Tuesday, September 30, 2025

सोशल मीडिया में डूबे दिमागों में चिंगारी नहीं है

मैं आपका ध्यान सीएसडीएस यानी सेण्टर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज और जर्मन संस्था के एस के एक सर्वेक्षण के नतीजों की ओर दिलाना चाहता हूं। यह सर्वेक्षण 2009, 2014 और 2016 में 18 से 25 वर्ष के भारतीय युवाओं के बीच किया गया था। इन युवाओं की मुख्य चिंता बेरोजगारी है। नौकरी की तलाश स्वाभाविक ही बड़ा मुद्दा है। लेकिन आगे सुनिए।

2016 में 79 प्रतिशत भारतीय युवा ईश्वरवादी पाए गए। वे पूजा स्थलों में जाते हैं और धर्म-कर्म में आस्था रखते हैं। 2009 में यह प्रतिशत 52 था। 2009 से 2016 के सात सालों में 13 फीसदी भारतीय युवा ईश्वरवादी हो गए।

गौर कीजिए कि इस उम्र का युवा हमेशा से धर्म-कर्म-ईश्वर-रूढ़ियों आदि का विरोधी बल्कि बगावती होता था। अब हालात बदल गए लगते हैं। सीएसडीएस और लोकनीति का 2024 के चुनावों के समय हुआ सर्वेक्षण भी बताता है कि भारतीय युवा वर्ग में धर्म व ईश्वर के प्रति झुकाव 40 फीसदी बढ़ा है।

और सुनिए। सीएसडीएस और केएस के सर्वे के परिणाम और भी चौंकाते हैं। 18 से 25 वर्ष के 67 प्रतिशत भारतीय युवा लिव-इन रिलेशन को सही नहीं मानते। उत्तराखंड में इस बारे में जो कानून बना है, भला उसका विरोध कौन करता? 40 प्रतिशत युवा वेलेण्टाइन डे के खिलाफ हैं। 41 प्रतिशत युवा मानते हैं कि विवाहित महिलाओं को नौकरी नहीं करनी चाहिए। 51 प्रतिशत युवा मानते हैं कि पत्नी को हमेशा पति की सुननी चाहिए। 27 फीसदी युवकों को पड़ोसी के घर में मांसाहार पकने पर आपत्ति होती है। 60 फीसदी युवा फैशनेबुल कपड़े और महंगे मोबाइल फोन के शौकीन पाए गए। राजनैतिक पार्टी के रूप में अधिकतर की पसंद भाजपा है। 2016 के बाद इसमें बढ़त ही हुई दिखती है।

शमशेर के समय में ऐसे किसी सर्वेक्षण का हमें पता नहीं है लेकिन तब और आज की स्थितियों में अंतर साफ दिखाई देता है।

1970 के दशक में शमशेर निर्माणाधीन डोल बंगले को लूट और ठगी का अड्डाबताते थे। आज के युवाओं की भीड़ डोल आश्रम में भक्ति भाव से शीश नवाती है। आप गोरक्षा दलों की करतूतें देख लीजिए। कांवड़ियों के अराजक हुजूम में युवाओं की भागीदारी देख लीजिए। मंदिरों में युवाओं की कतारें, कलाइयों में कलावा, मोटरसाइकिलों में जय श्रीरामकी झण्डियां, उत्तेजक नारे, वगैरह-वगैरह।

और, यह सिर्फ भारत में नहीं हो रहा। वैश्विक प्रवृत्ति है। जिस हिसाब से विभिन्न देशों में दक्षिणपंथी ताकतें सत्ता में आ गई हैं या सत्ता के करीब पहुंच रही हैं, उससे साबित हो जाता है।

अगस्त 2024 के डाउन टु अर्थपत्रिका के सम्पादकीय में पर्यावरणविद सुनीता नारायण ने लिखा है- “जून 2024 में यूरोपीय संसद के चुनाव में 30 वर्ष से कम उम्र के मतदाताओं ने दक्षिणपंथी पार्टियों को खुलकर अपना समर्थन दिया, जिनमें जर्मनी की अल्ट्रानेटिव फॉर डॉइशलैण्ड, फ्रांस में नेशनल रैली, स्पेन में वॉक्स, इटली में ब्रर्दर्स ऑफ इटली, पुर्तगाल में इनफ, बेल्जियम में व्लाम्स बेलांग, फिनलैंड में फिंस और अन्य प्रमुख पार्टियां रहीं।” सुनीता नारायण की चिंता मुख्य रूप से इस बात पर है कि 2019 में जो झुकाव जलवायु सुधारवादी दलों यानी ग्रीन पार्टियों की ओर था, वह 2024 में दक्षिणपंथी दलों की तरफ चला गया। मैं इसे विश्व भर में युवाओं के जातीय-धार्मिक ध्रुवीकरण की ओर झुकाव के रूप में देखता हूं। अभी चंद रोज पहले जापान के प्रधानमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा। दक्षिणपंथी दल की बढ़त के कारण वे अलपमत में आ गए थे। 

इस ध्रुवीकरण से लोकतंत्र कमजोर हो रहा है। दमन बढ़ रहा है, जनता में भय फैल रहा है और प्रतिरोध की पहल कमजोर पड़ रही है।

आइए, अब यह देखने की कोशिश करते हैं कि हमारे आज के युवा, जिनमें से कई को शमशेर की विरासत को आगे लाना था, बढ़ाना था, वह अपना समय और दिमाग कहां लगा रहे हैं।

अंतराष्ट्रीय स्तर पर हुए कई शोध-अध्ययन यह बताते हैं कि सोशल मीडिया का सर्वाधिक उपयोग युवा कर रहे हैं। फरवरी 2021 में ऑक्सफोर्ड इण्टरनेट इंस्टीट्यूट और एम्सटर्डम यूनिवर्सिटी ने मिलकर एक शोध किया। उसका निष्कर्ष है कि सोशल मीडिया धुर दक्षिणपंथी और कट्टर विचारों के प्रचार-प्रसार का सबसे व्यापक व प्रभावी माध्यम बन गया है। उसमें दूसरे विचार भी होते हैं लेकिन धार्मिक-जातीय नफरत फैलाने, अफवाह उड़ाने, झूठ प्रसारित करने और भावनाओं को भड़काने में वह बहुत आगे है।

सोशल मीडिया के कई लाभों से इनकार नहीं किया जा सकता। एक लाभ तो यही है कि जब हमारी आवाज मुख्य धारा का मीडिया नहीं उठा रहा है तो हम स्वयं अपनी आवाज वहां उठा पा रहे हैं। उसकी पहुंच सीमित कर दी जाती है लेकिन फिर भी बोल तो पा रहे हैं। कई स्वतंत्र चैनल भी वहां पत्रकारिता का झण्डा उठाए हैं। लेकिन इसका सबसे ज़्यादा लाभ संकीर्ण राजनैतिक दल और कॉरपोरेट दुनिया उठा रही है।

चूंकि युवा वर्ग इंटरनेट का सबसे अधिक उपयोग करता है, इसलिए उसका दिमाग और समय अधिकतर इस सर्वव्यापी टेक्नॉलॉजी ने हर लिया है।

कुछ आंकड़ों से अपनी बात साबित करने की कोशिश करता हूं। जरा ध्यान देंगे।

सन 2007 में पहला स्मार्ट फोन बना। सामान्य नहीं, स्मार्ट फोन यानी जिसमें आप इण्टरनेट से कहीं भी जुड़ सकते हैं।

2009 में स्मार्ट फोन की पहली खेप भारत आई- 25 लाख फोन सेट।

उसके दो साल बाद यानी 2011 में एक करोड़ 20 लाख स्मार्ट फोन भारत आए।

2010 में भारत की आधी आबादी 25 वर्ष से कम की थी। दो-तिहाई आबादी 35 वर्ष से कम की थी।

गौर कीजिए कि इसी बीच 2006 में फेसबुक, उसी साल ट्विटर, 2008 में यूट्यूब और 2009 में व्हाट्सऐप भारत पहुंचकर युवाओं का क्रेज बन चुके थे।

2014 में जब लोक सभा चुनाव हो रहे थे, उस समय करीब 19 करोड़ स्मार्ट फोन हम भारतवासियों के हाथ का खिलौना बने हुए थे। तब फेसबुक इस्तेमाल करने वाले भारतीयों की संख्या नौ करोड़ 30 लाख थी। वह असल में हमारे दिमाग से खेलने लगा था।

उस चुनाव में 543 सीटों में से 160 सीटों के नतीजे फेसबुक, वाट्सऐप जैसे माध्यम तय करने की स्थिति में थे। यह निष्कर्ष इंटरनेट एंड मोबाइल फाउण्डेशन ऑफ इण्डिया और आयरिश नॉलेज फाउंडेशन के साझा अध्ययन का है।

सोशल मीडिया की महामारी कितनी तेजी से फैलती गई, यह जानना और भी चौंकाने वाला है।

मैंने बताया कि 2014 में भारत के फेसबुक यूजर्स नौ करोड़ 30 लाख थे। 2015 में ये 25 करोड़ हो गए। 2016 में तीस करोड़ हो गए।

2016 वह साल था जब मोबाइल डेटा इस्तेमाल करने वाला भारत पहले नम्बर का देश बन गया था। उस साल नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने ट्वीट किया था कि अमेरिका और चीन में मिलाकर जितना मोबाइल डेटा इस्तेमाल होता है, उससे अधिक भारत में होने लगा है। एक अरब 50 करोड़ गीगाबाइट! 

2017 में जब अम्बानी का जियो धूम मचाने लगा था, भारत में 40 करोड़ से अधिक हाथों में स्मार्ट फोन था। 2019 के चुनाव के समय यह संख्या बढ़कर 62 करोड़ के पार पहुंच गई थी।

यानी 2019 में भारत के आधे से अधिक वयस्कों के पास स्मार्ट फोन था, जिन्हें मताधिकार हासिल था। जाहिर है वे मोबाइल डेटा का इस्तेमाल कर रहे थे। और, यह इंटरनेट डेटा सबसे ज़्यादा किस चीज में इस्तेमाल हो रहा था, यह जिक्र पहले कर चुका हूं।

एक उल्लेख और कर दूं कि राजनैतिक दल के रूप में भारत में स्मार्ट फोन, मोबाइल डेटा और सोशल मीडिया का इस्तेमाल सबसे पहले और सबसे अधिक भाजपा ने किया। 2012-13 से जब नरेंद्र मोदी के नाम से नमो ऐपका खूब प्रचार किया जा रहा था और मनमोहन सिंह को नाकारा मौनी बाबा प्रचारित किया जा रहा था, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सोशल मीडिया पर अपना अकाउंट बनाने की सलाह ठुकरा दी थी। उन्होंने कहा था कि इस पर कोई सरकारी धन खर्च नहीं किया जाएगा।

मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस आज भी सोशल मीडिया के राजनैतिक इस्तेमाल में भाजपा के सामने कहीं नहीं ठहरता। अगर मैं भाजपा के आई टी सेल की बात करने लगूंगा तो बहुत लम्बा हो जाएगा। इतना ही कह देता हूं कि वह किसी बहुत बड़ी कॉरपोरेट कम्पनी की तरह काम करता है जिसमें हजारों-लाखों युवा बकायदा वेतन पाने वाली स्थाई या अस्थाई नौकरियां करते हैं। मुफ्त के फॉरवडिए तो बहुतेरे हैं। 

खैर, स्टैटिस्टा डॉट कॉम के अनुसार फरवरी 2025 में फेसबुक पर 38 करोड़ 35 लाख भारतीय थे। दूसरे नम्बर पर अमेरिका में इसके आधे, 19 करोड़ 65 लाख थे।

यूट्यूब पर 2025 की फरवरी में 49 करोड़ 10 लाख भारतीय थे। दूसरे नम्बर पर अमेरिका है, 25 करोड़ 30 लाख।

युवाओं का सबसे पसंदीदा सोशल मीडिया आज इंस्टाग्राम है। जिसमें आप मुख्यत: रील्स देखते हैं, जिन्हें बनाने में अक्सर युवाओं की जान भी चली जाती है। उसमें भी भारतीय युवा सबसे आगे हैं।

आंकड़े सुना-सुनाकर अब आपको बोर नहीं करूंगा। बताना तो मैं यह भी चाहता था कि इन माध्यमों पर कैसी जहरीली, भड़काऊ और झूठी सामग्री परोसी जाती है और उसके पीछे कैसे दिमाग काम करते हैं। लेकिन उसे छोड़ देता हूं।

मैं आपका ध्यान इस ओर दिलाना चाहता हूं कि आज के युवाओं का दिल-दिमाग और समय कहां और किन बातों में उलझा हुआ है या उलझाया जा रहा है।

जिनसे हम अपेक्षा करते हैं कि वे अपने परिवार से लेकर समाज तक में व्याप्त रूढ़ियों, धर्मांधता, अन्याय, उत्पीड़न, साजिशों और तरह-तरह की लूट के विरोध में खड़े होंगे, सड़कों पर उतरेंगे– जैसे शमशेर की पीढ़ी कर रही थी, वे आज इसी सब में लगे हैं। उनका दिमाग सोशल मीडिया में डूबा है। उनके दिल में किसी किस्म की चिंगारी नहीं है।

नेपाल का ताज़ा उदाहरण याद कीजिए। महंगाई, बेरोजगारी, राजनैतिक भ्रष्टाचार, आदि-आदि का मारा नेपाली छात्र-युवा तब तक चुप था, जब तक वह सोशल मीडिया में मस्त था या थोड़ी-बहुत भड़ास वहां निकाल पा रहा था। जैसे ही सोशल मीडिया पर रोक लगी, वह उबाल खा गया। फिर जैसी हिंसा मची, वह सबने देखी।

हमने कुछ समय पहले बांग्लादेश और उससे पहले 2022-23 में श्रीलंका में भी जन-उबाल देखा। वह उबाल ही थे, किसी सार्थक दिशा में जाते हुए जन आंदोलन नहीं थे।

लेकिन इनसे हमारी यही बात साबित होती है कि किसी भी बड़े परिवर्तन की लड़ाई में युवाओं की भूमिका मुख्य होगी। वह दिशाहीन होगी या किसी सार्थक दिशा की ओर, यह स्थितियां बताएंगी। आज हम कह सकते हैं कि 1994 का उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन भी एक दिशाहीन उबाल ही था।

हां, यह उबाल मदांध सत्ताधीशों के लिए चेतावनियां भी हैं। इन्हें रचनात्मक दिशा और वैचारिक नेतृत्व की जरूरत है और हमेशा रहेगी।   

(22 सितम्बर 2025 को अल्मोड़ा में दिए गए शमशेर स्मृति व्याख्यान का सम्पादित आलेख दूसरा अंश, अभी जारी।)  

No comments: