नवीन जोशी
बसपा में स्वामी प्रसाद मौर्य एवं आर के चौधरी जैसे बड़े
नेताओं की बगावत और कुछ विधायकों के निष्कासन/दलबदल के बाद मायावती को कमजोर मान
रहे राजनीतिक विश्लेषकों को उनकी आगरा रैली से जवाब मिल गया होगा. हालांकि आगरा
रैली के अगले ही दिन यानी 22 अगस्त को पूर्व सांसद ब्रजेश पाठक भी बसपा छोड़कर भाजपा में शामिल हो
गए. स्वामी और चौधरी की तुलना में ब्रजेश पाठक की खास गिनती नहीं है. भाजपा खुश हो
सकती है कि उसने बसपा का एक ब्राह्मण नेता तोड़ लिया है लेकिन बसपा को इससे बहुत
फर्क पड़ने वाला नहीं है. आज तक बसपा को छोड़ कर जितने भी नेता गए हैं वे बसपा को
खास नुकसान नहीं पहुंचा सके. बसपा जिस तरह की पार्टी है और जो उसका जनाधार है वह
अब तक बहन जी के इशारों पर चलता आया है. इस स्थिति में फिलहाल कोई बदलाव होता नहीं
दिखता.
2017 के विधान सभा चुनाव के लिए अपनी चुनावी रैलियों की शुरुआत मायावती ने 20 अगस्त को आगरा
से की है. दीपावली तक वे हर इतवार ऐसी रैलियां प्रदेश के विभिन्न भागों में
करेंगी. उसके बाद दूसरा चरण शुरू होगा. आगरा रैली में जो भारी भीड़ जुटी उससे कहीं
भी नहीं लगता कि मायावती का प्रभाव कम हो रहा है. अपने दलित वोट बैंक पर उनकी पकड़
कायम है. यह अलग बात है कि सत्ता में आने के लिए उन्हें इस वोट बैंक के अलावा भी
मतदाता चाहिए. जैसे, 2007 में ब्राह्मणों का व्यापक समर्थन
उन्हें मिला था. ब्राह्मण अब शायद उनके साथ उस तरह नहीं होंगे. ब्राह्मण वोटों के
लिए बड़ी जद्दोजहद चल रही है. कांग्रेस ने अपने इस पुराने वोट समुदाय से इस बार बड़ी
उम्मीद लगा रखी है. शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश करना
इसी रणनीति का हिस्सा है. मायावती इस बदले माहौल से खूब परिचित हैं. इसीलिए वे इस
बार मुसलमानों पर ज्यादा फोकस कर रही हैं. दलित-मुस्लिम वोट बैंक काफी महत्वपूर्ण
हो जाता है. सवर्णों से मायावती ने ध्यान नहीं हटाया है लेकिन प्रदेश विधान सभा की
403 सीटों में एक सौ सीटों पर मुसलमानों को टिकट देकर उन्होंने अपनी मंशा साफ कर
दी है. बसपा अपने सभी उम्मीदवार तय कर चुकी है और पार्टी के स्तर पर घोषणा भी की
जा चुकी है. इसमें कुछ ही बदलाव होंगे, जो कि मायावती ही
करेंगी.
लोक सभा चुनाव में बसपा प्रदेश की एक भी सीट नहीं जीत सकी
थी. तभी से मायावती के कमजोर पड़ने की चर्चाएं चलती रहीं हैं. दलित मतदाताओं का भी
एक हिस्सा तब नरेंद्र मोदी के साथ गया था.
लेकिन यह देखना चाहिए कि 2014 का लोक सभा चुनाव बिल्कुल दूसरे मुद्दे पर लड़ा
गया. उस समय राजनीतिक नेतृत्व में बदलाव
की लहर थी और जनता को नरेंद्र मोदी के रूप में एक सक्रिय और तेज-तर्रार नेता दिखाई
दे रहा था. 2014 के नतीजे बदलाव के पक्ष में दिए गए थे और दलितों का भी उसमें
योगदान था. उसके बावजूद बसपा का वोट
प्रतिशत ज्यादा गिरा नहीं था. सिर्फ यू पी
की बात करें तो बसपा को 2014 में 19.60 फीसदी वोट मिले थे, हालांकि सीट एक भी नहीं मिली थी. सपा के हिस्से 22.20 प्रतिशत वोट आए थे
और पांच सीटें. वोट प्रतिशत के मामले में राष्ट्रीय स्तर पर बसपा, भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बाद तीसरे नम्बर का दल बना था. वोट प्रतिशत
और सीटों का गणित अनेक बार उलझा हुआ होता है. कांग्रेस का उदाहरण देख सकते हैं,
जिसे मात्र 7.50 फीसदी वोट मिले लेकिन उसके हिस्से दो सीटें आई थीं.
तो, लोक सभा चुनाव नतीओं के आधार पर बसपा यानी
मायावती को विधान सभा चुनाव में भी कमजोर आंकना गलत होगा.परिवर्तन के प्रतीक बने
नरेंद्र मोदी का जादू भी दो साल में टूटा है. दूसरे, स्वामी
प्रसाद मौर्य एवं आर के चौधरी जैसे नेताओं के बसपा छोड़ने का बहुत नुकसान मायावती
को नहीं होना है. ध्यान दीजिए कि कांशी राम का युग बीतने के बाद मायावती के
तानाशाही रवैए से खिन्न होकर बसपा के कई पुराने नेता बाहर जाते रहे हैं. खुद आर के
चौधरी ने पार्टी छोड़ दी थी और कई साल बाद उन्हें पार्टी में वापस लिया गया था. आम
तौर पर मायवती पार्टी छोड़कर जाने वालों को वापस नहीं लेतीं लेकिन आर के चौधरी इसके
अपवाद बने थे. चौधरी जमीनी नेता हैं और पासियों पर उनका अच्छा प्रभाव है. इसके
बावजूद वे बसपा को बड़ा नुकसान नहीं पहुंचा सके थे. मौर्य बसपा का प्रमुख पिछड़ा चेहरा
थे लेकिन वे जानते थे कि अलग पार्टी बना कर वे बसपा को नुकसान पहुंचा पाएंगे न कुछ
खास हासिल कर पाएंगे. इसलिए काफी सोच-समझ कर वे भाजपा में चले गए. यह बात भी नोट
की जानी चाहिए कि बसपा छोड़ने वाले नेता मायावती पर भारी रकम लेकर टिकट बांटने और
दलित हितों की उपेक्षा करने आरोप लगाते रहे हैं. मायावती के लिए ये आरोप नए नहीं
हैं. सब जानते हैं कि मायावती बड़ी रकम ले कर टिकट देती रही हैं. दलित वोटरों पर इस
आरोप का पहले असर पड़ा न अब पड़ने वाला है.
इसके विपरीत यह देखा जाना चाहिए कि मायावती आज भी दलितों की
अलगभग एकछत्र नेत्री क्यों बनी हुई हैं. यू पी की सत्ता में चार बार आकर मायावती
ने दलितों का स्वाभिमान जगाने और उनके सामाजिक सशक्तीकरण का महत्वपूर्ण काम किया
है. यू पी में दलित अब चुपचाप दमन सहन नहीं करते. वे सीना तान कर विरोध करते और
लड़ते हैं. यह बहुत महत्वपूर्ण बदलाव है और इसका श्रेय राजनीतिक सत्ता से मिली
सामाजिक ताकत है. यह अलग बात है कि यह राजनीतिक सत्ता मायावती और उनके इर्द-गिर्द
ही सीमित रही और आम दलित को उसमें हिस्सेदारी नहीं मिली. यह भी सच है कि मायावती दलित स्वाभिमान की लड़ाई को आर्थिक सशक्तीकरण और
दूसरे जरूरी मोर्चों तक नहीं ले जा सकी. कांशी राम के समय से अब तक दलितों की नई
पीढ़ियां बड़ी हो गई हैं और वे सिर्फ स्मारक और मूर्तियों से खुश होने वाली नहीं.
अगर मायावती कमजोर पड़ेंगी तो इसी वजह से, वर्ना बसपा छोड़ने
वाले नेता, मौर्य हों या चौधरी या पाठक, उन्हें बड़ा नुकसान नहीं पहुंचा पाएंगे. दलितों का बड़ा वर्ग अब भी मायावती
को ही अपनी नेता मानता है. उनके पास कोई बेहतर विकल्प है भी नहीं.
गौर कीजिए कि हाल तक सभी मान भी रहे थे कि 2017 का सत्ता संग्राम भाजपा
बनाम बसपा होगा. भाजपा लोक सभा चुनाव के बाद से ही यहां सता की प्रमुख दावेदार बनी
हुई है, समाजवादी पार्टी की सरकार ने युवा अखिलेश की अपेक्षाकृत अच्छी
छवि के बावजूद साख खो दी है और कांग्रेस अपनी बची खुची जमीन भी बचा सके तो बहुत
होगा. इसी आधार पर कहा जा रहा था कि मायावती ही हैं जो अपने ठोस दलित आधार तथा
कानून-व्यवस्था पर पकड़ के कारण भाजपा को जोरदार टक्कर देंगी. लेकिन जून में स्वामी
प्रसाद मौर्य और फिर जुलाई में आर के चौधरी जैसे पुराने वफादारों के पार्टी छोड़
देने से बसपा को कमजोर आंका जाने लगा. लेकिन जैसा हम ऊपर कह चुके हैं इन नेताओं के
चले जाने से बसपा को बड़ा नुकसान होने के आसार नहीं हैं.
आने वाले विधान सभा चुनाव में मायावती की सफलता इस पर
निर्भर करेगी कि वे दलितों के अलावा और किस वर्ग का कितना समर्थन हासिल कर पाती
हैं. क्या मुसलमान सपा से छिटक कर उन्हें समर्थन देंगे? फिलहाल तो वे इसी समीकरण पर काम कर रही हैं. हाल में देश भर में दलितों और
मुसलमानों पर हुए हमलों को वे चुनावी मुद्दा बना रही हैं. भाजपा पर उनके हमले का
मुख्य आधार यही हैं. भाजपा और उसके अनुषांगिक संगठनों ने जिस तरह ‘बीफ’ के बहाने दलितों और मुसलमानों पर हमले किए हैं,
वह मायावती के लिए बेहतर चुनावी औजार बना है. मुसलमानों का वास्तविक
हित न करने के लिए सपा भी उनके निशाने पर है. आगरा की रैली में एक खास बात यह देखी
गई कि कांग्रेस के प्रति मायावती का रुख नरम रहा. इसका कोई बड़ा संकेत निकालना अभी
जल्दबाजी होगी. इतना तय है कि मायावती की चुनावी रणनीति अधिक से अधिक मुस्लिम
समर्थन हासिल करना होगी. इससे जहां वे
भाजपा के खिलाफ मुख्य लड़ाई में होने का संदेश दे पाएंगी वहीं सपा को भी कमजोर बना
सकेंगी. भाजपा विरोधी मतदाता, विशेष कर मुसलमान यह देखते हैं
कि भाजपा प्रत्याशी को हराने में कौन सक्षम है. उनका वोट उसी को मिलता है. मायावती
बसपा को इस स्थिति में पेश कर सकीं तो सपा को बड़ी मुश्किल होगी. अपने दलित आधार को
कायम रखते हुए मायावती इसी पेशबंदी में लगी हैं.
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