दिल्ली की शकूरबस्ती
झोपड़पट्टी हटाने में एक बच्चे की दर्दनाक मौत ने हमारे महानगरों की इस विकराल
समस्या की ओर एक बार फिर देश का ध्यान खींचा है. दिल्ली उच्च न्यायालय ने कड़ी टिप्पणी करते
हुए कहा कि जब तक इनके लिए कोई संतोषजनक पुनर्वास कार्यक्रम न बन जाए तब तक झुग्गियों
को हटाया नहीं जाए. यही मानवीय और तार्किक बात लगती है और जिस भी शहर में भी बड़े पैमाने पर झुग्गियां हटाई
जाती हैं, समाधान के रूप में यही दोहराया जाता है. विचारणीय यहां यह है कि दिल्ली
ही नहीं देश के हर महानगर/शहर की विशाल झुग्गी-आबादी के लिए कैसा पुनर्वास
कार्यक्रम व्यावहारिक और संतोषजनक होगा.
समस्या के दो पहलू: अवैध झोपड़पट्टियों से हमारे सभी शहर पटे पड़े हैं. इनकी
सबसे बड़ी बसासत रेल पटरियों के दोनों तरफ और कहीं-कहीं बीच में भी खाली पड़ी रेलवे
की जमीन पर है. इसके बाद उनकी दूसरी बड़ी बसासत शहरों से बहने वाली नदियों और गंदे
नालों के किनारे हैं. बरसात में जब कभी ये नदी-नाले उफनाते हैं तब झुग्गियों में
मची भगदड़ से इसके अपार विस्तार का अंदाजा मिलता है. अभी चैन्ने की भयानक बाढ़ के
कारणों की पड़ताल में एक तथ्य यह भी सामने आया कि नदियों और तालाबों के किनारे बसे
बेशुमार झुग्गीवासियों ने खुद बाढ़ से बचने के लिए तटबंध काट दिए जिससे उनका पानी भरभरा
कर शहर की नियोजित कॉलोनियों में पैठ गया था.
हर शहर में गगनचुम्बी
इमारतों के महंगे फ्लैटों के पीछे भी बेहिसाब शहरीकरण
का क्रूर सच झुग्गियों की कतारों के रूप में मौजूद है. शहरों की हर वह खाली जगह जो
मनुष्य के रहने के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है, एक विशाल आबादी की शरणगाह है. दिहाड़ी मजदूर हैं
जो दो जून की रोटी कमाने शहर आए हैं. ठेला-रिक्शा खींचने, कबाड़ बीनने, भीख मांगने और फेरी लगाने वाले
हैं. इनमें शहरों में अपना भाग्य आजमाने आए गरीब ग्रामीण हैं. टूटे सपनों के पंख
लिए छटपटाते लोग हैं. कोठियों के फर्श और बर्तन चमकाती लड़कियों से लेकर शारीरिक
धंधा करने को अभिशप्त स्त्रियां यहां हैं तो हर तरह के फर्जी, काले और अनैतिक धंधे में
आकंठ डूबे युवा भी. ये सब भी “हम भारत के लोग” में शामिल हैं जिन्होंने “सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय... तथा प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए” 65
वर्ष पूर्व अपना संविधान आत्मार्पित किया था लेकिन यह सब न्याय और अवसर उन तक आने
से पहले कहीं भटक गए. वे विकास की इसी भटकन की उपज हैं.
समस्या
का दूसरा पहलू भी शकूरबस्ती हादसे से सामने आ जाता है. हादसे के बाद सामने आई एक रिपोर्ट के मुताबिक अकेले दिल्ली में रेलवे की जमीन
पर 47 हजार झुग्गियों का कब्जा है और अपनी जमीन खाली नहीं करा पाने के कारण रेलवे
की दो अरब साठ करोड़ रुपए की परियोजनाएं लटकी हैं. सन 2003 और 2005 में रेलवे ने
दिल्ली सरकार को सवा ग्यारह करोड़ रुपए सिर्फ इसलिए दिए कि वह राजधानी में रेलवे की
जमीनों पर अवैध रूप से बसी 4410 झुग्गियों को हटा दे. आज तक सिर्फ 297 झुग्गियां
हटाई जा सकी हैं. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह कितनी विकराल और जटिल समस्या
है.
बेहिसाब
और अराजक शहरीकरण: बहुत
बड़ी संख्या में ये लोग देश के विभिन्न ग्रामीण अंचलों से बड़े शहरों की ओर इसलिए
चले आए और आते जा रहे हैं कि इनके लिए अपने घर-गांव के पास दो रोटी का जुगाड़ नहीं
बन पा रहा. आजाद भारत की सरकारों ने गांवों की विशाल आबादी को वहीं सम्मान से जीवन
यापन कर पाने लायक स्थितियां मुहैय्या नहीं कराईं. कृषि प्रधान कहलाने वाले भारत की
सरकारें खेती-किसानी और गांव को सम्मान और प्रतिष्ठा नहीं ही दिला सकीं. विकास के
नाम पर जो भी होता आया वह बड़े शहरों तक केंद्रित रहा. बहुराष्ट्रीय कम्पनी में बड़ी
नौकरी करने वाले युवा हों या सुबह-सुबह नालियों से पॉलिथीन बीनने वाली किशोरियां, सबके लिए शहर ही अनिवार्य
बनते गए. गांव खाली-उजाड़ होते रहे और बेशुमार भीड़ शहरों में समाती गई.
नतीजा
यह कि आज हमारे शहर अपनी क्षमता से ज्यादा लोगों से ठुंसे हुए हैं. केंद्रीय शहरी
विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट कहती है कि शहरीकरण की रफ्तार इतनी तेज है कि सन
2031 में हमारी कुल आबादी का 40 फीसदी महानगरों में रह रहा होगा. 2051 में यह
आंकड़ा 51 फीसदी हो जाएगा और हम गांवों का देश नहीं रह जाएंगे.
समाधान: “सम्मान से” का जुमला हटा दें
तो भी हर एक को जिंदा रहने का हक है. हमारे विकास को मुंह चिढ़ाती झुग्गी-बस्तियों
में बहुत बड़ी आबादी इसी जद्दोजहद में लगी हुई है. इनकी बसासत पूरी तरह अवैध है
लेकिन बहुत मानवीय प्रश्न है कि ये लोग जाएं कहां? दो-चार या दस-बीस अवैध बस्तियां हों तो
उन्हें नियोजित ढंग से अन्यत्र बसाया जा सकता है. कुछ राज्य सरकारों ने ऐसा किया
भी लेकिन एक बस्ती हटी तो दूसरी बस गई क्योंकि इनके बसते जाने के मूल कारणों का
कुछ किया ही नहीं गया.
चूंकि समस्या की जड़ में
हमारा शहर केंद्रित विकास मॉडल है इसलिए उसे बदले बिना इस समस्या के समाधान का
रास्ता नजर नहीं आता. दो जून की रोटी के लिए भी गांवों से शहरों की तरफ कूच करना
पड़े तो झुग्गियों को हटाना तो दूर, उन्हें और भी बढ़ते-फैलते जाने से कैसे रोका जा सकता है? रोजगार के छोट-बड़े
उपक्रमों को शहरों से दूर कस्बों-गांवों की तरफ विकसित करने के बारे में क्यों नहीं सोचा
जाना चाहिए. सरकारी दफ्तरों, बड़े संस्थानों, नए उद्योगों-उद्यमों, बड़ी आवासीय योजनाओं, आदि को दूर-दराज के इलाकों
में ले जाया जाए. पास-पड़ोस के गांवों को शहरों में मिलाते जाने की बजाय दूरस्थ
गांवों को छोटे-छोटे शहरों के रूप में विकसित किया जाए. सौ नए स्मार्ट शहर बसाने
की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शुरुआती योजना काबिले तारीफ थी लेकिन पता नहीं
क्यों वह भी एक सौ बड़े शहरों ही को स्मार्ट बनाने की योजना में तब्दील कर दी गई.
‘मनरेगा’ का उदाहरण मौंजू होगा जब गांवों में रोजगार की गारण्टी वाले इस कार्यक्रम से
शहरों में मजदूरों की कमी पड़ने लगी थी. भ्रष्टाचार की शिकायतों के बावजूद गांवों
में न्यूनतम निर्धारित मजदूरी पर रोजगार मिल रहा था. यह कार्यक्रम यूपीए को 2009
के चुनाव में दोबारा केंद्र की सत्ता तक पहुंचाने में सबसे बड़ा सहायक भी माना गया
था. बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पिछले दो कार्यकालों में गांवों में
इतने आर्थिक कार्यक्रम चलाए कि ग्रामीणों का दूसरे राज्यों को मौसमी पलायन ही नहीं
थमा बल्कि राज्य के बड़े जमीदारों को भी श्रमिक संकट झेलना पड़ा. ये तात्कालिक और
लोकप्रिय कार्यक्रम भर थे, स्थाई उपाय नहीं. इनसे यह संकेत ज़रूर मिलता
है कि ग्राम केंद्रित विकास योजनाएं और दीर्घकालीन रोजगार कार्यक्रम शहरों की ओर
बेवजह और अंधाधुंध पलायन को बहुत हद तक रोक सकते हैं.
विकास की गाड़ी को सही अर्थों में छोटे
शहरों, कस्बों-गांवों की तरफ मोड़ना आसान काम नहीं. सड़क-बिजली-पानी से लेकर
शिक्षा-स्वास्थ्य और सरकारी तंत्र का जो भी बुनियादी ढांचा हम इतने वर्षों में बना
पाए वह शहरों तक सीमित है. उसके अभाव में नई पहल दुष्कर लगेगी लेकिन शुरुआत तो
करनी ही होगी. पहले ही कफी देर हो चुकी
है.
(नभाटा, सम्पादकीय पेज, 17 दिसम्बर, 2015)
1 comment:
जोशी जी, अब जब हम शहरी लोग वर्षों पहले अपने गांव छोड़ कर यहां का अभिन्न अंग बन चुके हैं, तो हमें गांवों में सुविधाओं की कमी की याद आ रही है। स्वतंत्रता पर्यन्त ही, कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देकर, सरकारों को गांवों को समृद्ध करने की दिशा में कदम उठाने चाहिए थे। शहरों का मशीनीकरण किनारे से होता रह सकता था। वो तो छोड़िए, उल्टा, उदारीकरण के बाद पापड़ चिप्स जैसे उद्योगों में भी विदेशी कम्पनियों के लिए दरवाज़े खोल दिए गए। खैर, अभी भी बहुत देर नहीं हुई है।
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