Sunday, August 14, 2016

मायावती को कमजोर आंकना अभी गलत होगा

नवीन जोशी

देश की राजनीति पर इस समय दलितों के स्वाभिमान और अधिकारों का मुद्दा छाया हुआ है. भाजपा जैसी सवर्णपार्टी लोक सभा चुनाव के बाद से ही दलितों को रिझाने के उपाय करती रही है. बिहार चुनाव में हार के बाद यू पी चुनाव की रणनीति में उसने दलित वोटों के लिए और भी बाजीगरियां कीं. मगर भाजपाई-संघी गौ-रक्षकों ने देश के कई हिस्सों में दलितों पर जिस तरह बर्बर हमले किए, उसने भाजपा के दलित प्रेम की हवा निकाल दी. तभी तो प्रधानमंत्री को इस मुद्दे पर अपनी चुप्पी तोड़नी पड़ी. यू पी में चुनावी नाव पार लगाने के लिए भाजपा ही नहीं, सभी दलों को दलित वोट बहुत जरूरी लग रहे हैं. तो, ऐसे समय यू पी में दलित वोटों की अब तक एकछत्र नेत्री रहीं मायावती का क्या हाल है?  इधर दो-ढाई महीने से अचानक यह सवाल क्यों पूछा जाने लगा है कि क्या मायावती का राजनीतिक प्रभाव कम हो गया है या उतार पर है?
हाल तक माना जा रहा था कि 2017 का सत्ता संग्राम भाजपा बनाम बसपा होगा. भाजपा लोक सभा चुनाव के बाद से ही यहां सता की प्रमुख दावेदार बनी हुई है, समाजवादी पार्टी की सरकार ने युवा अखिलेश की अपेक्षाकृत अच्छी छवि के बावजूद साख खो दी है और कांग्रेस अपनी बची खुची जमीन भी बचा सके तो बहुत होगा. इसी आधार पर कहा जा रहा था कि मायावती ही हैं जो अपने ठोस दलित आधार तथा कानून-व्यवस्था पर पकड़ के कारण भाजपा को जोरदार टक्कर देंगी. लेकिन जून में स्वामी प्रसाद मौर्य और फिर जुलाई में आर के चौधरी जैसे पुराने वफादारों के पार्टी छोड़ देने से बसपा को कितना बड़ा धक्का लगा है?  मौर्य के भाजपा में चले जाने से उसे फायदा और बसपा को बड़े कितना नुकसान होने के तर्क दिए जा रहे हैं.  
क्या वास्तव में दलितों पर मायावती का प्रभाव वैसा नहीं रहा? मौर्य और चौधरी जैसे नेताओं ने कुछ संकेत पकड़े हैं या यह उनकी निजी खुन्नस है? बड़ी रकम ले कर टिकट देने के आरोप मायावती के लिए नए नहीं हैं. यू पी की सत्ता में चार बार आकर मायावती ने दलितों का स्वाभिमान जगाने और उनके सामाजिक सशक्तीकरण का महत्वपूर्ण काम किया है. लेकिन इस लड़ाई को वे आर्थिक सशक्तीकरण और दूसरे जरूरी मोर्चों तक नहीं ले जा सकी. अन्य राज्यों में भी वे पकड़ नहीं बना सकीं. कांशी राम के समय से अब तक दलितों की नई पीढ़ियां बड़ी हो गई हैं और वे सिर्फ स्मारक और मूर्तियों से खुश होने वाली नहीं. अगर मायावती कमजोर पड़ेंगी तो इसी वजह से, वर्ना बसपा छोड़ने वाले नेता, मौर्य हों या चौधरी, उन्हें बड़ा नुकसान नहीं पहुंचा पाएंगे. दलितों का बड़ा वर्ग अब भी मायावती को ही अपनी नेता मानता है. उनके पास कोई बेहतर विकल्प है भी नहीं. लोक सभा चुनाव में दलित वोट भाजपा के पक्ष में भी गए थे लेकिन एक तो विधान सभा चुनाव के मुद्दे फर्क होते हैं, दूसरे भाजपा का असली दलित विरोधी चेहरा उसके ही स्वयंभू सेनानियों ने खूब उजागर कर दिया है. मायावती को अभी कमजोर आंकना गलती होगी.  (नभाटा, 14 अगस्त 2016)


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