Monday, August 04, 2014

सच से आँख चुरा रही यूपी की सपा सरकार




नवीन जोशी

दंगे, बलात्कार और हत्याओं की खबरों से यूपी के अखबार भरे पड़े हैं. समाचार चैनलों में यू पी में महिलाओं के साथ हो रहे जघन्य अपराधों, हत्याओं, चोरी-लूट-डकैती के नित नए मामलों के ग्राफिक विवरण और पैनल चर्चाएं छाई हुई हैं. उधर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कहते हैं कि मीडिया यू पी के अपराधों को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने में लगा है और दूसरे राज्यों में हो रहे अपराध उसे दिखाई नहीं दे रहे. सच को स्वीकारने और समाधान ढूंढने की बजाय उस पर पर्दा डालने की कोशिशें हो रही हैं.

हाल के लोक सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और बसपा के साथ सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी की भी बुरी हार हुई. 2009 में 23 लोक सभा सीटें जीतने वाली सपा मात्र पांच सीटों पर सिमट गई. कांग्रेस (दो सीटें) और बसपा (शून्य) से भी बड़ा झटका सपा के लिए था क्योंकि उसने सिर्फ ढाई साल पहले प्रदेश विधान सभा की 224 सीटें जीत कर अपने लिए कीर्तिमान बनाया था. इसके दो प्रमुख कारण हैं- एक, अखिलेश सरकार में कानून व्यवस्था दिन पर दिन बिगड़ती जा रही है और दो, अपेक्षाओं की तुलना में इस सरकार की अब तक की उपलब्धियां नगण्य हैं.

अपराधियों पर शिकंजा न कस पाना समाजवादी पार्टी की अब तक की सभी सरकारों की कमजोरी रही है. मुलायम सिंह जब भी मुख्यमंत्री बने, राज्य में अपराध बढ़े. सपा के कई नेता, विधायक और मंत्री स्वयं अपराधों में लिप्त रहे या अपराधियों को खुले आम संरक्षण देने के लिए जाने गए और मुलायम सिंह उनका बचाव करते रहे. पुलिस सपा-समर्थित अपराधियों पर हाथ डालने में डरती रही और किसी पुलिस अधिकारी ने ऐसा साहस किया भी तो उसे कई तरह प्रताड़ित किया गया. यही वजह थी कि 2007 का विधान सभा चुनाव तब सत्तारूढ़ सपा के खिलाफ कानून व्यवस्था को ही मुख्य मुदा बनाकर लड़ा गया और मायावती के नेतृत्व में बसपा को पूर्ण बहुमत मिला. बसपा का तब प्रमुख नारा ही यह था- चढ़ गुण्डों की छाती पर, मुहर लगेगी हाथी पर.मायावती के पांच साल के शासन में अपराधों पर लगाम लगी रही, यह सभी मानते हैं. उन्होंने अपने सांसद और विधायकों को जेल भिजवाने में कतई संकोच नहीं किया.

युवा अखिलेश के मुख्यमंत्री बनने से उम्मीद जगी थी कि समाजवादी पार्टी और उसकी सरकार की छवि बदलेगी. कहा जा रहा था कि अखिलेश कानून व्यवस्था के मामले में कोई समझौता नहीं करेंगे. लेकिन उम्मीद बहुत ज़ल्दी टूटी. मथुरा के कोसी कलां से दंगों का जो सिलसिला शुरू हुआ तो सरकार के दो साल पूरे होते-होते उनका आंकड़ा सौ से ऊपर पहुंच गया. प्रदेश के सभी इलाकों से सपा कार्यकर्ताओं और नेताओं की दबंगई की खबरें आने लगीं और पुलिस एक बार फिर लाचार दिखाई दी. मुज़फ्फरनगर के दंगों ने अखिलेश सरकार को सबसे काला दाग दिया और अब सहारनपुर और कांठ (मुरादाबाद) सांप्रदायिक आग में झुलस रहे हैं.

मुख्यमंत्री की इस बात से सहमत होना पड़ेगा कि दूसरे राज्यों में भी अपराध हो रहे हैं और आंकड़ों के हिसाब से देखें तो शायद एक-दो राज्यों में यू पी से ज़्यादा ही हो रहे हैं. लेकिन मामला अपराधों के आंकड़ों का नहीं है. असल मामला है सरकार और प्रशासन की कार्यप्रणाली का, उसकी प्रतिबद्धता का और कानून के राज की स्थापना के प्रयास का. अपने रक्षात्मक बयान से आगे जा कर मुख्यमंत्री को देखना चाहिए कि इस मामले में उनकी सरकार कहां खड़ी है.

लोक सभा चुनाव में करारी हार के बाद मुख्यमंत्री ने प्रशासन के पेच कसनेशुरू किए हैं. वे कुछ एक्शनलेते दिखाई दे रहे हैं लेकिन देखिए कि वास्तव में वे क्या कर रहे हैं. उन्होंने मुख्य सचिव को बदल दिया, कई अफसरों के तबादले कर दिए और आईएएस-आईपीएस अफसरों की बैठक में उन्हें ही सारी विफलताओं और बदनामी का दोषी ठहरा दिया. ताना भी मारा कि गलती करो आप और सज़ा भुगतें हम! ऐसा अब नहीं चलेगा.

उधर, वर्तमान और रिटायर पुलिस अधिकारी मानते हैं कि सपा सरकार में काम करने की वैसी आज़ादी नहीं है जैसी बसपा सरकार में थी. पुलिस पर अपराध रोकने का गलत ढंग का दवाब है. जैसे भी हो अपराध रोकिएकहने से पुलिस एफ आई आर लिखने से बचने लगती है या संगीन अपराध को भी मामूली की श्रेणी में दर्ज़ करती है. मतलब कि पुलिस अपराध छुपा कर अपराध कम दिखाने लगती है.

अपराध रोकने का प्रभावी तरीका खुद पुलिस वाले ही बता देते हैं- एक, सही-सही एफ आई आर लिखने दीजिए और दो, अपराधी चाहे जो हो, चाहे जितना प्रभावशाली हो, उसके गिरेबां पर हाथ डालने दीजिए. इस मामले में पुलिस पर कोई राजनैतिक दवाब मत आने दीजिए. सपा सरकार के कामकाज को करीब से देखने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार कहते है कि मुख्यमंत्री को एक फरमान जारी करने और उस पर ईमानदारी से अमल करने की ज़रूरत है कि अपराधी चाहे जो हो उसके खिलाफ कानून सम्मत सख्त कार्रवाई की जाए और इस बारे में किसी मंत्री, विधायक या सपा नेता की सिफारिश न सुनी जाए. कानून-व्यवस्था का चेहरा इतने से ही तेजी से सुधरने लगेगा.

दरअसल यह समझने और स्वीकार करने की ज़रूरत है कि अपराध होना सरकार की नाकामयाबी नहीं है. वास्तविक अपराधियों को पकड़ कर सज़ा न दिलवा पाना सरकार की अक्षमता है. मुख्यमंत्री बनने के शुरुआती दिनों में अखिलेश अक्सर निज़ी बातचीत में कहते थे कि यह तो मेरे राजनैतिक करिअर की शुरुआत है. नतीज़े नहीं दे पाया तो हमेशा के लिए फेल हो जाउंगा.

हम उम्मीद करते हैं कि वे यह बात भूले नहीं होंगे.   

(मुंबई के "अब्स्ल्यूट इण्डिया न्यूज़" में 5 अगस्त 2014, को प्रकाशित) 

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