नवीन जोशी
सन 2017 में उत्तर प्रदेश की सत्ता किस दल के
हाथ में जाएगी, इस महत्वपूर्ण
प्रश्न के अलावा राजनीतिक विश्लेषकों से लेकर जनता तक की उत्सुकता के केंद्र में यह भी है कि कांग्रेस का क्या होगा? अपने अस्तित्व की सबसे कठिन चुनौती से जूझ रही पार्टी यूपी
से ससम्मान वापसी की राह पर आ पाएगी या राजनीतिक बियाबान में और पीछे जाती रहेगी? कांग्रेस स्वयं भी इसे ‘करो या मरो’ जैसी लड़ाई
मान कर चल रही है. इसीलिए उसने कम से कम यूपी में नया अवतार ग्रहण करने का प्रयास
किया है. शीर्ष पर नेहरू गांधी की वंश
पताका लहराते हुए जो भी सम्भव था, वह उसने कर डाला. इस जंग के लिए नए महारथी और नए हथियार जुटाए हैं.
मुख्यमंत्री पद की घोषित उम्मीदवार शीला दीक्षित, नए प्रदेशाध्यक्ष राजबब्बर, उनकी नई टीम और नेपथ्य से प्रशांत किशोर के चुनाव प्रबंधन का पहला प्रदर्शन
राहुल गांधी की लखनऊ रैली में दिखाई दिया. जो आशातीत भीड़ जुटी उसने विपक्षियों को
तो चौंकाया ही, कांग्रेस
कार्यकर्ताओं में जरूरी जोश भी भरा है. नरेंद्र मोदी के चुनाव क्षेत्र में सोनिया
का रोड शो इसी की अगली कड़ी रही.
देखना यह होगा कि भीड़ जुटाने में सफल हुए सम्भावित कांग्रेसी प्रत्याशी क्या उसे
अपने लिए वोटों में बदल पाएंगे? प्रशांत किशोर के चुनावी प्रबंधन कौशल के कारण कांग्रेस का टिकट चाहने वालों
ने अपनी दावेदारी मजबूत करने के लिए भीड़ जुटाने में पूरी क्षमता झौंकी. अब वही भीड़
कांग्रेसी उम्मीदवारों को वोट भी देगी और किस आधार पर, यह कैसे कहा
जा सकता है? कांग्रेस का
नारा ‘27 साल यू पी बेहाल’ प्रदेश से ज्यादा कांग्रेस की बेहाली बयां करता लगता है. तो
भी कांग्रेस कुछ फायदे में रह सकती है. उसका कारण शीला दीक्षित या राजबब्बर नहीं, प्रदेश की राजनीतिक स्थितियां और चौकौनी लड़ाइयां होंगी. राहुल
गांधी की लखनऊ रैली और सोनिया के वाराणसी रोड शो का टेम्पो कांग्रेसी बनाए रख सके
तो पार्टी आम जनता की नजर में चढ़ेगी और जमीनी स्तर के कार्यकर्ता उत्साहित होंगे.
प्रश्न यह भी कि इस स्तर के कार्यकर्ता कांग्रेस के पास बचे कितना हैं?
कांग्रेस को पुनर्जीवित करने और उसे तेवरदार नेतृत्व देने में राहुल की विफलता
जग जाहिर है. इस मजबूरी का विकल्प काफी समय से प्रियंका-प्रियंका की गुहार लगा कर
तलाशा जा रहा है. अबकी शीला दीक्षित ने खुले आम और गुलाम नबी आजाद एवंर राजबब्बर
ने इशारों में प्रियंका को स्टार प्रचारक के रूप में उतारने की मांग कर दी है.
क्या सोनिया प्रियंका को इस भूमिका में उतारेंगी? लेकिन प्रियंका में भी इंदिरा गांधी से छवि-साम्य के अलावा और क्या है? स्पष्ट दिशा, प्रखर नेतृत्व और जनता को आकर्षित करने लायक ठोस कार्यक्रमों की कांग्रेस को
बड़ी जरूरत है. हमारा प्रदेश जातीय-धार्मिक राजनीति का भी गढ़ बना हुआ है. भाजपा तक
नरेंद्र मोदी का विकास एजेण्डा छोड़ कर जातीय-धार्मिक ध्रुवीकरण पर उतारू है. इस
दलदल में कांग्रेस किस वोट-बैंक का भरोसा करे? चुनाव मैदान में वह जोर-शोर से ताल तो ठोक रही है लेकिन खुद उसके पहलवान और
उस्ताद अभी कई सवालों से जूझने में लगे हैं. (नभाटा, 7 अगस्त 2016)
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