Friday, July 22, 2016

‘धार्मिक कार्य’ तो बहाना, मुद्दा कुछ और है


यह कैसा वक्त आ गया है कि एक मुहल्ले के निवासियों में अपने पार्क में पूजा-पाठ या नमाज-मजलिस के लिए सिर-फुटव्वल की नौबत आ जाती है, पुलिस बल तैनात करना पड़ता है, अंतत: डी एम के दफ्तर में लिखित सुलहनामे पर दस्तखत करा कर दोनों पक्षों के लोगों को गले मिलवाया जाता है! यह तो अपनी रवायत नहीं थी. पड़ोसियों में यह शक-सुबहे और झगड़े कहां से आ गए? यह धर्म के लिए तो नहीं ही हो सकता. अलग-अलग धर्मों के मानने वाले यहां सदियों से मिल कर रहते आए हैं, एक-दूसरे के धार्मिक कार्यों में भागीदार और सहायक होते आए हैं. इसलिए गलत कहा जा रहा है कि धार्मिक आयोजनों के लिए टकराव हुआ. इसकी असली वजह कोई और है.
लखनऊ की मिली-जुली संस्कृति के किस्से दूर-दूर तक कहे-सुने जाते हैं. अभी रमजान बीता है. सहरी के लिए जगाने वाले और रोजा रखने वाले हिंदू भी होते हैं. जेठ के बड़े मंगल पर भण्डारा लगाने वाले मुसलमान यहां अजूबा कैसे हो सकते हैं जबकि अलीगंज के पुराने हनुमान मंदिर के बुर्ज पर चांद-तारा जड़ा हो और पड़ायन (पण्डितयन) के नाम से भी मस्जिद जानी जाती हो! यहां गुरुद्वारे में नमाज पढ़ी जाती है और अजान के समय घण्टे-घड़ियाल बंद कर दिए जाते हैं. मुहल्ले के पार्क में धार्मिक आयोजनके नाम पर फसाद करने वाले इस रवायत से अनजान नहीं हो सकते. वे जरूर किन्हीं और बातों के फेर में आ गए होंगे. ये कैसी बाते हैं? इन्हें चुपके-चुपके कौन फैला रहा है और हाल के सालों में इनमें इजाफा क्यों हो रहा है?
बैठकों और महफिलों में, समारोहों और उत्सवों में आजकल लोग अचानक उत्तेजित क्यों होने लगे हैं? परिवार और दोस्तों में किन बातों पर तीखे विवाद होने लगे हैं ? ध्यान दीजिए कि इन बातों का हमारे रोजमर्रा के जीवन से, हमारी मौजूदा समस्याओं से और हम सबके दुख-दर्दों से कोई वास्ता नहीं है. उस दिन पान की दुकान पर चार-छह लोग सातवें वेतन आयोग का फायदा जोड़ते-जोड़ते अचानक गोमांस का मुद्दा ले बैठे. फिर हिन्दू और मुसलमान की बात होने लगी. किसी ने देश का संविधान बनाने वालों को गाले दी तो कोई अल्पसंख्यकों को सिर पर बैठाने की निंदा करने लगा. हजारों वर्षों से इस देश की इंद्रधनुषी चादर की तरफदारी करने वाले पर सब मिलकर चढ़ बैठे. गर्मा-गर्मी पान वाले की इस विनती पर विसर्जित हुई कि माई-बाप मेरी रोजी-रोटी से क्यों दुश्मनी निकाल रहे हैं. बिल्कुल सही बात. हमारी मुश्किल होती रोजी-रोटी और जीवन-स्तर पर कोई गुस्सा नहीं हो रहा. लोग शिक्षा की दुकानदारी, अनियंत्रित महंगाई, उपेक्षित स्वास्थ्य सुविधाओं, गिरती कानून-व्यवस्था, खुले में सड़ते अनाज और भुखमरी पर बहस नहीं कर रहे. इनके कारणों पर वे चर्चा नहीं कर रहे जिनका कि हमारा सुकून छिन जाने से सीधा वास्ता है.

गाएं पहले भी मरती थीं लेकिन उनकी खाल निकाल कर रोजी कमाने को मजबूर दलितों पर इस तरह कहर बरपा नहीं होता था. उन्हें इस नारकीय काम से मुक्ति दिलानी थी लेकिन बर्बरता से मौत दी जा रही है. कहां से पैदा हो गईं जगह-जगह ये गोरक्षा समितियां, जिन्हें मनुष्य की चिंता नहीं, जिन्हें कचरा खाती और पॉलिथीन से घुट कर मरती गायों की भी चिंता नहीं? समाज में यह जहर कौन घोल रहा है? कौन हैं जो अफवाहें फैला कर जनता को भड़का रहे हैं? उनके मंसूबे क्या हैं? उनके पीछे कौन सी ताकतें हैं? यह समझना और समझाना आज बहुत जरूरी है. सवाल कीजिए और जवाब तलाशिए? बहकावे में मत आइए, सुनी-सुनाई बातों, सोशल साइट्स के झूठ पर मत जाइए.
(नभाटा, लखनऊ, 22 जुलाई 2016) 

1 comment:

सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...

सही बात लिखी है आपने। अगर अचानक यह सब हो रहा है तो निश्चित ही इसके कारण है, जो निहित स्वार्थ के अतिरिक्त कुछ नही है। आपने अपनी बात सरलता से और सहजता से कही है, लेकिन जिनके सन्दर्भ में कही है, असली समस्या उनके समझने की है। आप अलख जगाये रखें, कभी तो लोग समझेंगे।