नवीन जोशी
मार्च 2016 के अंतिम दिनों
में उत्तराखण्ड के राजनीतिक गलियारों में जो नंगनाच हुआ (और जो लोकतंत्र की हत्या
अथवा रक्षा, संविधान के अनुच्छेदों के पालन अथवा उल्लंघन, और सदन एवं न्यायालय के क्षेत्राधिकारकी अनंत
बहसों के बीच अभी कई दिन तक जारी रहने वाला है) उसे देख-सुन कर अब तो उत्तराखण्ड की जनता को
साफ-साफ समझ जाना चाहिए कि नेता कहलाने वाले जिन लोगों को अपने कीमती वोट से चुन
कर वह विधान सभा में भेजती आई है, उनके असली इरादे क्या और कैसे हैं. कोई भ्रम नहीं रह जाना
चाहिए कि इन नेताओं का मकसद येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल कर राज्य की सम्पत्ति को
बेचना और बेहिसाब दौलत कमाना है, इतनी दौलत कि उनकी सात पुश्तें तो मौज करेंगी ही, जब जरूरत पड़े तब सत्ता के
लिए समर्थन अथवा विरोध भी महंगे दामों खरीदा जा सके. चुनाव के वक्त राज्य के विकास
के उनके नारे और वादे तथा सार्वजनिक सभाओं के भाषणों में की गई बड़ी–बड़ी बातें
सिर्फ दिखावा हैं. उनकी असली बातें वे हैं जो अब निवर्तमान मुख्यमंत्री हरीश रावत
के एक स्टिंग में सुनाई दी हैं. स्टिंग का यह वीडियो फर्जी हो या उसमें छेड़छाड़ की
गई हो, तो भी उन बातों की सच्चाई निर्विवाद है और वह हरीश रावत क्या, उन सभी नेताओं के मुंह से
बंद कमरों में की जाती रही हैं, जिनकी लार सत्ता के लिए टपकती रहती है.
उत्तराखण्ड राज्य के 16 सालों में भाजपा और कांग्रेस
अदल-बदल कर सत्ता में आती रही हैं. इन सोलह वर्षों में विकास के नाम पर जनता और
उसके संसाधनों की लूट मची रही, नेता-अफसर-ठेकेदार-माफिया गठजोड़ हावी होता
चला गया, सत्ता पोषित भ्रष्टाचार के कीर्तिमान बनते रहे, राज्य का पहाड़ी हिस्सा उजड़ता रहा, गांव तेजी से
खाली होते रहे, मनुष्य और पर्यावरण की घोर अनदेखी हुई, बेहतर जमीनें बाहरी लोगों के हाथों बिकती चली गईं और वे सपने दूर से दूर
होते चले गए जिसके लिए उत्तराखण्ड की जनता ने राज्य की मांग की थी और बलिदान देकर
उसे हासिल किया था. इस पूरे दौर में भाजपा और कांग्रेस के नेता-मंत्री-मुख्यमंत्री
सिर्फ सत्ता पाने की होड़ में अपनी ही पार्टी की सरकाओं को अस्थिर करने की साजिशें
रचते रहे. 16 साल में आठ मुख्यमंत्रियों के संक्षिप्त कार्यकालों का किस्सा बताता है कि हमारे नेता कुर्सी का कैसा घिनौना खेलते हैं. राज्य की जनता
की दिक्कतों और सपनों की तरफ तो उनका ध्यान ही नहीं था.
यह खेल चलता रहेगा अगर उत्तराखण्ड की जनता ने अब भी आंखें
नहीं खोली तो; अगर राज्य में सक्रिय विविध संगठनों,
नए-पुराने आंदोलनकारियों और सजग बौद्धिक जगत ने तीसरा राजनीतिक विकल्प बनाने की
पहल नहीं की तो. वह विकल्प अस्थाई और अल्पजीवी हो तो भी वह वक्त की सख्त जरूरत है. लेकिन पहले राजनीतिक हालात पर
थोड़ा विस्तार से..
हरीश रावत ने जिस तरह मुख्यमंत्री की कुर्सी हथियाई थी, उसी
तरह उनसे छीन भी ली गई. कानूनी दांव-पेंच और अदालती हस्तक्षेप के बाद उन हें
कुर्सी वापस मिल भी गई तो जनता को क्या मिल जाने वाला है? जब
कभी कांग्रेस को उत्तराखण्ड की सत्ता में आने का मौका मिला,
हरीश रावत ने मुख्यमंत्री बनने के लिए चालें चलीं लेकिन कभी नारायण दत्त तिवारी से
मात मिली तो कभी सोनिया के दरबार से, जो उनकी संजय
गांधी-भक्त की पुरानी छवि भूल नहीं पाया था. 2002 में राज्य विधान सभा का पहला
चुनाव कांग्रेस ने जीता और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर दिल्ली दरबार ने नारायण दत्त
तिवारी को बिठा दिया. 2012 में 32 (भाजपा से एक ज्यादा) सीटें पाकर कांग्रेस को
फिर सरकार बनाने का मौका मिला लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी विजय बहुगुणा के हिस्से
में जा पड़ी. हरीश रावत तब केंद्र सरकार में राज्य मंत्री थे और उत्तराखण्ड का
मुख्यमंत्री बनने के लिए उन्होंने दिल्ली में बगावत का अच्छा-खासा ड्रामा किया
लेकिन सोनिया ने उन्हें नजर अंदाज़ किए रखा. उस समय ऊपर से शांत हो गए हरीश रावत ने
लगातार विजय बहुगुणा को अस्थिर करना जारी रखा. जनवरी 2014 में वे अपने
विधायक-गिरोह से विजय बहुगुणा के खिलाफ बगावत करा कर उन्हें अपदस्थ कराने और खुद
मुख्यमंत्री बनने में सफल हो गए.
उन्हें इस कुर्सी पर दो ही साल हुए थे कि उन्हें हटाने की
पटकथा लिख दी हई. हरीश रावत की सरकार गिराने के लिए विजय बहुगुणा खेमे ने भाजपा की
मदद ली. उनके नौ विधायक बगावत कर भाजपा की शरण में चले गए. भाजपा ने खुद सत्ता
हासिल न कर पाने की स्थितियां देख कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया. इसकी
भी चिंता नहीं की कि विधान सभाध्यक्ष ने सदन में बहुमत साबित करने का निर्देश दिया
था. आप देखिए कि विरोधी दलों की सरकारें गिराने का जो घिनौना खेल कांग्रेस खेलती
थी, अब ठीक वैसा ही भाजपा कर रही है. तर्क और शब्दावली भी
बिल्कुल एक ही हैं. खैर.
भाजपा के नेता भी उत्तराखंड की सत्ता हथियाने के लिए
साजिशों का ऐसा ही नाटक रचते रहे हैं. नौ नवंबर 2000 को उत्तराखण्ड राज्य का जन्म
हुआ और उ प्र विधान परिषद के नित्यांनद स्वामी वरिष्ठता के आधार पर राज्य के
मुख्यमंत्री बने. उन्हें मात्र 11 महीने 20 दिन बाद भगत सिंह कोश्यारी के लिए कुर्सी
खाली करनी पड़ी जो उस पर सिर्फ तीन महीने 29 दिन बैठ पाए. खैर, वे
राज्य बनने का संक्रांति काल था. विधान सभा गठन के बाद 2002 के पहले चुनाव में
कांग्रेस जीती और अनुभवी तथा ‘विकास पुरुष’ कहाने वाले तिवारी जो को यह कुर्सी दी गई. तिवारी जी चाहते तो वे इस मौके
का उपयोग कम से कम हिमाचल प्रदेश जैसा बनाने में तो कर ही सकते थे जिससे राज्य में
प्राकृतिक संसाधनों की लूट काफी कम हो जाती. लेकिन तिवारी जी पूरे पांच साल पांच
दिन इसी संताप में रहे कि कहां तो मुझे देश का प्रधानमंत्री होना चाहिए था और कहां
इस छोटे से राज्य में पटक दिया गया! शुरू में उन्होंने कुछ बेहतर करने की कोशिश भी
की थी लेकिन बाद में ऐसे-ऐसे कारनामे करने पर उतारू हो गए कि ‘नौछमी नरैणा’ जैसी रचना के जन्म का कारण बने. विकास
पुरुष आगे आने वालों के लिए भी राज्य की लूट का रास्ता प्रशस्त कर गए.
सन 2007 का चुनाव भाजपा ने जीता और भुवन चंद्र खण्डूड़ी
मुख्यमंत्री बने. सेना से राजनीति में आया यह पूर्व जनरल कड़क और ईमानदार तो शायद
साबित हुआ लेकिन राजनीति के दांव-पेचों का खिलाड़ी बन नहीं पाया. उनके ही मंत्री उनका
कहा नहीं मानते थे और अफसरों की मनमानी छिन गई थी. लिहाजा दो साल तीन महीने पंद्रह
दिन के बाद उनके ही उनके वरिष्ठ मंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने उनका तख्ता पलट दिया. अपने को उत्तराखण्ड का योग्यतम मुख्यमंत्री
मानने वाले निशंक ने ऐसा लूट तंत्र चलाया कि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें
दो साल, दो महीने और सत्रह दिन में हटा दिया. उसे डर था कि
निशंक सरकार की व्यापक बदनामी के कारण भाजपा अगला चुनाव हार जाएगी. सो, खण्डूड़ी जी को वापस लाया गया. चुनाव सिर्फ छह महीने दूर थे. इतने कम समय
में वे भाजपा सरकार की साख लौटा नहीं सकते थे. सो, 2012 के
चुनाव में भाजपा कांग्रेस से एक सीट कम पा कर कुर्सी की दौड़ में पिछड़ गई.
कांग्रेस ने हरीश रावत के तमाम दावों और दवाबों के बावजूद
विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बना दिया. विजय के पास अपने पिता का नाम भर है,
बेहतरीन प्रशासक और नेतृत्व क्षमता के उनके गुण का अंश भर भी उन्हें नहीं मिला. ऊपर
से पुत्र-मोह. प्रशासन और सहयोगियों पर पकड़ थी नहीं, सो उनकी
ढेरों कमजोरियां-खामियां उजागर होती चली गईं. हरीश रावत ताक में थे ही, उन्होंने पाशा फेंका और वर्षों पुराना सपना साकार कर लिया.
हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने पर मैं ही नहीं,
उत्तराखण्ड की चिंता में शामिल बहुत सारे लोग खुश हुए थे. 2012 में जब उन्हें
सोनिया ने उत्तराखण्ड की कुर्सी नहीं सौंपी तो भी हम दुखी हुए थे. इसलिए कि हरीश
रावत उत्तराखण्ड को बेहतर समझते रहे हैं, उसके कुछ
जनांदोलनों के साथ रहे हैं और जनता की अपेक्षाओं तथा अब तक की निराशाओं का उन्हें
खूब पता है. उनमें नेतृत्व क्षमता और प्रशासनिक पकड़ के भी दर्शन होते रहे थे.
इसलिए हमने माना था कि राज्य को अब ऐसा मुख्यमंत्री मिला है जो कुछ जरूरी जमीनी
काम करेगा लेकिन हम सब बेहद निराश हुए जब उन्होंने उत्तराखण्ड के जल-जंगल-जमीन और
दूसरे संसाधनों को बड़े उद्योपतियों को कौड़ी के भाव सौंपना शुरू किया, अतिशय परिवार मोह दिखाया और जनता एवं आंदोलनकारियों के प्रतिरोधी स्वरों
को सुनने से इनकार करते हुए उनका क्रूर दमन कराया. रावत ने सचमुच बहुत निराश किया.
इस सारे विवरण को यहां याद करने का आशय यह रेखांकित करना है
कि उत्तराखण्ड को लूटने में कांग्रेस या भाजपा सरकारों-नेताओं में कोई फर्क नहीं
है. इन्होंने मिलकर सिर्फ 16 वर्ष में उत्तराखण्ड समूर्ण हिमालयी क्षेत्र का सबसे
उजड़ा राज्य बना डाला है. यह ध्यान रखना चाहिए कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही
पार्टियां अच्छी तरह जानती हैं कि राज्य की जनता के पास उनके अलावा कोई विकल्प
नहीं है. इसलिए तय है कि मौका मिलने पर वे फिर यही सब करेंगे. इसलिए उनसे तत्कालिक
मुक्ति आवश्यक है.
लेकिन विकल्प क्या है? उत्तराखण्ड की बेहतरी के लिए अलग-अलग लड़
रही प्रगतिकामी ताकतों की जिम्मेदारी बनती है कि वह जनता को बेहतर और भरोसे लायक
विकल्प दे. समय कम है लेकिन इतना कम भी नहीं कि तीसरी राजनीतिक ताकत खड़ी न की जा
सके. भाजपा और कांग्रेस से बुरी तरह ऊबी दिल्ली की जनता को केजरीवाल भरोसा दिला
सकते हैं कि ‘आप’ इन दोनों का बेहतर
विकल्प होगी तो उत्तराखण्ड की संघर्षशील ताकतों के लिए यह क्यों नहीं सम्भव हो
सकता? कुछ मूल मुद्दों पर जल्दी एक होने की जरूरत है.
जल्दबाजी में बना ऐसा विकल्प दीर्घजीवी न हो, स्थिर सरकार न
दे पाए तो भी उसका ‘कामचलाऊ’ रूप स्वीकार्य
होना चाहिए क्योंकि उसकी ऐतिहासिक भूमिका भाजपा और कांग्रेस दोनों को उत्तराखण्ड
की सत्ता से बाहर करने की होगी. उसके जल्दी बिखर जाने से फिर और बेहतर विकल्प पैदा
होने की सम्भावनाएं बनेंगी. जनता को भी भरोसा होगा कि उसके पास दूसरे विकल्प भी
हैं. उत्तराखण्ड के लिए वैकल्पिक और स्थानीय राजनीतिक विकल्प का रास्ता इस तरह
निकल सकता है.
((नैनीताल समाचार, अप्रैल 2016)
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