(नभाटा, लखनऊ, 24 अगस्त को प्रकाशित)
आम तौर पर सुबह अखबार पढ़ते
हुए मन भारी हो जाया करता है. देश-दुनिया की ऐसी-ऐसी खबरें कि बांचना भी ज़रूरी और बांचने
के बाद मन पर मनों बोझ आसानी से जो उतर जाए! भला हो सम्पादक जी का, उस सुबह ऐसी खबर छापी कि
हमारा दिल बाग-बाग हो गया. हमें बहुत समय बाद यह मुहावरा भी उसी दिन याद आया.
खबर यह थी कि ‘लेसा’ का एक जेई रिश्वत लेते
रंगे हाथ पकड़ा गया. एक दुकानदार से नए बिजली कनेक्शन के लिए छह हज़ार रु में बात तय
हुई थी. “बात तय होना” समझते हैं न! तो, दुकानदार ने चार हज़ार रु अग्रिम दे दिए. जेई ने
फौरन कनेक्शन करवा दिया मगर दुकानदार की नीयत में खोट आ गया. सोचा होगा कनेक्शन तो हो
गया, मीटर भी लग ही जाएगा. लेकिन जेई बात का पक्का निकला. उसने कहा- न, बाकी दो हज़ार दो तो मीटर
लगे. दुकानदार किसी बहकावे में भ्रष्टाचार निवारण संगठन के पास चला गया.
बिना काम के बोर होते
भ्रष्टाचार निवारण वालों ने तत्परता दिखाई और जेई को धर दबोचा. हमारा दिल बाग-बाग
करने वाली बात ठीक इसी के बाद हुई. जैसे ही जेई को घूस लेते जाने पकड़े जाने की खबर
फैली, उनकी यूनियन के लोग थाने पहुंच गए और अपने साथी को छुड़ाने के लिए प्रदर्शन
करने लगे. तीन घण्टे तक वे थाने पर डटे रहे. यह हुई न एकता! पता नहीं, कब किसकी बारी आ जाए.
जब भी कोई भूले-भटके रिश्वत
लेते पकड़ा जाता है तो बेचारा कितना अकेला पड़ जाता है, थाने में मुंह छुपाए ऐसा
उदास बैठा रहता है जैसे उसने बड़ा भारी अपराध किया हो. अब लेसा वालों ने रास्ता
दिखा दिया है. आइन्दा रिश्वत लेते पकड़े जाने वालों के समर्थन में थाना घेरने वाले, “भैया, तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं” जैसे
नारे लगाने वाले होंगे और जेल के अंदर भी उनका मनोबल ऊंचा रहेगा. शाबाश!
आगे के लिए हमारे पास चंद
सुझाव हैं. एक- उन्हें मांग करनी चाहिए कि तय रकम का एक हिस्सा देने के बाद बाकी
रकम देने से इनकार करने और शिकायत करने वालों पर भ्रष्टाचार निवारण वालों को
विश्वास भंग के लिए कड़ी कारवाई करनी चाहिए. दो- सीधे-साधे-सरल लोग ही रंगे हाथ
पकड़े जाते हैं. अत: रंगे हाथ पकड़ने की व्यवस्था हटाने के लिए लड़ाई लड़नी चाहिए.
बहुत सारे संगठन साथ आ जाएंगे. तीन- विधायकों-मंत्रियों से अपील करनी चाहिए कि जन हित में
बची-खुची कार्य-संस्कृति को बनाए रखने के लिए उनका सार्थक हस्तक्षेप ज़रूरी है. वे
थाने पर धावा भले न बोलें लेकिन कम से कम भ्रष्टाचार निवारण के अफसर को हड़काएं
ज़रूर. आखिर उनकी भी साख का सवाल है.
लोग यह समझते ही नहीं कि
बिजली कनेक्शन देने, मीटर बदलने, वगैरह में इंजीनियरों को कितनी मेहनत करनी पड़ती है.
कागज-पत्तर भरने पड़ते हैं, दौरा करना पड़ता है, सामान जुटाना पड़ता है और किसके लिए? वैसे भी, इस ज़बर्दस्त महंगाई के
जमाने में रिश्वत के बिना काम कहां चलता है. धत तेरे की, हम इसे रिश्वत क्यों कहे जा रहे
हैं, इसके तो कई बेहतर नाम प्रचलन में हैं. खैर, इसी से न्यारे बंगले बनते हैं और बच्चे आलीशान गाड़ियों में
सबसे अच्छे स्कूलों में जाकर अपना भविष्य बनाते हैं. कुछ लोगों को नोटों के बिस्तर
पर ही नींद आती है तो क्या वे रात-रात भर जागते रहें? इसके बिना क्या कोई बीवी को
कायदे की जुलरी दिला सकता है? और बेटे-बेटी का ब्याह? इतने सारे मैरिज लॉन, और फॉर्म हाउस इसी को तो
ध्यान में रख कर खोले गए होंगे! ज़्यादा क्या कहना, भगवान की महिमा तक इसी से बची हुई है. जितनी
कमाई बढ़ती जाती है, उतने सुंदर मंदिर और मूर्तियां बनती हैं, भजन-भण्डारे होते हैं. जिसको
मौका नहीं मिलता वही इससे चिढ़ता है. अपने मन से ही पूछ लीजिए न!
एक बात हम “अच्छे दिन” लाने
वालों से भी विनम्रता से कहना चाहते हैं. जितने भी ”निवारण” और “निषेध” नामधारी
सरकारी विभाग बचे हैं, सोचिए कि आज उनकी प्रासंगिकता क्या है? मद्य निषेध विभाग को “मद्य
विकास विभाग” बना दीजिए तो इस दफ्तर के भी अच्छे दिन आएं. भ्रष्टाचार निवारण संगठन
को “तत्काल कार्य विभाग” जैसा कोई नाम दिया जाए. जैसे ट्रेन रिजर्वेशन में तत्काल
होता है, ज़्यादा पैसे देकर फौरन रिजर्वेशन, वैसे ही. आज़ादी के बाद पैदा हुई पीढ़ी के लिए “निषेध” और “निवारण”
बेमानी हो चुके. वह शौचालयों से परहेज़ करने वाली 75 पार पीढ़ी का दिमागी दिवालियापन
है. योजना आयोग खत्म हो सकता है तो इन विभागों को भी बदल कर स्वच्छ-निर्मल भारत
बनाइए. बंदा सेवा में हाज़िर है!
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