नवीन जोशी
समाजवादी पार्टी का अंदरूनी सत्ता-संघर्ष न तो नया है और न ही पहली बार सामने
आया है. चुनाव पूर्व नाजुक समय पर इसके कुछ और तेजी से भड़क उठने के बाद मौजू सवाल
यह है कि पार्टी की चुनावी सम्भावनाओं पर यह कैसा और कितना असर डालेगा? चचा-भतीजे की रार परिवार की तनातनी तक सीमित रहेगी या
पार्टी का भी सिरदर्द बनेगी?
सपा की इस पालेबंदी को अगर अंदरूनी झगड़े की बजाय विचार एवं शैली के विरोधाभास
के रूप में देखें तो दो धाराएं दिखती हैं. पहली शिवपाल की शैली है जो मुलायम ही की
परम्परा है. उसमें चुनाव जिता सकने में समर्थ कोई भी ‘नेता’ अपराधी नहीं होता. डी
पी यादव या मुख्तार संसारी सहज स्वीकार्य और उपादेय होते हैं . उनका भरपूर
इस्तेमाल किया जाता है. दूसरी धारा अखिलेश की है जो 2012 के डी पी यादव प्रकरण के
बाद उनकी छवि के साथ जोड़ दी गई. अखिलेश के युवा और बेदाग चहरे के साथ इसे सपा का
नया ब्राण्ड बताया जाने लगा. पिछले साढ़े चार साल में ये दो धाराएं समानांतर चलती
रहीं. एक का प्रतिनिधित्व शिवपाल करते रहे और दूसरा मुख्यमंत्री के रूप में अखिलेश
के साथ जुड़ा रहा. अखिलेश यादव की समस्या यह है कि वे अपनी धारा का सिक्का जमा नहीं
पाए या उन्हें इसका मौका ही नहीं दिया गया, जबकि
शिवपाल ने न केवल पार्टी में बल्कि सरकार में भी अपनी पकड़ बढाई और जब-तब जोर भी
दिखाया. मुलायम दोनों में संतुलन बनाने की कोशिश में लगे रहे. शिवपाल की तुलना में
उनका चाबुक अखिलेश पर ज्यादा चला. चुनाव वेला में शिवपाल ने दवाब बढ़ा दिया है.
उन्हें मुख्तार जैसे तत्व चुनाव जीतने के लिए जरूरी लगते हैं. मुलायम इससे इनकार
नहीं कर सकते. उन्हें दोनों चाहिए- अखिलेश की छवि और शिवपाल के बहाने अपने ही
पुराने दांव-पेंच.
अगला विधान सभा चुनाव सपा फिर अखिलेश के युवा और साफ-सुथरे चेहरे को आगे करके
लड़ने जा रही है. मगर खुद अखिलेश भी यह गारण्टी नहीं दे सकते कि अच्छी छवि ही से चुनाव
जीता जा सकता है. उसके लिए जातीय-धार्मिक समीकरण साधने के अलावा अराजक और आपराधिक
तत्वों का सामंजस्य भी बैठाना पड़ता है. एक-एक सीट के जीतने के दांव-पेच चलने पड़ते
हैं. मुकाबिल इस बार बसपा से ज्यादा भाजपा है जो नरेंद्र मोदी-अमित शाह के आक्रामक
नेतृत्व में चुनाव जीतने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार है. इसलिए मुलायम की मजबूरी है कि वे शिवपाल सिंह की
कवायद को अखिलेश से ज्यादा तरजीह दें. इसलिए मुख्तार अंसारी या उन जैसे दूसरे कुछ
और भी सपा के खेमे में फिर दिखाई देने लगें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. बल्कि आने
वाले महीनों में हम ऐसे कई बदलाव देखेंगे. दूसरे दलों के विधायकों, आदि की अदला-बदली शुरू हो ही चुकी है. सपा के लिए मुस्लिम
वोट बहुत महत्वपूर्ण हैं लेकिन अखिलेश सरकार ने अपनी कई योजनाओं से सवर्ण हिंदुओं
को खुश करने की खूब कोशिश की है.
सपा में भीतरी खींच-तान तो रहेगी लेकिन दोनों पाले इसे उस हद तक नहीं जाने
देंगे जहां से पूरी पार्टी कमजोर होने लगे. शेष समर चुनाव बाद देखा जाएगा. (नभाटा. 21 अगस्त, 2016)
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