Friday, September 22, 2017

स्वच्छ भारत बनाम ट्रेन की पटरियां


लखनऊ में मेट्रो ट्रेन शुरू होने के चंद रोज बाद सोशल साइट्स पर एक वीडियो वायरल हुआ. एक प्रौढ़ व्यक्ति अपनी धोती समेटे डिब्बे के भीतर सू-सू करने के अंदाज़ में बैठे हुए हैं. निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि वे सचमुच वही कर रहे थे जो करते-जैसे दिखाई दे रहे हैं या यह भी कोई सोशल साइट्स का फोटोशॉप तमाशा है? कर भी रहे हों तो क्या आश्चर्य. ट्रेनें हमारे यहां लघु और दीर्घशंका के लिए बहुत उपयुक्त जगह मानी जाती रही हैं. ट्रेन प्लेटफॉर्म पर खड़ी हो या यार्ड में या आउटर पर सिगनल हरा होने का इंतजार कर रही हो, आस-पास के लोग दीर्घ न सही लघु शंका तो फटाफट निपटा ही लेते हैं.
टॉयलेट- एक प्रेम कथामें भी आपने देखा होगा कि नायक अपनी नव-ब्याहता को रोज सुबह शौच के लिए स्टेशन ले जाता है, जहां दो मिनट के लिए एक ट्रेन रुकती है. ट्रेनों के शौचालय बहुत सारे लोगों के लिए ऐसी ही राहत होते हैं. अपने मेट्रो वालों ने विदेशी कोच मंगवा लिए या उसकी तर्ज पर अपने यहां कोच बना लिए. उन्होंने भारतीय यात्रियों का ध्यान रखा ही नहीं. यहां मेट्रो ट्रेन के डिब्बों में भी शौचालय चाहिए, पीकदान चाहिए. नहीं बनाएंगे तो कहीं भी निपटा जाएगा, ओने-कोने थूका जाएगा. वैसे, पीकदान में थूकना भी हम तौहीन ही समझते हैं.
स्वच्छ भारत अभियानचलाने वाले हमारे प्रधानमंत्री और उस पर जोर-शोर से अमल कराने वाले अपने मुख्यमंत्री योगी को चाहिए कि वे ट्रेन-पटरियों के किनारे-किनारे हर आधा किमी पर शौचालय बनवा दें. हमारे देश में पटरियों के किनारे सुबह-सुबह जो दृश्य दिखाई देता है, वह विश्वविख्यात है. कई विदेशी यात्री उस पर रोचक टिप्पणियां लिख चुके हैं. पटरियों के दोनों तरफ रेलवे की जमीन पर अवैध रूप से बसी झुग्गी-झोपड़ियों वाले ही नहीं, साहबों की कोठियों के चाकर भी डबा-बोतल लेकर सुबह-सुबह पटरियों की तरफ दौड़ते हैं.
अगर खुले में शौच-मुक्त देश बनाना है तो रलवे बजट में विशेष प्रावधान करना होगा ताकि पटरियों के किनारे-किनारे शौचालय बनाए जा सकें. इसका एक अतिरिक्त लाभ रेलवे को हो सकता है. पटरियों के किनारे शौच करने वालों को पटरियों की देखभाल का जिम्मा दिया जा सकता है. आजकल वैसे भी ट्रेनों के पटरियों से उतरने के मामले बहुत बढ़ गये हैं. पटरियों के सतत निरीक्षण के लिए इतना विशाल अमला रेलवे नियुक्त नहीं कर सकता. शौच के लिए रेलवे की शरण आने वाले पटरी-सुरक्षा के अवैतनिक मुस्तैद सिपाही हो सकते हैं.
जहां तक लघुशंका निवारण का सवाल है, उसके लिए भारतीय पुरुषों के पास अनंत आकाश के नीचे जगह ही जगह है. टेलीफोन और बिजली के खम्बों की दुर्गति के लिए हम बेवजह ही बेचारे कुत्तों को दोष देते हैं. आदमियों ने तो दीवारों का सीमेण्ट-प्लास्टर तक गला डाला है. किसी भी ब्राण्ड का सीमेण्ट निरंतर प्रवहमान उस धार के सामने टिक नहीं सकता.
पिछले साल उत्तर प्रदेश परिवहन निगम ने फैसला किया था कि राज्य के सभी बस स्टेशनों में खुफिया कैमरे लगाए जाएंगे जो दीवारें खराब करने वालों की तस्वीर (पीछे से) खींच लेंगे. ये तस्वीरें सोशल साइटों पर डाली जाएंगी ताकि ऐसा करने वाले शर्मिंदा हों और दूसरों को भी सबक मिले.
मुझे पूरी उम्मीद है कि परिवहन निगम ने अपने फैसले पर अमल नहीं किया होगा. इससे यहां कौन शर्मिंदा होता है. उलटे, लोग खुद ही सेल्फी अपलोड करने लगेंगे. मेट्रो वाले साहबान सुन रहे हैं?    

 (सिटी तमाशा, नभाटा, 23 सितम्बर 2017)

1 comment:

सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...

आइडिया बढ़िया है। रेलवे पटरियों के किनारे किनारे शौचालय। थोड़ा अटपटा है, परन्तु कारगर हो सकता है। वैसे तो अभी प्रसाधनों की ही कमी है, परन्तु कमी दूर हो भी जाये तो भी उसकी आदत पड़ने में समय लगेगा। थोड़ा प्रभाव अभियान का पड़ा भी है लेकिन निरन्तर एज़ुकेट करना आवश्यक होगा।
परिवहन निगम ने फैसला लागू किया होगा, मुझे भी नही लगता। शायद यह थोड़ा अव्यवहारिक भी होगा। स्टेशन पर निवृत्त होने वाले स्त्री और पुरुष दोनो होंगे और इसका मतलब स्पष्ट है। सबसे पहले परीवहन निगम को अपने शौचालय की व्यवस्था दुरुस्त करनी होगी, ताकि लोगों को वहाँ जाने की इच्छा तो हो। सुविधा के अभाव में जो जैसा है वैसे ही चलेगा।