृत पत्र-पत्रिकाओं की संख्या डेढ़ लाख थी। प्राइवेट चैनलों की संख्या 900 थी। दूरदर्शन स्वयं 36 सैटेलाइट चैनल और 100 फ्री टु एयर डी टी एच चैनल चलाता है।

फ्रीडम ऑफ पर्सके अलावा एक और बड़ा खतरा पत्रकारिता के लिए पिछले दस-पंद्रह वर्षों में खड़ा हो गया है।

वह है मीडिया संकेंद्रण’- मीडिया पर चंद हाथों का कब्जा। सुनिए-

भारत में पहला प्राइवेट टीवी चैनल शुरू करने वाले जीटीवी के सुभाष चंद्रा 2024 में आठ भाषाओं में 15 चैनल चला रहे थे।

सन टीवी वाले कलानिधि मारन, करुणाकरण के पोते, दस से ज़्यादा चैनल चलाते हैं।

मुकेश अम्बानी का नेटवर्क-18 26 राज्यों में 20 से ज़्यादा समाचार चैनल चलाता है।

तो, अकेले 60 फीसदी से अधिक मीडिया पर मुकेश अम्बानी का कब्जा है।

अखबारों का हाल सुनिए।

टाइम्स ऑफ इण्डिया ग्रुप, हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप और द हिंदू ग्रुप के अखबार 75 फीसदी पाठक पढ़ते हैं।

दैनिक जागरण, अमर उजाला, दैनिक भास्कर और हिंदुस्तान अखबारों को 76 फीसदी पाठक पढ़ते हैं। कुल हिंदी पाठकों के 25 फीसदी तक अकेले दैनिक जागरण की पहुंच है।

दक्षिण भारत में ईनाडु और साक्षी अखबारों को 71 फीसदी तेलुगु पाठक पढ़ते हैं।

एक और बात। ये सभी मीडिया कम्पनियां सिर्फ चैनल और अखबार ही नहीं चला रहीं, वे डिजिटल संस्करण, एफ एम चैनल, ऑनलाइन न्यूज पोर्टल, वीडियो न्यूज, फैशन चैनल और ओटीटी वगैरह पर भी काबिज हैं। इसी अनुपात में मुनाफे पर भी उनका कब्जा है।

यही मीडिया संकेंद्रण है। यह बहुत खतरनाक है। लगभग एक ही तरह के विचार-समाचार हममें से अधिकतर पाठकों-श्रोताओं के दिमाग में भरे जा रहे हैं। दूसरा पक्ष, वैकल्पिक विचार, अन्य विविध समाचार, उन पर अलग-अलग राय अधिकसंख्य लोगों तक नहीं पहुंच पाती।

ब्रिटेन में एक कानून है- कोई बड़ा अखबार टी वी न्यूज चैनल नहीं चला सकता। अमेरिका में कानून था कि एक व्यक्ति या कम्पनी एक क्षेत्र विशेष में अखबार, टीवी या रेडियो में से किसी एक ही माध्यम का संचालन कर सकता है। ट्रम्प ने इसे बहुत लचीला बना दिया है। वहां भी अब मीडिया चंद बड़े घरानों के हाथ में है। कुछ अन्य देशों में भी ऐसे नियम हैं। भारत में मीडिया मालिक पूरी तरह निरंकुश हैं।

पत्रकारिता को पहले ओपीनियन मेकर कहा जाता था। सारे पक्ष जनता के सामने रख दिए जाते थे ताकि वह अपनी राय बना सके। अब मीडिया ओपीनियन थोपरहै, एक ही राय थोपता है। राय बनाने का विकल्प नहीं देता।

एक ही बात, एक ही तरह के विचार सुनते-सुनते हम उसे ही मानने लग जाते हैं। उसका परीक्षण करने का, उस पर सोचने का हमारा विवेक छिन जाता है।

मार्शल मैक्लुहन नाम के एक विख्यात मीडिया अध्येता हैं। उन्होंने इस प्रवृत्ति के खतरों का गहन अध्ययन किया है। उनकी एक किताब है- “मीडियम इज द मैसेज। उन्होंने इस प्रवृत्ति को नार्सिस नार्कोसिस नाम दिया है। यानी मीडिया, विशेष रूप से सोशल मीडिया हमारी चेतना को सम्मोहित कर लेता है। सुन्न कर देता है। देश दुनिया में क्या-क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है, क्या गलत हो रहा है, यह सब हमें पता ही नहीं चल पाता। या, देख-सुनकर भी वह हमारे दिल-दिमाग को स्पर्श नहीं करता।

इंटरनेट एक्टिविस्ट एली पेरियर इसे फिल्टर बबलकहते हैं। इसी नाम से उनकी किताब भी है। यानी हम सोशल मीडिया के बनाए हुए एक अदृश्य गुब्बारे के भीतर कैद रहते हैं। अपना ही मनचाहा देखते-सोचते हैं। सोशल मीडिया का एल्गोरिदम यानी बुनावट ऐसी है कि हम जो पसंद करते हैं, वही वह बार-बार दिखाता-सुनाता है। इस तरह हम समाज हो रहे परिवर्तनों, दूसरी हलचलों, आदि से लगभग अछूते रह जाते हैं। इसे ईको चैम्बर भी कहा गया है। एक ऐसा कमरा जहां एक जैसी अनुगूंज हमेशा बनी रहती है। 

ऐसे में हमें न अंकिता भण्डारी की हत्या परेशान करती है, न झूठ और नफरत का खेल, न अन्याय-उत्पीड़न, न विकास योजनाओं के पीछे छुपा विनाश। और, अगर कहीं थोड़ा-बहुत प्रभावित करता भी है तो हम सोशल मीडिया पर ही एक पोस्ट, या कोई इमोजी, वगैरह लगाकर सोचते हैं कि हमने अपनी जिम्मेदारी निभा दी।

जैसे किसी की मृत्यु की सूचना पर लिख देते हैं रिप’- आर आई पी!

तो साथियो, जब 60-70 प्रतिशत आबादी, विशेष रूप से युवा वर्ग अपने-अपने फिल्टर बबल और ईको चैम्बर में कैद है तो हम कैसे उम्मीद करें कि हमारे छोटे-छोटे प्रतिरोधी ग्रुपों की राय कोई सुन रहा होगा। जमीनी पत्रकारिता कर रहे कुछ युवाओं की निष्पक्ष और जनपक्षीय रिपोर्टिंग देख-सुनकर लोग प्रभावित होंगे और जागेंगे? कैसे आशा करें कि हमारी प्रेस विज्ञप्तियां अखबारों के किसी कोने में छप भी गईं तो उन्हें कोई पढ़ेगा और सक्रिय होगा?

अभी थराली हादसे के समय जब राहुल कोठियाल, हृदयेश जोशी जैसे पत्रकार जोखिम उठाकर सच देखने-दिखाने गए तो उनके वीडियो को एकतरफा, सरकार विरोधी, आदि-आदि ठहराने वाले कई वीडियो सामने आ गए। उनके हिट्स की संख्या देख लीजिए, उन पर कमेण्ट पढ़ लीजिए, सोशल मीडिया की ताकत का पता चल जाएगा। अखबारों का भी कमोबेश वैसा ही स्वर है।

तो दोस्तो, इस निराशाजनक हालात में स्वाभाविक सवाल है कि क्या करें। रास्ता नहीं सूझता। निराशा घर कर रही है। पुराने एक्टिविस्ट साथी हताश और अकेले होते जा रहे हैं। कुछ साथी लगातार सक्रिय भी हैं। सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक जूझ भी रहे हैं।

देश-प्रदेश के कई कोनों में प्रतिरोध की लौ जली हुई है। हाल के वर्षों में शाहीनबाग आंदोलन और किसानों की दिल्ली-घेराबंदी सबसे बड़े प्रतिरोधी जनांदोलन हुए। मीडिया ने उनकी भी उपेक्षा ही की। सोशल मीडिया में उनके खिलाफ कैसा-कैसा घिनौना दुष्प्रचार हुआ, आप जानते हैं।

पिछले ही सप्ताह आपने नैनीताल में अंकिता भण्डारी के मामले में एक प्रदर्शन किया। भागीदारी कम है, लेकिन है। इससे उम्मीद बनी रहती है। ये प्रतिरोध और यत्र-तत्र विरोध-प्रदर्शन हमारी रोशनी हैं।  

एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि जो सोशल मीडिया आज व्यापक स्तर पर उस ओर झुका हुआ है, जब कभी हवा बदलेगी तो वह उतनी ही ताकत से इस ओर झुक आएगा। तब परिवर्तन की लहर इतनी तेज होगी कि आज कल्पना करना मुश्किल है।

तो, छिट-पुट ही सही, प्रतिरोध की लौ जलाए रखनी होगी। लेकिन इतने से ही काम नहीं चलने वाला।

शमशेर के समय को याद कीजिए। वह सघन जन-सम्पर्क का दौर था। गांवों-कस्बों की यात्राओं, सभाओं का दौर था। जनता से सीधे बात होती थी। उसका असर होता था।

नैनीताल में दर्जन भर युवाओं का जुलूस शहर भर को जगाकर वनों की नीलामी रुकवा देता था। बसभीड़ा की छोटी सी सभा तत्काल नशा नहीं रोजगार दोआंदोलन में बदल जाती थी। कई उदाहरण हैं। सब जन सम्पर्क से होता था।

आज यह आसान नहीं रहा। कारण गिना चुका हूं। हमारी बात सुनने वाले कान और दिमाग अपने-अपने फिल्टर बबल और ईको चैम्बर में हैं। वे सम्मोहित हैं। इस सम्मोहन को तोड़ना बिना सघन और निरंतर जन सम्पर्क के नहीं होगा। 

सोशल मीडिया विशेषज्ञ मीडिया साक्षरताका रास्ता सुझाते हैं। सोशल मीडिया में ही उसका कच्चा चिट्ठा खोल डालने के उपकरण छुपे हैं। उस अदृश्य गुब्बारे को फोड़ने का तरीका भी उसी सोशल मीडिया में है, जो इसे फुलाता है।

तो, आज की चंद मुख्य चुनौतियों को संक्षेप में गिनाता हूं- 

1.   जो सबसे जरूरी मुझे लगता है, वह है जनता से, ग्रामीणों से निरंतर सम्पर्क। सघन और निरंतर सम्पर्क। परिवर्तनकामी ताकतों की आज की सबसे बड़ी कमजोरी जनता से कट जाना है। वाम दलों से लेकर जन संगठनों तक का जनाधार सिकुड़ता गया है। तो, जनता से निकट और लगातार सघन सम्पर्क बनाना होगा।

2.   मीडिया साक्षरता को बड़ा अभियान बनाना होगा। यह लम्बी और कठिन लड़ाई है। सम्मोहन का गुब्बारा फूटेगा भी बहुत जल्दी। बस, उसे समझ की सुई चुभाने की जरूरत है। 

3.   शमशेर की पीढ़ी ने, उनके पीछे और बाद की पीढ़ियों ने भी ज्वलंत मुद्दों पर आंदोलन तो किए लेकिन जनता में राजनैतिक चेतना पैदा नहीं कर सके। यानी यह समझ कि हमारे दीर्घकालीन हित में क्या अच्छा है क्या बुरा।

4.   राजनैतिक और वैज्ञानिक चेतना ज़िंदा कौमों के लिए बहुत जरूरी है। यह समझ बनानी और फैलानी बहुत जरूरी है कि मुफ्त का राशन लेना ठीक है या रोजी-रोटी कमाने का पक्का जरिया मांगना। भीख चाहिए या अधिकार?

5.   हमारे संविधान की खूब तारीफ होती है। आज भी हो रही है। सब कहते हैं कि संविधान को बचाना है, लेकिन वास्तव में क्या बचाना है, यह समझ जन-जन तक नहीं पहुंचाई जा सकी। संविधान के मूल्य जीवन में नहीं उतारे जा सके।

6.   और, लोकतंत्र की भी समझ विकसित की जानी है। वास्तव में यह है क्या? यह समझ कि बदलाव लाने की असली ताकत जनता के ही हाथ में है। उसका उपयोग कैसी समझ से किया जाना चाहिए।

7.   और अंतिम बात वह जो मैं वर्षों से कह रहा हूं कि उत्तराखण्ड की परिवर्तनकामी संगठनों, दलों, आदि को एक मंच पर आना ही होगा। आखिर, उत्तराखण्ड लोक वाहिनी और उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी को अलग-अलग चलाए रखने का क्या अर्थ है, इस घोर संकट के समय में।

तो दोस्तो, धन्यवाद। 

आज मैंने बहुत निराशाजनक बातें की हैं। उदासियों और हताशाओं का जिक्र शुरूआत में ही कर दिया था। समापन निराशा से नहीं होना चाहिए। इसलिए एक कविता सुनाना चाहता हूं। गिर्दा का गीत हम सब जगह-जगह गाते हैं- जैंता, एक दिन त आलो उ दिन यो दुनी में। वैसी ही उम्मीद भरी कविता। वीरेनदा यानी वीरेंद्र डंगवाल की।

उजले दिन जरूर

आएंगे, उजले दिन जरूर आएंगे

आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ

है हवा कठिन, हड्डी-हड्डी को ठिठुराती

आकाश उगलता अंधकार फिर एक बार

संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती

होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार

तब कहीं मेघ ये छिन्न-भिन्न हो पाएंगे।

तहखानों से निकले मोटे-मोटे चूहे

जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे

हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें

चीं-ची, चिक-चिक की धूम मचाते घूम रहे

पर डरो नहीं चूहे आखिर चूहे ही हैं

जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएंगे

यह रक्तपात, यह मारकाट जो मची हुई

लोगों के दिल भरमा देने का जरिया है

जो अड़ा हुआ है हमें डराता रस्ते में

लपटें लेता घनघोर आग का दरिया है

सूखे चेहरे बच्चों के उनकी तरल हंसी

हम याद रखेंगे, पार उसे कर जाएंगे

मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूं

हर सपने के पीछे सच्चाई होती है

हर दौर कभी तो खत्म हुआ ही करता है

हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है।

आए हैं जब हम चलकर इतने लाख वर्ष

इसके आगे भी चलकर ही जाएंगे

आएंगे, उजले दिन जरूर आएंगे।

...

 (शमशेर स्मृति व्याख्यान का अंतिम अंश)

(इस वक्तव्य को तैयार करने में मैंने कुछ वेबसाइटों, कुछ शोध-अध्ययनों और कुछ किताबों से संदर्भ और आंकड़े लिए हैं। उन सबका आभार। दो किताबों का उल्लेख विशेष रूप से करूंगा। पहली है पत्रकार और मीडिया शोधार्थी अखिल रंजन की पुस्तक- फेक न्यूज, मीडिया और लोकतंत्र। इसी साल आई है। दूसरी किताब है पत्रकार साथी हरजिंदर की- चुनाव के छल-प्रपंच- मतदाताओं की सोच बदलने का कारोबार। दोनों नवारुण प्रकाशन से आई हैं। मैं चाहूंगा कि आप इन किताबों को अवश्य पढ़ें। मीडिया साक्षरता की दिशा में पहला कदम बन सकती हैं।)

-अल्मोड़ा, 22 सितम्बर, 202

सोशल मीडिया में डूबे दिमागों में चिंगारी नहीं है

मैं आपका ध्यान सीएसडीएस यानी सेण्टर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज और जर्मन संस्था के एस के एक सर्वेक्षण के नतीजों की ओर दिलाना चाहता हूं। यह सर्वेक्षण 2009, 2014 और 2016 में 18 से 25 वर्ष के भारतीय युवाओं के बीच किया गया था। इन युवाओं की मुख्य चिंता बेरोजगारी है। नौकरी की तलाश स्वाभाविक ही बड़ा मुद्दा है। लेकिन आगे सुनिए।

2016 में 79 प्रतिशत भारतीय युवा ईश्वरवादी पाए गए। वे पूजा स्थलों में जाते हैं और धर्म-कर्म में आस्था रखते हैं। 2009 में यह प्रतिशत 52 था। 2009 से 2016 के सात सालों में 13 फीसदी भारतीय युवा ईश्वरवादी हो गए।

गौर कीजिए कि इस उम्र का युवा हमेशा से धर्म-कर्म-ईश्वर-रूढ़ियों आदि का विरोधी बल्कि बगावती होता था। अब हालात बदल गए लगते हैं। सीएसडीएस और लोकनीति का 2024 के चुनावों के समय हुआ सर्वेक्षण भी बताता है कि भारतीय युवा वर्ग में धर्म व ईश्वर के प्रति झुकाव 40 फीसदी बढ़ा है।

और सुनिए। सीएसडीएस और केएस के सर्वे के परिणाम और भी चौंकाते हैं। 18 से 25 वर्ष के 67 प्रतिशत भारतीय युवा लिव-इन रिलेशन को सही नहीं मानते। उत्तराखंड में इस बारे में जो कानून बना है, भला उसका विरोध कौन करता? 40 प्रतिशत युवा वेलेण्टाइन डे के खिलाफ हैं। 41 प्रतिशत युवा मानते हैं कि विवाहित महिलाओं को नौकरी नहीं करनी चाहिए। 51 प्रतिशत युवा मानते हैं कि पत्नी को हमेशा पति की सुननी चाहिए। 27 फीसदी युवकों को पड़ोसी के घर में मांसाहार पकने पर आपत्ति होती है। 60 फीसदी युवा फैशनेबुल कपड़े और महंगे मोबाइल फोन के शौकीन पाए गए। राजनैतिक पार्टी के रूप में अधिकतर की पसंद भाजपा है। 2016 के बाद इसमें बढ़त ही हुई दिखती है।

शमशेर के समय में ऐसे किसी सर्वेक्षण का हमें पता नहीं है लेकिन तब और आज की स्थितियों में अंतर साफ दिखाई देता है।

1970 के दशक में शमशेर निर्माणाधीन डोल बंगले को लूट और ठगी का अड्डाबताते थे। आज के युवाओं की भीड़ डोल आश्रम में भक्ति भाव से शीश नवाती है। आप गोरक्षा दलों की करतूतें देख लीजिए। कांवड़ियों के अराजक हुजूम में युवाओं की भागीदारी देख लीजिए। मंदिरों में युवाओं की कतारें, कलाइयों में कलावा, मोटरसाइकिलों में जय श्रीरामकी झण्डियां, उत्तेजक नारे, वगैरह-वगैरह।

और, यह सिर्फ भारत में नहीं हो रहा। वैश्विक प्रवृत्ति है। जिस हिसाब से विभिन्न देशों में दक्षिणपंथी ताकतें सत्ता में आ गई हैं या सत्ता के करीब पहुंच रही हैं, उससे साबित हो जाता है।

अगस्त 2024 के डाउन टु अर्थपत्रिका के सम्पादकीय में पर्यावरणविद सुनीता नारायण ने लिखा है- “जून 2024 में यूरोपीय संसद के चुनाव में 30 वर्ष से कम उम्र के मतदाताओं ने दक्षिणपंथी पार्टियों को खुलकर अपना समर्थन दिया, जिनमें जर्मनी की अल्ट्रानेटिव फॉर डॉइशलैण्ड, फ्रांस में नेशनल रैली, स्पेन में वॉक्स, इटली में ब्रर्दर्स ऑफ इटली, पुर्तगाल में इनफ, बेल्जियम में व्लाम्स बेलांग, फिनलैंड में फिंस और अन्य प्रमुख पार्टियां रहीं।” सुनीता नारायण की चिंता मुख्य रूप से इस बात पर है कि 2019 में जो झुकाव जलवायु सुधारवादी दलों यानी ग्रीन पार्टियों की ओर था, वह 2024 में दक्षिणपंथी दलों की तरफ चला गया। मैं इसे विश्व भर में युवाओं के जातीय-धार्मिक ध्रुवीकरण की ओर झुकाव के रूप में देखता हूं। अभी चंद रोज पहले जापान के प्रधानमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा। दक्षिणपंथी दल की बढ़त के कारण वे अलपमत में आ गए थे। 

इस ध्रुवीकरण से लोकतंत्र कमजोर हो रहा है। दमन बढ़ रहा है, जनता में भय फैल रहा है और प्रतिरोध की पहल कमजोर पड़ रही है।

आइए, अब यह देखने की कोशिश करते हैं कि हमारे आज के युवा, जिनमें से कई को शमशेर की विरासत को आगे लाना था, बढ़ाना था, वह अपना समय और दिमाग कहां लगा रहे हैं।

अंतराष्ट्रीय स्तर पर हुए कई शोध-अध्ययन यह बताते हैं कि सोशल मीडिया का सर्वाधिक उपयोग युवा कर रहे हैं। फरवरी 2021 में ऑक्सफोर्ड इण्टरनेट इंस्टीट्यूट और एम्सटर्डम यूनिवर्सिटी ने मिलकर एक शोध किया। उसका निष्कर्ष है कि सोशल मीडिया धुर दक्षिणपंथी और कट्टर विचारों के प्रचार-प्रसार का सबसे व्यापक व प्रभावी माध्यम बन गया है। उसमें दूसरे विचार भी होते हैं लेकिन धार्मिक-जातीय नफरत फैलाने, अफवाह उड़ाने, झूठ प्रसारित करने और भावनाओं को भड़काने में वह बहुत आगे है।

सोशल मीडिया के कई लाभों से इनकार नहीं किया जा सकता। एक लाभ तो यही है कि जब हमारी आवाज मुख्य धारा का मीडिया नहीं उठा रहा है तो हम स्वयं अपनी आवाज वहां उठा पा रहे हैं। उसकी पहुंच सीमित कर दी जाती है लेकिन फिर भी बोल तो पा रहे हैं। कई स्वतंत्र चैनल भी वहां पत्रकारिता का झण्डा उठाए हैं। लेकिन इसका सबसे ज़्यादा लाभ संकीर्ण राजनैतिक दल और कॉरपोरेट दुनिया उठा रही है।

चूंकि युवा वर्ग इंटरनेट का सबसे अधिक उपयोग करता है, इसलिए उसका दिमाग और समय अधिकतर इस सर्वव्यापी टेक्नॉलॉजी ने हर लिया है।

कुछ आंकड़ों से अपनी बात साबित करने की कोशिश करता हूं। जरा ध्यान देंगे।

सन 2007 में पहला स्मार्ट फोन बना। सामान्य नहीं, स्मार्ट फोन यानी जिसमें आप इण्टरनेट से कहीं भी जुड़ सकते हैं।

2009 में स्मार्ट फोन की पहली खेप भारत आई- 25 लाख फोन सेट।

उसके दो साल बाद यानी 2011 में एक करोड़ 20 लाख स्मार्ट फोन भारत आए।

2010 में भारत की आधी आबादी 25 वर्ष से कम की थी। दो-तिहाई आबादी 35 वर्ष से कम की थी।

गौर कीजिए कि इसी बीच 2006 में फेसबुक, उसी साल ट्विटर, 2008 में यूट्यूब और 2009 में व्हाट्सऐप भारत पहुंचकर युवाओं का क्रेज बन चुके थे।

2014 में जब लोक सभा चुनाव हो रहे थे, उस समय करीब 19 करोड़ स्मार्ट फोन हम भारतवासियों के हाथ का खिलौना बने हुए थे। तब फेसबुक इस्तेमाल करने वाले भारतीयों की संख्या नौ करोड़ 30 लाख थी। वह असल में हमारे दिमाग से खेलने लगा था।

उस चुनाव में 543 सीटों में से 160 सीटों के नतीजे फेसबुक, वाट्सऐप जैसे माध्यम तय करने की स्थिति में थे। यह निष्कर्ष इंटरनेट एंड मोबाइल फाउण्डेशन ऑफ इण्डिया और आयरिश नॉलेज फाउंडेशन के साझा अध्ययन का है।

सोशल मीडिया की महामारी कितनी तेजी से फैलती गई, यह जानना और भी चौंकाने वाला है।

मैंने बताया कि 2014 में भारत के फेसबुक यूजर्स नौ करोड़ 30 लाख थे। 2015 में ये 25 करोड़ हो गए। 2016 में तीस करोड़ हो गए।

2016 वह साल था जब मोबाइल डेटा इस्तेमाल करने वाला भारत पहले नम्बर का देश बन गया था। उस साल नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने ट्वीट किया था कि अमेरिका और चीन में मिलाकर जितना मोबाइल डेटा इस्तेमाल होता है, उससे अधिक भारत में होने लगा है। एक अरब 50 करोड़ गीगाबाइट! 

2017 में जब अम्बानी का जियो धूम मचाने लगा था, भारत में 40 करोड़ से अधिक हाथों में स्मार्ट फोन था। 2019 के चुनाव के समय यह संख्या बढ़कर 62 करोड़ के पार पहुंच गई थी।

यानी 2019 में भारत के आधे से अधिक वयस्कों के पास स्मार्ट फोन था, जिन्हें मताधिकार हासिल था। जाहिर है वे मोबाइल डेटा का इस्तेमाल कर रहे थे। और, यह इंटरनेट डेटा सबसे ज़्यादा किस चीज में इस्तेमाल हो रहा था, यह जिक्र पहले कर चुका हूं।

एक उल्लेख और कर दूं कि राजनैतिक दल के रूप में भारत में स्मार्ट फोन, मोबाइल डेटा और सोशल मीडिया का इस्तेमाल सबसे पहले और सबसे अधिक भाजपा ने किया। 2012-13 से जब नरेंद्र मोदी के नाम से नमो ऐपका खूब प्रचार किया जा रहा था और मनमोहन सिंह को नाकारा मौनी बाबा प्रचारित किया जा रहा था, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सोशल मीडिया पर अपना अकाउंट बनाने की सलाह ठुकरा दी थी। उन्होंने कहा था कि इस पर कोई सरकारी धन खर्च नहीं किया जाएगा।

मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस आज भी सोशल मीडिया के राजनैतिक इस्तेमाल में भाजपा के सामने कहीं नहीं ठहरता। अगर मैं भाजपा के आई टी सेल की बात करने लगूंगा तो बहुत लम्बा हो जाएगा। इतना ही कह देता हूं कि वह किसी बहुत बड़ी कॉरपोरेट कम्पनी की तरह काम करता है जिसमें हजारों-लाखों युवा बकायदा वेतन पाने वाली स्थाई या अस्थाई नौकरियां करते हैं। मुफ्त के फॉरवडिए तो बहुतेरे हैं। 

खैर, स्टैटिस्टा डॉट कॉम के अनुसार फरवरी 2025 में फेसबुक पर 38 करोड़ 35 लाख भारतीय थे। दूसरे नम्बर पर अमेरिका में इसके आधे, 19 करोड़ 65 लाख थे।

यूट्यूब पर 2025 की फरवरी में 49 करोड़ 10 लाख भारतीय थे। दूसरे नम्बर पर अमेरिका है, 25 करोड़ 30 लाख।

युवाओं का सबसे पसंदीदा सोशल मीडिया आज इंस्टाग्राम है। जिसमें आप मुख्यत: रील्स देखते हैं, जिन्हें बनाने में अक्सर युवाओं की जान भी चली जाती है। उसमें भी भारतीय युवा सबसे आगे हैं।

आंकड़े सुना-सुनाकर अब आपको बोर नहीं करूंगा। बताना तो मैं यह भी चाहता था कि इन माध्यमों पर कैसी जहरीली, भड़काऊ और झूठी सामग्री परोसी जाती है और उसके पीछे कैसे दिमाग काम करते हैं। लेकिन उसे छोड़ देता हूं।

मैं आपका ध्यान इस ओर दिलाना चाहता हूं कि आज के युवाओं का दिल-दिमाग और समय कहां और किन बातों में उलझा हुआ है या उलझाया जा रहा है।

जिनसे हम अपेक्षा करते हैं कि वे अपने परिवार से लेकर समाज तक में व्याप्त रूढ़ियों, धर्मांधता, अन्याय, उत्पीड़न, साजिशों और तरह-तरह की लूट के विरोध में खड़े होंगे, सड़कों पर उतरेंगे– जैसे शमशेर की पीढ़ी कर रही थी, वे आज इसी सब में लगे हैं। उनका दिमाग सोशल मीडिया में डूबा है। उनके दिल में किसी किस्म की चिंगारी नहीं है।

नेपाल का ताज़ा उदाहरण याद कीजिए। महंगाई, बेरोजगारी, राजनैतिक भ्रष्टाचार, आदि-आदि का मारा नेपाली छात्र-युवा तब तक चुप था, जब तक वह सोशल मीडिया में मस्त था या थोड़ी-बहुत भड़ास वहां निकाल पा रहा था। जैसे ही सोशल मीडिया पर रोक लगी, वह उबाल खा गया। फिर जैसी हिंसा मची, वह सबने देखी।

हमने कुछ समय पहले बांग्लादेश और उससे पहले 2022-23 में श्रीलंका में भी जन-उबाल देखा। वह उबाल ही थे, किसी सार्थक दिशा में जाते हुए जन आंदोलन नहीं थे।

लेकिन इनसे हमारी यही बात साबित होती है कि किसी भी बड़े परिवर्तन की लड़ाई में युवाओं की भूमिका मुख्य होगी। वह दिशाहीन होगी या किसी सार्थक दिशा की ओर, यह स्थितियां बताएंगी। आज हम कह सकते हैं कि 1994 का उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन भी एक दिशाहीन उबाल ही था।

हां, यह उबाल मदांध सत्ताधीशों के लिए चेतावनियां भी हैं। इन्हें रचनात्मक दिशा और वैचारिक नेतृत्व की जरूरत है और हमेशा रहेगी।   

(22 सितम्बर 2025 को अल्मोड़ा में दिए गए शमशेर स्मृति व्याख्यान का सम्पादित आलेख दूसरा अंश, अभी जारी।)