(नभाटा, लखनऊ में 17 अगस्त को प्रकाशित)
साइकिल के कैरियर में झव्वा रखा कर सड़क किनारे वह अमरूद बेच
रहा था. भाव पूछा तो बताया- “40 रु किलो.” उससे थोड़ी दूर पर ठेले वाला तीस रु किलो
की आवाज़ लगा रहा था. “ज़्यादा नहीं है?” कहने पर वह बिदक गया- “क्या ज़्यादा है, बाबू. दो रोटी खाना मुश्किल हो गया है. जब से मोदी आए हैं, आलू खरीदना भी मुश्किल हो गया है.”
हमने कहा- आलू मोदी ने महंगा किया है क्या?”
-“और नहीं तो क्या! पहले आदमी किसी तरह खा तो रहा था.”
-“मोदी को आप ही ने तो जिताया.” हमने उसे छेड़ा.
-“हम हाथी वाले हैं, सच बताए देते हैं.” उसने सगर्व कहा और एक
बड़े अमरूद की जगह छोटा वाला रखकर तौल सही की. इतने में एक छोटा लड़का तिरंगे झण्डों
की गड्डी लिए आ पहुंचा- “एक ले लीजिए साहेब.” हमने एक झण्डा ले लिया. राष्ट्र ध्वज
के वास्ते नहीं, उस लड़के की मासूम मनुहार के कारण. स्वाधीनता
दिवस के मौके पर झण्डे बेच कर उसे कुछ कमा लेने का मौका मिला है.
-“और दिन क्या बेचते हो?” हमने बच्चे से पूछा.
जवाब अमरूद वाले ने दिया- “कुछ भी बेचे साहेब, लेकिन
देश नहीं बेचता.”
अमरूद वाले का ताना तीर की तरह दिल में उतर गया. क्या गहरी
बात कह दी उसने! मैं सन्नाटे में आ गया. एक गरीब आदमी अमरूद-केला बेच कर परिवार
पालने की ज़द्दोज़हद में लगा हुआ है और उसे अच्छी तरह पता है कि बहुत सारे लोग देश
बेच कर ऐश कर रहे हैं. इसीलिए उसके भीतर बड़ी कड़वाहट भरी हुई है.
उसकी बात मन में बवण्डर मचाती रही. चारों तरफ झण्डे लहरा
रहे थे. सरकारी इमारतों पर तीन दिन से जगमग रोशनी हो रही थी. उस सुबह जगह-जगह
तिरंगा फहराया गया, राष्ट्र गीत गाया गया, बड़े-बड़े भाषण दिए
गए. लाल किले पर पिछले दस साल से आसमानी पगड़ी में एक कमजोर आवाज़ देश के बारे में
गौरवपूर्ण बातें करती थी. इस साल उसी जगह से सुर्ख पगड़ी और ओजपूर्ण वाणी में देशवासियों
को खूबसूरत सपने सुनाए गए.
क्या झण्डे लहराने, ओजपूर्ण भाषण देने,
और जै-हिंद के गगन भेदी नारे लगाने से देश बनता है? सपने
देखना-दिखाना ज़रूरी है पर वे सच किस के लिए हो रहे हैं? अमरूद
वाला कहता था कि वह बच्चा झण्डे बेच रहा था, देश नहीं. देश
कौन बेच रहा है?
दिल्ली में कैबिनेट सचिव ने इस बार आला अफसरों को पत्र भेज
कर कहा था कि लाल किले के स्वाधीनता समारोह में उनकी उपस्थिति हर साल कम होती जा
रही है. इस बार उन सभी अधिकारियों का आना ज़रूरी है, अन्यथा इसे गम्भीरता से
लिया जाएगा. क्या ‘ड्रेस कोड’ में उनकी
उपस्थिति इस बात की गारण्टी है कि उनके रोज़मर्रा के काम भी देश-सेवा के लिए होते
हैं? नेताओं का खद्दर का बाना क्या यह आश्वस्ति देता है कि
वे इस देश के सामान्य जन की बेहतरी का संकल्प भी धारण किए हुए हैं? वे जो कहते हैं उस पर लोग कितना भरोसा करते हैं?
उनकी कथनी और करनी में जो फर्क दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है,
उसकी शर्म उन्हें क्यों नहीं होती? वे कितनी शान से राष्ट्र
ध्वज फहराते हुए देश सेवा, कर्तव्यों और दायित्वों के बारे
में बड़बोले बयान दिए जाते हैं! क्या एक पल को भी वे आत्मचिंतन करते होंगे कि
उन्होंने क्या कहा और किया क्या?
हमारे एक पत्रकार साथी ने वाट्सऐप पर संदेश भेजा था कि
बाज़ार में प्लास्टिक के तिरंगों की भरमार है और यह राष्ट्र ध्वज का अपमान है. इसके
खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए. उस बच्चे से हमने जो झण्डा खरीदा था वह भी प्लास्टिक
का ही था. नियमत: यह गलत है लेकिन क्या वह निरीह बच्चा राष्ट्र ध्वज और देश का
अपमान कर रहा था? क्या इस ध्वज को कितने ही लोग तरह-तरह से पददलित नहीं कर रहे
हैं? ऐसे लोग मज़े कर रहे हैं और बाकी जनता रोजी-रोटी की
ज़द्दोज़हद में ही परेशान है. ऐसा क्यों है और कब तक रहेगा?
देश अगर एक भूगोल के अलावा विविध जातीय-धार्मिक-सांस्कृतिक
एकता का नाम भी है तो सिर्फ चुनावी स्वार्थों के कारण कौन लोग इसके ताने-बाने को छिन्न-भिन्न
करने में लगे हैं? पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही पिछले कुछ महीनों से जो फसाद कभी
जमीन के एक टुकड़े, कभी पंचायत या कभी एक लाउडस्पीकर के बहाने
पैदा किए जा रहे हैं और जो लोग यह कर रहे हैं, वे देश का
कैसा सम्मान कर रहे हैं? वे कौन लोग हैं?
एक और पंद्रह अगस्त मना चुकने के बाद क्या हम इन सवालों के
उत्तर तलाशने और समझने की कोशिश कर रहे हैं?
1 comment:
मान्यवर, कोई भी समाज हो, उसे स्वस्थ रुप से चलाने में जितनी भूमिका धर्म, संस्कृति, खेलकूद, रक्षा, जैसी गतिविधियों की होती है, उतनी ही व्यापार, वाणिज्य और उद्योग जगत की भी। आखिर देश को चलाने के लिए पैसा तो चाहिए ही। इस सन्दर्भ में, सरकार का विनिवेश करना त्रुटिपूर्ण नहीं लगता। हां, इतना अवश्य है कि कुछ क्षेत्रों, जैसे कि, शिक्षा और स्वास्थ्य, जिनसे कि गरीबों, निर्धनों का सीधे वास्ता पड़ता है, के विनिवेश से सरकार को दूर रहना चाहिए, जब तक कि देश के यह निर्धन, शिक्षा और स्वास्थ्य के निजी प्रतिष्ठानों की मोटी फीस चुकाने में समर्थ नहीं हो जाते। रक्षा भी एक संवेदनशील क्षेत्र है, परन्तु सौभाग्य से सरकार और विपक्ष न ही उसके विनिवेश के विषय में सोच सकते हैं, और न उन्हें कभी सोचना ही चाहिए।
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