Saturday, September 27, 2025

जन आंदोलन की स्थितियां तो परिपक्व हैं मगर ...

 आज यहां, अल्मोड़ा के इस मंच पर खड़े हुए मन उदास है। कारण कई हैं जिनमें मुख्य है देश दुनिया के हालात।

अल्मोड़ा आना, बल्कि यहां से गुजरना भी ताकत देता था। मैं अपने भीतर ऊर्जा का भण्डार भरकर लौटता था। शमशेर के पलटन बाजार वाले कमरे की दरी पर सोते हुए ही नहीं, जागते हुए भी बड़े सपने आते थे। एक उत्तेजना तन-मन में बनी रहती थी। वह 1970 का दशक था।

आज 2025 है। शमशेर अब नहीं हैं। उस दौर में सक्रिय बहुत से साथी चले गए। गिर्दा चले गए। खनी, निर्मल, खष्टी, बालम कितने ही और साथी। उस दौर के जो साथी बचे हैं, वे बूढ़े हो रहे हैं। उनमें भी उदासी और निराशा घर करने लगी है।

किशोरावस्था और युवावस्था में लगभग सभी युवा विद्रोही होते हैं। वे अपने परिवार और समाज में व्यापत रूढ़ियों का विरोध करते हैं। भेदभाव, शोषण, अन्याय-उत्पीड़न देखकर उनका मन विद्रोह करता है। समाज को बेहतर बनाने की ललक उनमें जागती है। वे आवाज उठाते हैं। एकजुट होते हैं और व्यवस्था से भिड़ जाते हैं।

बहुत बार यह चेतना धीरे-धीरे लुप्त हो जाती है। उम्र के साथ बहुत से युवा उसी व्यवस्था का हिस्सा बन जाते हैं। कई बार उस चेतना को बाहरी प्रेरक तत्व मिलते हैं। उसे दिशा मिलने लगती है। धार मिलती है। उन्हें अपनी तरह सोचने वालों का साथ मिलता है। चेतना को विकसित करने वाला साहित्य मिलता है। इस तरह एक धारा बनती जाती है। बढ़ती है। लहरें पैदा करती है। उम्मीद पैदा करती है।

शमशेर और उस समय के बहुत सारे साथी उत्तराखण्ड और देश को बेहतर बनाने का सपना लेकर लड़ रहे थे। वे सवाल पूछते थे और जवाब तलाशते थे। जवाब पाने के लिए सड़क पर उतरते थे।

सवाल उठाते हुए ही पर्वतीय युवा मोर्चा बना। वह एक शुरुआत थी जो बढ़ते-फैलते उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी तक पहुंची। वाहिनी ने कई शानदार लड़ाइयां लड़ीं। बड़ी उम्मीदें जगाईं। कई सफलताएं हासिल कीं। यह दौर कुछ लम्बा चला। फिर अनेक कारणों से बिखर गया। कारण बाहरी थे और भीतरी भी।

उस दौर का आज हमारे पास बचा क्या है?

साथी क्षमा करेंगे, शमशेर की विरासत के नाम पर नाम भर को उत्तराखण्ड लोकवाहिनी है। पी सी (तिवारी) जिस उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी से कुछ लहरें पैदा करने में जुटे हुए हैं, उसे उसी विरासत का हिस्सा कहूंगा। उत्तराखण्ड क्रांति दल को भी उसी विरासत से जोड़ लें तो उसका हाल किसी से छुपा नहीं है। उस विरासत के कुछ हिस्सेदार आज सत्तारूढ़ भाजपा में मौज कर रहे हैं तो कुछ विपक्षी कांग्रेस में। बहुत से साथी जो बदलाव के लिए लड़ते थे, आज जड़ता के प्रतीक बने हुए हैं। वे वही कर रहे हैं, जिसके विरुद्ध कभी लड़ते थे। 

मैं बहुत भावुक प्राणी हूं। 1970 के दशक की उस शानदार लहर के इस बिखराव पर मैंने बहुत विलाप किया है। अपने उपन्यासों में बहुत दुख, निराशा और आक्रोश के साथ लिखा है। मन में अब भी बहुत क्लेश है लेकिन अब तनिक यह समझने लगा हूं कि समाज के समुद्र में ऐसी लहरें उठती-गिरती रहती हैं। इतिहास साक्षी है।

इसी अल्मोड़ा में, इसी उत्तराखण्ड में और देश के दूसरे कई कोनों में परिवर्तनकामी आकांक्षाएं हिलोरें लेतीं, उम्मीदें जगाती और बिखरकर इतिहास बन जाती रही हैं। उत्तरखण्ड संघर्ष वाहिनी का सफर जिस गति को प्राप्त हुआ, वह अपवाद नहीं है। उसे बिला या बिखर जाना था लेकिन अपने बीज इस धरती पर छोड़ जाने थे। वे बीज अंकुरण की प्रतीक्षा कर रहे हैं। मेरी तरह बहुतों को लगता है कि बीजों के अंकुरण के लिए मुफीद खाद-पानी तैयार है। गिर्दा अपने अंतिम दिनों में कहता था कि उत्तराखंड के गर्भ में एक बड़ा आंदोलन खुदबुदा रहा है। जन आंदोलन के बीजों के अंकुराने की उम्मीद हमारी उदासी व हताशा को कम करती है। इंतज़ार बेचैनी बढ़ाता है।

समाज और हालात को गौर से देखने पर समझ में आता है कि फिलहाल तो मिट्टी की तासीर ही बिगड़ी हुई है। बीज अच्छे हैं। उन्हें उगना है लेकिन अभी मिट्टी की सेहत विपरीत है। बहुत सारी चुनौतियां हैं।

आज शमशेर की स्मृति के बहाने आपके सामने मैं उस मिट्टी की थोड़ी-बहुत जांच करना चाहता हूं। आइए, देखते हैं कि आंदोलन या परिवर्तन के बीज कैसी मिट्टी में पड़े हुए हैं।

मैंने शुरूआत में कहा था कि किशोरावस्था-युवावस्था में हर कोई बगावती तेवरों वाला होता है। हर अन्याय, उत्पीड़न, कट्टरता, भेदभाव और रूढ़ियों का वह स्वाभाविक विरोधी होता है। उसमें सब कुछ सही कर देने का जोश उमड़ता है। शमशेर के समय को याद कीजिए। अमेरिकी छात्रों ने वियतनाम युद्ध का कैसा जोरदार विरोध किया था, जब एजेंट ऑरेंजनाम के घातक रसायनिक हमले से वियतनाम को बर्बाद किया जा रहा था। उस आंदोलन के कारण अमेरिका को अपनी फौजें वापस बुलानी पड़ी थीं। बर्मा में, जिसे आज म्यांमार कहा जाता है, तानाशाह नेविन की सरकार को छात्रों-युवाओं के आंदोलन ने गिरा दिया था। उससे चंद वर्ष पहले यूरोप में छात्रों-युवाओं का आंदोलन आज भी याद किया जाता है। 

ऐसे कई उदाहरण हैं। अपने देश में ही गुजरात-बिहार से शुरू हुए छात्र-युवा आंदोलन ने देश भर में कैसी अभूतपूर्व लहर पैदा की थी! आपको सब पता है। शमशेर और साथियों को उस दौर ने बहुत आंदोलित, सक्रिय और संगठित किया था।

लेकिन आज दुनिया भर का युवा क्या कर रहा है। अमेरिका का युवा? यूरोप का युवा? हमारे देश का युवा? हमारे उत्तराखण्ड के शमशेर आज क्या कर रहे हैं?

इसरायल ने फलस्तीन में लम्बे समय से तबाही मचा रखी है। वह फलस्तीन का वजूद ही मिटा देने पर उतारू है। घरों-दफ्तरों को छोड़ दीजिए, स्कूलों-अस्पतालों और राहत शिविरों को भी मिसायलों से उड़ा दिया जा रहा है। दफनाने का इंतजार करती नन्हे बच्चों की लाशों, खाली कटोरे लिए भूख से बिलबिलाते फलस्तीनियों और घायल शिशुओं को गोद में लिए लाचार पिताओं की तस्वीरें क्या युवाओं को विचलित कर रही हैं? पानी के लिए महिलाएं लम्बी कतारों में लगी हैं। लोग खाली कटोरे और सूखे चेहरे लिए हुए खाने की तलाश में भटक रहे हैं। भोजन और दवाइयां पहुंचाने वाले अंतराष्ट्रीय दलों व पत्रकारों को भी गोली मार देने की खबरें क्या किसी का खून खौला रही हैं?

यह 2025 का विश्व है। यूक्रेन में रूस की बर्बरता को कितने बरस हो गए? क्या युवाओं की चेतना में यह तथ्य दर्ज़ हो रहा है? कीव की एक युवती ऐतिहासिक और दुर्लभ सामग्री वाले पुस्तकालय को बमों से बचाने के लिए महीनों से जूझ रही है। गुहार लगा रही है। क्या दुनिया के किसी कोने के शमशेर सुन रहे हैं? कहीं कोई विचलित हो रहे हैं? इसरायल में अवश्य नेत्यनाहू के खिलाफ कुछ प्रदर्शन हुए लेकिन न रूस के युवा सड़क पर उतर रहे हैं, न अमेरिका के, न यूरोप के। यूरोप के कुछ देशों के नेता विचलित जरूर हुए हैं लेकिन इन विनाशक युद्धों के खिलाफ युवाओं की सक्रिय भागीदारी नहीं दिखाई दे रही।

अपने देश में आइए। मणिपुर कितना जला? कितनी लाशें गिरीं? जुलाई 2023 की एक ग्राउण्ड रिपोर्ट है- मणिपुर हिंसा के पहले दो महीनों में 120 से अधिक गांव, 3500 मकान, 220 चर्च और 15 मंदिर जला दिए गए थे। मौतों की संख्या सैकड़ों में है। मणिपुर की महिलाओं को निर्वस्त्र होकर विरोध में सड़कों पर उतरना पड़ा। सत्ता को शर्म नहीं आनी थी, नहीं आई। लेकिन बाकी देश? और युवाओं की विशाल आबादी क्या कर रही थी?

देश भर में नफरत का बकायदा एजेण्डा चलाया जा रहा है। गोहत्या रोकने के नाम पर भीड़-हत्या की खुली छूट मिली हुई है। पूरा मुसलमान समुदाय निशाने पर है। मस्जिदों के नीचे मंदिर होने के सपने आ रहे हैं और अदालतें सर्वेक्षण का निर्देश दे रही हैं। सरजील इमाम और उमर खालिद जैसे लड़के और कितने ही लोग बिना सुनवाई जेलों में हैं। किस्से अनंत हैं।

अपने उत्तराखण्ड का हाल आप देख-सुन ही रहे हैं। नफरत की राजनीति की नई प्रयोगशाला यहां स्थापित हो गई है। पुरौला कांड याद होगा। नैनीताल में हाल में क्या हुआ? पौड़ी में दो भिन्न धर्मों वाले परिवार आपसी सहमति के बावजूद अपने बच्चों का ब्याह नहीं कर सके। लम्बी फेहरिश्त है।

मैं यहां यह गिनाने के लिए नहीं खड़ा हुआ हूं। पूछना यह चाह रहा हूं कि यह सब हो रहा है, बढ़ता जा रहा है और चारों ओर लगभग चुप्पी क्यों है? वह बीज अंकुरित क्यों नहीं हो रहा?

अकेले अंकिता भण्डारी की हत्या का मामला उत्तराखंड व्यापी आंदोलन पैदा कर देने के लिए काफी था। इसी अल्मोड़ा के पास एक दलित युवक जगदीश को इसलिए मार डाला गया कि उसने एक सवर्ण युवती से प्रेम विवाह किया था। छिट-पुट विरोध हुए, धरना-प्रदर्शन, वगैरह भी हुए, लेकिन उस बीज में अंकुर फूटे क्या, जो इस मिट्टी में दफ्न है? क्यों नहीं शमशेर के समय की तरह समाज में व्यापक आलोड़न-विलोड़न हुआ?

मैं आपको 1970 के दशक की एक घटना याद दिलाना चाहता हूं। यहीं थोड़ी दूर मनाण में एक पटवारी ने एक लाचार-अकेली भागुली देवी का शोषण किया। जब वह गर्भवती हो गई तो उसे गायब करवा दिया। मनाण के युवक चंद्रशेखर भट्ट और उनके साथियों ने यह मामला उठाया। आवाज अल्मोड़ा-नैनीताल तक पहुंची और एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया। युवा उसमें सर्वाधिक सक्रिय थे। उससे पहले जागेश्वर के मंदिर से पौन राजा की बेशकीमती मूर्ति चोरी कर ली गई थी। उसके लिए जागेश्वर से लेकर पूरे कुमाऊं से दमदार आवाज उठी और लखनऊ होते हुए दिल्ली तक पहुंची। सीबीआई ने वह मूर्ति दिल्ली हवाई अड्डे पर पकड़ ली। उसे विदेश भेजने की तैयारी थी। 

जब भागुली देवी के मामले पर आंदोलन हो रहा था, मैं अपने गांव जा रहा था। मनाण में छात्रों-युवाओं का प्रदर्शन हो रहा था। पर्चे बंट रहे थे। मेरे हाथ में भी बस के भीतर एक पर्चा पकड़ाया गया। उस पर्चे में छपा एक सवाल मुझे आज भी याद है- “हम उत्तराखण्ड के युवा यह पूछना चाहते हैं कि जब एक निर्जीव मूर्ति का पता आनन-फानन लगाया जा सकता है तो एक सजीव मूर्ति को चौबीस घंटे में क्यों तलाश नहीं किया जा सकता?”

यह उत्तराखण्ड के युवा पूछ रहे थे 1970 के दशक में। आंदोलन के दबाव में भागुली देवी का ही नहीं कुछ अन्य अपहृत युवतियों का भी पता चला था। पटवारी पकड़ा गया था।  

आज पूरे उत्तराखण्ड के प्राकृतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक संसाधन ही नहीं, जन-धन और हमारी शानदार विरासत का खुले आम अपहरण हो रहा है। नफरत की भट्ठी जलाई जा रही है। संसाधनों की लूट मची है और युवा चुप हैं। कहीं-कहीं कुछ भुन-भुन होती है। आठ-दस जने धरना देते हैं, एक ज्ञापन तैयार करते हैं और प्रेस विज्ञप्ति भेजते हैं। सोशल मीडिया में फोटो लगाते हैं। मगर यह आवाज घुटी-दबी रह जाती है।

क्यों होगी यह चुप्पी? क्या कारण हो सकते हैं? (क्रमश:‌)

(22 सितम्बर 2025 को अल्मोड़ा में दिए गए शमशेर स्मृति व्याख्यान का सम्पादित आलेख के अंश क्रमश:) 

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