मायावती का बदला अंदाज़ और
छलकता आत्मविश्वास
लखनऊ के मॉल एवन्यू में
मायावती के बंगले और पार्टी के प्रदेश कार्यालय की ऊंची चहारदीवारी के बाहर-भीतर
सन्नाटा मालूम देता है मगर सड़क पर अक्सर खड़ी गाड़ियां गवाह हैं कि बसपा की चुनावी
गतिविधियां जोरों पर हैं. नसीमुद्दीन सिद्दीकी अक्सर
कोई फाइल लिए आते-जाते दिखाई देते हैं. कुछ और वरिष्ठ नेता भी कभी पार्टी दफ्तर
में और कभी बहन जी के घर तलब किए जा रहे हैं.
मायावती अपने चुनावी
चक्रव्यूह के सभी दरवाजों को चाक-चौबंद करने और सेनापतियों के पेच कसने में लगी
हैं.
पंद्रह जनवरी को मायावती का
जन्म दिन था. प्रदेश के लगभग सभी जिलों में बड़े-से टी वी के सामने बैठे उनके जिला
नेताओं और समर्थकों ने देखा-सुना कि बहन जी लखनऊ में प्रेस कांफ्रेस में क्या-क्या
कह रही हैं. उनकी आत्मकथा-श्रृंखला की नई किताब का जारी होना भी लोगों ने इसी तरह देखा.
इस बार मायावती ने जन्म दिन पर रैली नहीं की. सार्वजनिक रूप से केक भी नहीं काटा.
बसपा सुप्रीमो का अंदाज
बदला हुआ है. चंद महीने पहले जब उन्होंने सम्वाददाता सम्मेलन में ऐलान किया था कि
अब सत्ता में आने पर वे मूर्तियां नहीं लगवाएंगी, तभी उनके बदलने का संकेत मिल चुका था.
उनकी बदली झलक बीते गुरुवार
को सम्वाददाता सम्मेलन में भी दिखाई दी. अपना तैयार वक्तव्य उन्होंने फटाफट पढ़ा और
सम्वाददाताओं को झाड़ लगाई कि जिन बातों को वे अपने बयान में साफ कर चुकी हैं उन ही
पर फिर सवाल करने की क्या तुक है. उन्होंने आम्बेडकर के बहाने
झूठा दलित प्रेम दिखाने तथा रोहित वेमुला के लिए घड़ियाली आंसू बहाने के लिए मोदी
सरकार की तीखी निंदा की, आरक्षण की समीक्षा करने के सुमित्रा महाजन के बयान से
भाजपा को आरक्षण विरोधी साबित किया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय तथा जामिया मिलिया
विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक दर्जा छीनने की साजिश करने का आरोप लगाकर मुसलमानों
की तरफदारी की. इस पर जोर देना भी वे नहीं भूलीं कि अधिसंख्य मुसलमान वास्तव में
दलित हैं जिन्होंने हिंदुओं के जातीय अत्याचारों से तंग आकर इस्लाम कुबूल कर लिया
था.
मायावती का एजेण्डा साफ है.
उन्हें अपना दलित वोट हर कीमत पर सुरक्षित रखना है, मुसलमानों को अधिकाधिक अपने पाले में करना है
और कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर सपा सरकार की नाकामयाबी को उजागर कर समाज के अन्य
वर्गों का समर्थन हासिल करना है. बहुजन समाज पार्टी का ‘सर्व समाजी’ चेहरा भी वे पिछली बार की
तरह बनाए रखेंगी.
पार्टी की अपनी मासिक
समीक्षा बैठकों में मायावती ने लगातार इस एजेण्डे पर काम किया है. यूपी विधान सभा
की 403 सीटों में से करीब 300 के लिए पार्टी प्रत्याशी वे तय कर चुकी हैं जो जिलों
में चुपचाप तैयारियां कर रहे हैं. जानकार बताते हैं कि इनमें मुसलमानों की संख्या
काफी ज्यादा है. नसीमुद्दीन सिद्दीकी पार्टी का मुस्लिम चेहरा हैं और वे मायावती
के नम्बर दो बने हुए हैं. हर प्रत्याशी का चयन
मायावती स्वयं ने किया है. इसके लिए वे सम्बद्ध कोआर्डिनेटर के साथ अभ्यर्थी का
एकाधिक बार इण्टरव्यू करती हैं और सीट का जातीय गणित बैठाती हैं.
चार जनवरी को पार्टी
मुख्यालय में करीब एक सौ कोआर्डिनेटरों की मीटिंग उन्होंने मात्र सवा घंटे में पूरी
कर ली. एक कोआर्डिनेटर को आने में थोड़ी देर हो गई थी तो उन्हें गेट के भीतर नहीं
आने दिया गया. मायावती की बैठकें बहुत अनुशासित और टु-द-पॉइण्ट होती हैं. पंद्रह से ज्यादा वर्षों से
बसपा और मायावती को कवर कर रही वरिष्ठ पत्रकार रचना सरन कहती हैं कि बसपा प्रमुख की
चाल-ढाल और बोली में गज़ब का विश्वास दिखाई दे रहा है. 2014 के चुनाव में लोक सभा
की एक भी सीट न जीत पाने ने उन्हें हतोत्साहित करने की बजाय नई रणनीति बनाने के
लिए प्रेरित किया. सपा ने कई तरीके अपनाकर पंचायत अध्यक्षों के ज्यादातर पद हथिया
जरूर लिए लेकिन जिला और क्षेत्र पंचायत सदस्यों के चुनाव में बसपा ने काफी बेहतर
प्रदर्शन किया. यह तथ्य मायावती को आश्वस्त करता है कि उनकी तैयारी सही दिशा में
जा रही है.
करीब एक साल से बसपा जिलों
में जातियों का नाम लिए बिना जातीय सम्मेलन करती आई है. नसीमुद्दीन सिद्दीकी, मुनकाद अली, नौशाद अली, इंद्रजीत सरोज, आर के चौधरी, आदि वरिष्ठ नेता विधान सभा
क्षेत्रवार मीटिंग कर रहे हैं. ऐसी ही मीटिंगों में क्षेत्र से पार्टी प्रत्याशी
की घोषणा की जाती है.
लोक सभा चुनाव में भाजपा की
आशातीत सफलता अब कोई पैमाना नहीं रहा. दिल्ली और बिहार में उसकी पराजय के अलावा भी
मोदी का जादू घटा है. इसलिए मायावती को भरोसा है कि यूपी के विधान सभा चुनाव में
सवर्णों, खासकर ब्राह्मणों का समर्थन उन्हें फिर मिलेगा. कानून व्यवस्था के मोर्चे पर
उनकी पिछली सरकार की उल्लेखनीय सफलता सभी वर्गों में उन्हें लोकप्रिय बनाती है.
राज्यसभा के पिछले सत्र में
मायावती ने सवर्ण आरक्षण की वकालत अपनी रणनीति के तहत ही की थी. पार्टी का ब्राह्मण
चेहरा सतीश चंद्र मिश्र मायावती के लिए महत्वपूर्ण बने हुए हैं हालांकि अभी उनको सामने
नहीं किया गया है. ऐसा करने से पहले वे अपने दलित आधार को मजबूती से बांध लेना
चाहती हैं. वे भूली नहीं होंगी कि लोक सभा चुनाव में काफी दलितों ने मोदी को वोट दिया था.
इधर काफी समय से भाजपा और प्रधानमंत्री स्वयं आम्बेडकर को महिमामण्डित करके दलितों
को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे. आरएसएस ने भी दलितों को अपनाने का अभियान चला
रखा है.
मायावती मगर आश्वस्त हैं. चुनावी
तैयारियों में उनका कोई मुकाबला नहीं. बसपा की बूथ स्तरीय कमेटियां अभी से बनने लगी
हैं.
(बीबीसी हिंदी.कॉम)
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