(फरवरी 1935 में लिखा गया जवाहरलाल
नेहरू का यह लेख उस दौरान हुए लाहौर शीशगंज गुरुद्वारा बनाम मस्जिद के विवाद पर केंद्रित
था. मूल लेख , जिसका शीर्षक "दो मस्जिदें" था, का यह सम्पादिन अंश आज के साम्प्रदायिक और तनावपूर्ण माहौल में बहुत प्रासंगिक
है- नवीन जोशी)
आजकल अखबारों में लाहौर की
शहीदगंज मस्जिद की प्रतिदिन कुछ-न-कुछ चर्चा होती है। शहर में काफी खलबली मची हुई
है। दोनों तरफ महजबी जोश दिखता है। एक-दूसरे पर हमले होते हैं, एक-दूसरे की बदनीयती की शिकायतें होती हैं और बीच में एक पंच की तरह
अंग्रेज-हुकूमत अपनी ताकत दिखलाती है। मुझे न तो वाकयात ही ठीक-ठाक मालूम है कि
किसने यह सिलसिला पहले छेड़ा था या किसकी गलती थी और न इसकी जांच करने की ही मेरी
कोई इच्छा है। इस तरह के धार्मिक जोश में मुझे बहुत दिलचस्पी भी नहीं है, लेकिन दिलचस्पी हो या न हो, जब वह दुर्भाग्य से पैदा
हो जाए, तो उसका सामना करना ही पड़ता है। मैं सोचता था कि हम
लोग इस देश में कितने पिछड़े हुए हैं कि अदना-सी बातों पर जान देने को उतारू हो
जाते हैं, पर अपनी गुलामी और फाकेमस्ती सहने को तैयार रहते
हैं।
इस मस्जिद से मेरा ध्यान भटककर एक दूसरी मस्जिद की तरफ जा पहुंचा।
वह बहुत प्रसिद्ध ऐतिहासिक मस्जिद है और करीब चौदह सौ वर्ष से उसकी तरफ
लाखों-करोड़ों निगाहें देखती आई हैं। वह इस्लाम से भी पुरानी है और उसने अपनी इस
लंबी जिंदगी में न जाने कितनी बातें देखीं। उसके सामने बड़े-बड़े साम्राज्य गिरे, पुरानी सल्तनतों का नाश हुआ, धार्मिक परिवर्तन हुए।
खामोशी से उसने यह सब देखा। बुजुर्गी और शान उसके एक-एक पत्थर से टपकती है। क्या
सोचते होंगे उसके पत्थर, जब वे आज भी अपनी ऊंचाई से मनुष्यों
की भीड़ को देखते होंगे- बच्चों के खेल, बड़ों की लड़ाई,
फरेब और बेवकूफी? हजारों वर्षो में इन्होंने
कितना कम सीखा! कितने दिन और लगेंगे कि इनको अक्ल और समझ आए?
ईसा की चौथी सदी खत्म होने वाली थी, जब
कांसटेंटिनोपल (उर्फ कुस्तुंतुनिया) का जन्म हुआ। कुस्तुंतुनिया में सम्राटों की
आज्ञा से बड़ी-बड़ी इमारतें बनीं और बहुत जल्दी वह एक विशाल नगर हो गया। उस समय
यूरोप में कोई दूसरा शहर उसका मुकाबला नहीं कर सकता था- रोम भी बिल्कुल पिछड़ गया
था। वहां की इमारतें नई तर्ज की बनीं, भवन बनाने की नई कला
का प्रादुर्भाव हुआ, जिसमें मेहराब, गुंबज,
बुजिर्यां, खंभे इत्यादि अपनी तर्ज के थे और
जिसके अंदर खंभों आदि का बारीक मोजाइक (पच्चीकारी) का काम होता था। यह इमारती कला
बाइजेंटाइन कला के नाम से प्रसिद्ध है। छठी सदी में कुस्तुंतुनिया में एक आलीशान
कैथीड्रल (बड़ा गिरजाघर) इस कला का बनाया गया, जो सांक्टा
सोफिया या सेंट सोफिया के नाम से मशहूर हुआ। सेंट सोफिया का केथीड्रल ग्रीक
चर्च-धर्म का केंद्र था और नौ सौ वर्ष तक ऐसा ही रहा।
15वीं सदी में उसमानवी तुर्को ने कुस्तुंतुनिया पर
फतह पाई। नतीजा यह हुआ कि वहां का जो सबसे बड़ा ईसाई केथीड्रल था, वह अब सबसे बड़ी मस्जिद हो गई। सेंट सोफिया का नाम ‘आया
सुफीया’ हो गया। उसकी यह नई जिंदगी भी लंबी निकली- सैकड़ों
वर्षो की। वह आलीशान मस्जिद एक ऐसी निशानी बन गई, जिस पर
दूर-दूर से निगाहें आकर टकरातीं थीं और बड़े मंसूबे गांठती थीं। उन्नीसवीं सदी में
तुर्की साम्राज्य कमजोर हो रहा था। रूस कुस्तुंतुनिया की ओर लोभ भरी आंखों से
देखता था। रूस के जार अपने को पूर्वी रोमन सम्राटों के वारिस समझते थे और उनकी
पुरानी राजधानी को अपने कब्जे में लेना चाहते थे। रूस को यह असह्य था कि उसके धर्म
का सबसे पुराना और प्रतिष्ठित गिरजा घर मस्जिद बनी रहे।
धीरे-धीरे 19वीं सदी में जारों का रूस कुस्तुंतुनिया की ओर
बढ़ता गया, लेकिन उनके ये मंसूबे पूरे नहीं हुए। उसके पहले
जारों का रूस ही खत्म हो गया। वहां क्रांति हुई और हुकूमत व समाज दोनों में
उलट-फेर हो गया। बोलशेविकों नेघोषणा की कि वे (बोलशेविक) साम्राज्यवाद के विरुद्ध
हैं और किसी दूसरे देश पर अपना अधिकार नहीं जमाना चाहते। हरेक जाति को स्वतंत्र
रहने का अधिकार है। लेकिन अंग्रेजों ने कुस्तुंतुनिया पर कब्जा किया। 486 वर्ष बाद इस पुराने शहर की हुकूमत इस्लामी हाथों से निकलकर फिर ईसाई हाथों
में आई। सुल्तान खलीफा जरूर मौजूद थे, लेकिन वह एक गुड्डे की
भांति थे। जिधर मोड़ दिए जाएं, उधर ही घूम जाते थे। आया
सुफीया भी हस्बमामूल खड़ी थी और मस्जिद भी, लेकिन उसकी वह
शान कहां, जो आजाद वक्त में थी, जब
स्वयं सुलतान उसमें जुमे की नमाज पढ़ने जाते थे। सुलतान ने सिर झुकाया, खलीफा ने गुलामी तसलीम की, लेकिन चंद तुर्क ऐसे थे,
जिनको यह स्वीकार न था। उनमें से एक मुस्तफा कमाल थे, जिन्होंने गुलामी से बगावत को बेहतर समझा।
मुस्तफा कमाल पाशा ने अपने देश से ग्रीक फौजों को बुरी तरह हराकर
निकाला। उन्होंने सुलतान खलीफा को, जिसने अपने
मुल्क के दुश्मनों का साथ दिया था, गद्दार कहकर निकाल दिया।
उन्होंने अपने गिरे और थके हुए मुल्क को हजार कठिनाइयों और दुश्मनों के होते हुए
भी खड़ा किया और उसमें फिर से नई जान फूंक दी। पुरानी राजधानी कुस्तुंतुनिया का
नाम भी बदल गया-वह इस्ताम्बूल हो गया।
और आया सुफीया? उसका क्या हाल हुआ?
वह चौदह सौ वर्ष की इमारत इस्ताम्बूल में खड़ी है और जिंदगी की
ऊंच-नीच को देखती जाती है। नौ सौ वर्ष तक उसने ग्रीक धार्मिक गाने सुने और अनेक
सुगंधियों को, जो ग्रीक पूजा में रहती है, सूंघा। फिर चार सौ अस्सी वर्ष तक अरबी अजान की आवाज उसके कानों में आई। और
अब?
एक दिन कुछ महीनों की बात है, इसी साल-1935
में-गाजी मुस्तफा कमाल पाशा के हुक्म से आया सुफीया मस्जिद नहीं
रही। बगैर किसी धूमधाम के वहां के मुस्लिम-मुल्ला वगैरा हटा दिए गए और अन्य
मस्जिदों में भेज दिए गए। अब यह तय हुआ कि आया सुफीया बजाय मस्जिद के संग्रहालय हो,
खासकर बाइजेंटाइन कलाओं का। बाइजेंटाइन जमाना तुर्को के आने से पहले
का ईसाई जमाना था। इसलिए अब आया सुफीया एक प्रकार से फिर ईसाई जमाने को वापस चली
गई, मुस्तफा कमाल के हुक्म से।
आजकल जोरों से खुदाई हो रही है। जहां-जहां मिट्टी जम गई थी, हटाई जा रही है और पुराने पच्चीकारों के नमूने निकल रहे हैं। बाइजेंटाइन
कला के जानने वाले अमेरिका और जर्मनी से बुलाए गए हैं और उन्हीं की निगरानी में
काम हो रहा है। आप अंदर जाकर इस प्रसिद्ध पुरानी कला के नमूने देखिए और
देखते-देखते इस संसार के विचित्र इतिहास पर विचार कीजिए, अपने
दिमाग को हजारों वर्ष आगे-पीछे दौड़ाइए। क्या-क्या तस्वीरें, क्या-क्या तमाशे, क्या-क्या जुल्म आपके सामने आते
हैं! उन दीवारों से कहिए कि वे आपको अपनी कहानी सुनावें, अपने
तजुर्बे आपको दे दें। शायद कल और परसों जो गुजर गए, उन पर
गौर करने से हम आज को समझों, शायद भविष्य के परदे को भी
हटाकर हम झांक सकें।
लेकिन वे पत्थर और दीवारें खामोश हैं। उन्होंने इतवार की ईसाई-पूजा बहुत देखी और बहुत देखी जुमे की नमाजें। अब हर दिन की नुमाइश है उनके साये में! दुनिया बदलती रही, लेकिन वे कायम हैं। उनके घिसे हुए चेहरे पर कुछ हल्की मुस्कराहट-सी मालूम होती है और धीमी आवाज-सी कानों में आती है-इंसान भी कितना बेवकूफ और जाहिल है कि वह हजारों वर्ष के तजुर्बे से नहीं सीखता और बार-बार वही हिमाकतें करता है।
लेकिन वे पत्थर और दीवारें खामोश हैं। उन्होंने इतवार की ईसाई-पूजा बहुत देखी और बहुत देखी जुमे की नमाजें। अब हर दिन की नुमाइश है उनके साये में! दुनिया बदलती रही, लेकिन वे कायम हैं। उनके घिसे हुए चेहरे पर कुछ हल्की मुस्कराहट-सी मालूम होती है और धीमी आवाज-सी कानों में आती है-इंसान भी कितना बेवकूफ और जाहिल है कि वह हजारों वर्ष के तजुर्बे से नहीं सीखता और बार-बार वही हिमाकतें करता है।
(राजनीति से दूर- जवाहरलाल नेहरू से साभार)
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