Saturday, August 09, 2014

तमाशा मेरे आगे-3/ जाम में लाल-नीली बत्ती और बिन बत्ती



(नभाटा, लखनऊ में 10 अगस्त को प्रकाशित)

उस दिन शाम को बहुत ज़ोर की बारिश हुई। मेह थमा तो यहाँ-वहाँ रुके-थमे लोग एक साथ सड़कों पर निकल आए। साइकिल, दो पहिया, रिक्शे और भांति-भांति के छोटे-बड़े चौपहिया वाहन सड़कों पर महाभारत लड़ने लगे। कैसरबाग चौराहे पर हम ऐसे फंसे कि क्या कहें! सब एक दूसरे को ठेल कर निकलना चाह रहे थे और इस युद्ध में कोई इंच भर भी सरक नहीं पा रहा था। तीखे हॉर्न, चीखें और वाक-युद्ध। ट्रैफिक सिपाही अगर कहीं रहे होंगे तो वे तटस्थ रहने की प्रतिज्ञा के साथ अन्तर्धान हो गए थे।

तभी कंधे पर रायफल लटकाए दो सिपाही अवतरित हुए और करिश्माई ढंग से रास्ता बनाने लगे। हमने राहत की सांस ली और खाकी वर्दी को दुआ देने लगे। कौन कहता है कि हमारी पुलिस जनता का दुख-दर्द नहीं देखती। ये दो जवान, जिन पर ट्रैफिक की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है, जाम में फंसे लोगों की परेशानी देखकर पिघल गए और रास्ता बनाने में लग गए। यह हुई कर्तव्य परायणता। शाबाश! हमारा मन जाम की घुटन से उबर कर मुदित हो आया।

मन की मुदित अवस्था ज़रा भी कहां टिक पाती है! काले बादलों से घिरे आसमान की तरह वह भी तत्काल अवसाद से घिर गया जब हमने देखा कि वे दोनों सिपाही दरअसल एक लाल बत्ती कार के लिए रास्ता बना रहे थे जो जाने कैसे उस जाम में फंस गई थी। लाल-नीली बत्तियाँ जाम कहाँ बर्दाश्त कर पाती हैं! जाम तो उनके गुज़र जाने पर ही लगा करता है। खैर, उस भीषण जाम में अत्यंत कौशल के साथ उस मात्र एक लाल बत्ती कार के लिए रास्ता बनवा कर वे “कर्तव्य परायण” सिपाही कार के साथ ही नज़रों से ओझल हो गए।

उस वीआईपी कार के पीछे-पीछे लग कर जाम से मुक्त होने की जद्दोजहद में शायद एक-दो चतुर-सुजान चालक सफल हुए हों, हम तो निरीह जनता की भांति चक्रव्यूह में फंसे ही रहे। कैसरबाग से परिवर्तन चौक पहुँचने में दो घण्टे लगे। बाकी और क्या-क्या लगा, उसका क्या हिसाब! जैसे, यह सोच-सोच कर हमने अपने को कितना सताया कि उस कार में कोई बड़ा और जिम्मेदार अफसर रहा होगा और माना कि उसका थोड़ी देर भी जाम में फंसा रहना देश-प्रदेश के लिए बहुत नुकसानदायक होता होगा लेकिन क्या उसने एक पल को भी यह नहीं सोचा होगा कि इतने सारे लोग कितनी देर से जाम में बिलबिला रहे हैं, उनके लिए भी कुछ किया जाए? वे अपने सिपाहियों को थोड़ी देर रुक कर जाम खुलवाने को कह सकते थे, वे डीएम, एसएसपी या थाने को फोन करके जाम खुलवाने को कह सकते थे, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं किया। लाल-नीली बत्तियाँ ऐसे में सामान्य जन के लिए कुछ क्यों नहीं करतीं होंगी? वे जनता को जानवरों की तरह हँकवा कर सिर्फ अपने लिए रास्ता बनवा कर क्यों गर्व से भर उठती हैं?

कुछ वर्ष पहले लखनऊ में एक डीएम ऐसे हुए जो सड़क पर जाम देख कर खुद कार से उतर कर ट्रैफिक दुरुस्त करने लगते थे। सुबह टहलते हुए वे पार्क में पड़ी बीयर की बोतलें और पॉलीथिन, आदि भी उठाया करते थे। अफसर बिरादरी से लेकर कर्मचारी तक इसके लिए उनका मज़ाक उड़ाते थे। यही शासक-शासित व्यवस्था की त्रासदी है। यहाँ जनता से दूर रह कर उसे टाइटरखने वाला अफसर कड़क और जनता के साथ घुल-मिल कर उसकी सहायता करने वाला बेचारा कहलाता है। बेचारा होने लिए हमारी प्रतिभाएँ शासक वर्ग का हिस्सा नहीं बनतीं। लखनऊ के एक एसएसपी एक शाम चारबाग के जाम में कुछ देर को फंसे रह गए थे। घंटे भर में सारा इलाका अतिक्रमण और ऑटो-टेम्पो वालों की अराजकता से मुक्त करा दिया गया था। उनकी शान को ठेस जो पहुंची थी।  

लाल-नीली बत्तियों वाली सभी गाड़ियों में अवैध कानफाडू प्रेशर हॉर्न लगे हैं जो राह चलते लोगों को चौंकाते-डराते-बहरा बनाते हैं। कितने साहेब अपने ड्राइवरों को ये खतरनाक हॉर्न बजाने से रोकते हैं? वीआईपी गाड़ियाँ सबसे आगे निकलने के लिए गलत मुड़ने, विपरीत दिशा चलने और राहगीरों को ठोकर मारने में संकोच नहीं करतीं। कितने साहेब ड्राइवर को टोकते हैं कि यह गलत है। कितने अफसरों की कारें सही जगह पार्क होती हैं? इसमें आप नेताओं को भी शामिल कर सकते हैं, यदि उनसे अब भी ऐसी अपेक्षा बची हो तो।

फिर बताइए कि हर किसी में वीआईपी दिखने की, लाल-नीली बत्ती लगा कर चलने की ललक क्यों न उपजे? सुप्रीम कोर्ट कुछ भी निर्देश देता रहे, वह चौराहे पर खड़ा होकर देखने आ रहा है क्या!। वीआईपी बन कर चलने में बड़ी सुविधाएं हैं। बाकी सारी दिक्कतें झेलने को हम-आप तो हैं ही। 


                              

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