तसव्वुरात की परछाइयां उभरती हैं-
गुरुवार को उनका साप्ताहिक अवकाश होता था. अवकाश में भी
उत्तरायण की सेवा में जाना पुनीत कर्तव्य जैसा था लेकिन किसी-किसी अवकाश को वे
अपने काठ के दोनों बक्से खोल कर पूरा दिन उनकी उखेला-पुखेली और साज-समाव में लगा
देते. इस बीच यह शिष्य पहुंच गया तो सम्भाली चीजें फिर बाहर निकल आतीं- ‘तुमने नागार्जुन
की कविताएं तो पढ़ी हैं लेकिन बाबा का गद्य देखा है क्या... ये ले जाओ, ‘रतिनाथ की चाची’ पढ़ना... पंत
और निराला का कविता-विवाद जरूर पढ़ना चाहिए... और ये देखो,
राम विलास शर्मा ने निराला पर कैसा अद्भुत लिखा है... अरे,
तुमने ‘मुख सरोवर के हंस’ नहीं पढ़ा अभी
तक? फिर क्या पढ़ा यार! और देवेंद्र सत्यार्थी? लोक का अध्ययेता...’बेला फूले सारी रात’. यह लो तुम उस दिन मांग रहे थे गढ़वाली पर राहुल की पुस्तक....और ये ‘निशा निमंत्रण’, जिसमें बच्चन ने नया छंद ईजाद किया
है.’
वे किताबें निकालते जाते, उनके
बारे में बताते जाते... फिर कोई पुरानी पत्रिका का अंक खोल कर बैठ जाते- ‘ये सुनो, गोपाल सिंह नेपाली
का गीत- मां, मत हो नाराज कि मैंने खुद ही मैली की न
चुनरिया...’ और इसमें रामानंद दोषी के बहुत सुंदर गीत छपे
हैं...ये देखो...’ शाम ढलने लगती और कई बार गरम किया खाना एक
बार फिर गरम करतीं देवकी जी रसोई से डांट लगा रही होतीं- नहीं खाते हो आज ये खाना?
काठ के ये दो बड़े बक्से मिला कर उनकी बैठक में रखे रहते और
बैठने की सैटी का काम करते. उस पर खाना भी हो जाता और वक्त-जरूरत झपकी
भी ले ली जाती. ये बक्से जिज्ञासु जी की कीमती सम्पत्ति हैं और आज उनके नहीं रहने
पर भी घर में उनकी उपस्थिति बनाए हुए हैं.
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करीब 31 वर्ष ‘उत्तरायण’ को पूरी तरह
समर्पित करने के बाद जब 1994 में वे रिटायर हुए, तब तक कई
रोगों ने उनके शरीर पर हमला बोल दिया था. एक्जीमा की सूखी पपड़ियां जब पूरे शरीर को
ढक लेती थीं तो उनसे खुजाते भी न बनता था. उनकी सदा सेवारत पत्नी किसी तीली पर दवा
लगा कर उन पपड़ियों को सहलातीं और अपने हाथों खिलाती. खूनी बवासीर जब जोर मारती तो रक्त
चढ़ाने तक की नौबत आ जाती. रक्त चाप बढ़ा, हड्डियां कमजोर पड़ीं, कमर जल्दी झुक गई, दांतों ने धीरे-धीरे साथ देना
छोड़ दिया और चस्मे का शीशा हर साल और मोटा होता गया. उतनी उम्र नहीं हुई थी जितने
के वे लगने लगे थे. तो भी सुबह बरामदे में और दिन में बैठक
में कुर्सी मेज पर बैठ कर वे कविताएं रचते, लेख लिखते, अखबारों-पत्रिकाओं से कतरनें काटते-चिपकाते, अपनी
किताबों की जिल्द सही करते, पुरानी चीजें निकाल कर पढ़ते और
सारा दिन अपने को रचनात्मक रूप से व्यस्त रखते. उनके रिटायर होने के बाद आकाशवाणी
ने उनकी क्षमता और अनुभव का कोई मोल नहीं लगाया. सरकारी तंत्र में इस बात का कोई
मूल्य ही नहीं था कि ‘उत्तरायण’ की
लोकप्रियता और स्तर के पीछे डेढ़ पसलियों के इस व्यक्ति का बड़ा हाथ था. ‘उत्तरायण’ क्रमश: सरकारी गति को प्राप्त होता रहा और
जिज्ञासु नामधारी व्यक्ति के भीतर उसके पतन की पीड़ा ग्रंथियां बन कर जमा होती
रहीं. उनके इर्द-गिर्द चक्कर काटने वाली भीड़ नदारद हो चुकी थी. सुख-दुख बांटने के
लिए नंद कुमार उप्रेती जैसे कुछेक दोस्त बचे थे लेकिन वे भी जल्दी साथ छोड़ गए. जब
कभी मैं उनके पास जाता तो शिकायतों का पुलिंदा तैयार रहता- ‘कोई
नहीं आता यार, अब. और मैं कहीं जा नहीं पाता. अब मैं पढ़ भी
नहीं पाता.’ जबकि उनके हाथ का आकारवर्धक शीशा गवाही देता रहता
कि पढ़ना कैसे छोड़ सकते हैं वे!
मुझसे भी शिकवा कम नहीं होता- ‘कहां
रहते हो यार, तुम भी आज छह महीने बाद आए हो.’ एक-दो महीना उन्हें छह महीने से
ज्यादा ही लगता होगा. जब ज्यादा ही नराई लग जाती थी तब किसी सुबह-सुबह पत्नी के
साथ टेम्पो में बैठ कर हमारे घर आ जाते. अपने साथ कभी मेरे लेखों की कतरनें ले आते, कभी कोई पुरानी किताब या पत्रिकाओं के अंक और कभी पढ़ने के लिए ‘कुछ नया’ मांग ले जाते. एक-कर सबके हाल पूछते- ‘शेखर की कोई चिट्ठी आई? अब चारु चंद्र जी भी पत्र
नहीं लिखते. गिरीश क्या कर रहा है? नैनीताल समाचार तो मुझे
भेजते ही नहीं. पता नहीं दुधबोली का अंक निकला या नहीं? जो-जो याद आ जाता, सबका हाल-चाल पूछते जब तक कि
उनकी पत्नी लगभग डांटते हुए उन्हें उठा नहीं देती- चलो-चलो अब, लता को बैंक की देर हो गई.
वह आदमी जो सारा लखनऊ पैदल नापा करता था, जो
लखनऊ के तमाम मुहल्लों में रचनाधर्मी और संस्कृति प्रेमी पहाड़ियों के घर आंख बंद
करके भी पहुंच जाता था, जो उत्तराखण्ड के मेलों-कौतिकों से
लोकगीतों की रिकॉर्डिंग कर लाने के लिए कष्टदायी यात्राएं किया करता था, उसे लाचार होकर घर बैठे देखना बहुत पीड़ा दायक होता था. पिछले छह-सात साल
से तो वे बिल्कुल घरी गए थे और कोई साल भर से बिस्तर पर,
जबकि क्षीण कान-आंख के साथ स्मृति-लोप ने भी आ घेरा था.
आठ जुलाई को जो हुआ वह वास्तव में मुक्ति थी.
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तसव्वुरात की परछाइयां उभरती हैं-
आकाशवाणी के लॉन की हरी दूब पर जाड़ों की धूप में बैठे वे
मुझे सुना रहे हैं अपनी दास्तां, क्योंकि मैंने ही लगा रखी थी रट-
‘साढे तीन साल का था जब पिता मुझे अपने साथ देहरादून लेते गए.
पिता विशारद-संस्कृत के छात्र थे और पुरोहिताई करते थे. वहीं उन्होंने मुझे पाटी
पर अ-आ-क-ख सिखाए. फिर गीता प्रेस, गोरखपुर की छपी किताबें
लाने लगे. ‘लगु सिद्धान्त कौमुदी’ और ‘अमर कोश’ रटाया. एक श्लोक रटने पर एक पाई मिलती थी.
इसी तरह संस्कृत नाटक भी पढ़ डाले. फिर पिता को दिल्ली जाना पड़ा और दिल्ली से शिमला, जहां 1945 या 1946 में डीएवी हाईस्कूल में छठी में भर्ती कराया गया. एक
कवि सम्मेलन में मदन लाल ‘मधु’ को सुना
जो शिमला में अध्यापक थे. तब कविता का चस्का लगा. शिमला बस अड्डे पर पूर्ण सिंह की
धर्मशाला में एक कवि सम्मेलन सुना, जिसमें पंत, बच्चन, महादेवी और निराला ने काव्य पाठ किया था. उसके
बाद कविता लिखना शुरू किया.’
बाद में मैंने उनसे यह भी पता किया था- जन्म- 21 फरवरी 1934,
ग्राम-नहरा, पोस्ट-मासर, जिला-अल्मोड़ा.
माता- आनदी देवी, पिता- पुरुषोत्तम पाठक. अपना नाम कभी ‘बंसीधर’ लिखते, ‘कभी वंशीधर.’ अंग्रेजी में बी डी पाठक.
आकाशवाणी भवन के गेट पर एक पहाड़ी भाई के चाय के खोंचे पर
जारी है कहानी-
‘सन 1950 में हाईस्कूल किया और पिता के साथ वापस दिल्ली जाने से
इनकार कर दिया. अखबारों-पत्रिकाओं में मेरी कविता और कहानियां छपने लगी थीं. संस्कृत
के ट्यूशन भी पढ़ाता था. जयदेव शर्मा ‘कमल’ से इसी कारण भेंट हुई. कमल जी भारतेंदु विद्यापीठ में हिंदी कविता पढ़ाते
थे. 1953 की बात है शायद, उन्होंने अपनी पत्नी को संस्कृत पढ़ा
देने का अनुरोध किया. यहीं पड़ी हमारी पक्की पारिवरिक दोस्ती की नींव जो आजीवन मजबूत
बनी रही और मेरे आकाशवाणी, लखनऊ में आने का कारण बनी.’
कभी नजरबाग-सुन्दरबाग और कभी क्ले-स्क्वायर-मुरलीनगर की
गलियों में आते-जाते जारी रहता यह किस्सा. मैं कोचता और वे बताते जाते- ‘कमल जी
शिमला, आकाशवाणी केंद्र में नियुक्त हो गए थे. फिर उनका
तबादला दिल्ली और उसके बाद लखनऊ हो गया. मैं उन दिनों खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग, अम्बाला छावनी के दफ्तर में टाइपिस्ट था. एक दिन लखनऊ से कमल जी का
अंतर्देशीय पत्र मिला कि मैं केंद्र निदेशक, आकाशवाणी के नाम
विभागीय कलाकार के रूप में नियुक्ति हेतु आवेदन पत्र भेज दूं. 1962 के चीनी हमले
के बाद भारत सरकार ने उत्तर प्रदेश के सीमांत पर्वतीय अंचल के श्रोताओं के लिए ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम शुरू करने का फैसला किया था, जिसे प्रसारित करने की जिम्मेदारी लखनऊ केंद्र को मिली थी. उसी में एक
जगह निकली थी. मैंने आवेदन पत्र भेजने की बजाय तार भेज दिया कि मैं लखनऊ पहुंच रहा
हूं. इस तरह मैं सात जनवरी 1963 को ‘उत्तरायण’ में विभागीय कलाकार की हैसियत से काम करने लगा. पंद्रह मिनट का कार्यक्रम
अक्टूबर 1962 में शुरू हो चुका था, जिसे जीत जरधारी और कमल
जी संचालित कर रहे थे. उसके बाद इसे मैंने और जरधारी ने चलाया.’ (क्रमश:)
3 comments:
बहुत बहित धन्यवाद आपका "जिज्ञासु" जी के बारे में लिखने के लिए। आगे के अंकों का बेसब्री से इंतजार है।
आपने जो दोनों पुराने चित्र पोस्ट में डालें है, आप क्या चित्र में उपस्थित लोगों के नाम बता सकते है। इनमे से जिज्ञासु जी कौन से है?
बाईं तरफ जिज्ञासु जी हैं और दाहिने जरधारी जी. उत्तरायण की मशहूर जोड़ी.
धन्यवाद हमारी पीढ़ी को जिज्ञासु जी से मिलाने के लिए, उनके बारे मे बहुत सुना था, लेकिन मिलने की हसरत बाकी ही रह गयी, कृपया इसे जारी रखियेगा.. साभार
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