रांची नगर निगम के ‘हल्ला बोल, लुंगी खोल’ अभियान को पिछले
हफ्ते राष्ट्रीय मीडिया में जगह मिली. खुले में शौच जाने वालों की लुंगी उतरवाने
के लिए सुबह-सुबह नगर निगम की टीमें तैनात हैं. ‘हल्ला
बोल, घर से दूर छोड़’ भी इसी का हिस्सा है. खुले में शौच के लिए जाने वालों को
पकड़ो और दूर ले जा कर छोड़ दो. मकसद है कि लोग शर्मिंदा हों और खुले में शौच जाना
बंद करें. अपने घर में शौचालय बनवाएं और उसका इस्तेमाल करें.
पहले उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले से खबर थी कि जिलाधिकारी के आदेश से वहां खुले
में शौच कर रहे लोगों पर टॉर्च चमकाए गये और सीटियां बजायी गयीं. इसके लिए पुरुषों
और महिलाओं की टीम सुबह-सुबह टॉर्च और सीटी लेकर तैनात रहती हैं. ताजा खबर मध्य
प्रदेश के बैतूल जिले की है. वहां अमला विकास खंड के सात गांवों में बिना शौचालय
वाले घरों पर 250 रु प्रति व्यक्ति, प्रतिदिन के हिसाब
से महीने भर का अर्थ दण्ड लगाया गया है. एक परिवार पर तो 75 हजार रु का दण्ड लगा
है. इन परिवारों के मुखिया तनाव और अवसाद में हैं. उनका कहना है कि भले ही जेल
जाना पड़े, इतना जुर्माना कहां
से दें. पैसे होते तो शौचालय नहीं बनवा लेते?
देश को स्वच्छ बनाने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संकल्प की समय-सीमा
ज्यों-ज्यों समीप आती जा रही है, राज्यों और उनके
प्रशासन पर यह लक्ष्य हासिल करने का दबाव बढ़ता जा रहा है. 2014 में प्रधानमंत्री पद
की शपथ लेने के बाद नरेंद्र मोदी ने देश में जिन कार्यक्रमों पर सबसे ज्यादा जोर
दिया उनमें देश को स्वच्छ बनाना भी शामिल है. उन्होंने आह्वान किया था कि 2019 तक
पूरे देश को साफ-सुथरा बनाना है. खुद उन्होंने दिल्ली की एक सड़क पर झाड़ू लगा कर
स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत की थी. उनके मंत्रिमण्डलीय सहयोगियों और भाजपाई
राज्यों के मुख्यमंत्रियों एवं मंत्रियों ने विभिन्न शहरों में झाड़ू पकड़ कर
स्वच्छता का संकल्प लिया था.
इसमें दो राय नहीं कि स्वच्छ भारत मिशन अत्यंत आवश्यक और पवित्र संकल्प है.
गांवों से लेकर शहरों तक भीषण गन्दगी फैली है. पीने का साफ पानी मयस्सर होना तो
बहुत दूर की बात है, कूड़े-कचरे, मलबे और मानव उच्छिष्ठ के कारण गांवों से लेकर
शहरों-महानगरों तक की आबादी घातक रोगों की चपेट में आती रहती है. बिहार का कालाजार
हो या पूर्वी उत्तर-प्रदेश का जापानी इंसेफ्लाइटिस, जिनसे
हर साल सैकड़ों-हजारों बच्चों की मौत होती है, इन
बीमारियों के होने और फैलने प्रमुख कारण गन्दगी है. पूर्व की कांग्रेस सरकारों और
यूपीए शासन में निर्मल भारत योजना चलायी जरूर गयी, लेकिन
किसी प्रधानमंत्री ने इस अभियान को ऐसी प्राथमिकता और इतना ध्यान नहीं दिया.
सरकारी आंकड़ों पर विश्वास करें तो देश का सफाई-प्रसार (सैनिटेशन कवरेज) जो
2012-13 में 38.64 फीसदी था वह 2016-17 में 60.53 फीसदी है. 2014 से अब तक करीब
तीन करोड़ 88 लाख शौचालय बनवाए गये हैं. एक लाख 80 हजार गांव, 130 जिले और तीन राज्य- सिक्किम, हिमाचल
और केरल- खुले में शौच मुक्त
घोषित कर दिये गये हैं. दावा है कि इस वर्ष के अंत तक गुजरात हरियाणा, पंजाब, मिजोरम और
उत्तराखण्ड भी इस श्रेणी में आ जाएंगे.
जमीनी हकीकत बहुत फर्क है. देश में शायद ही ऐसा कोई नगर निगम, नगर पालिका या पंचायत हो जिसके पास अपने क्षेत्र में रोजाना निकलने वाले कचरे
को उठाने और कायदे से उसे निपटाने की क्षमता हो. जो कचरा उठाया जाता है, किसी बाहरी इलाके में उसका पहाड़ बनता जाता है. सिर पर मैला
ढोने की कुप्रथा आज भी कायम है. खुले में शौच की मजबूरी का नारकीय उदाहरण तो रोज
सुबह ट्रेन की पटरियों और खेतों-मैदानों में दिखाई ही देता है.
प्रधानमंत्री और सारे मंत्री चाहे जितना झाड़ू उठा लें, कचरा प्रबंधन और नगर निगमों-नगर पालिकाओं की क्षमता बढ़ाए
बिना शहर और कस्बे साफ नहीं हो सकते. नागरिकों को सफाई अपने व्यवहार का हिस्सा
बनानी होगी. इन मोर्चों पर क्या हो रहा है?
स्वच्छ भारत मिशन का सारा जोर खुले में शौच को बंद करना है. जिलाधिकारियों पर
अपने जिले को इससे मुक्त घोषित करने का दवाब है. उसी दवाब के चलते कहीं लुंगी खुलवाई
जा रही है, कहीं टोर्च चमकाया
जा रहा है और कहीं भारी जुर्माना थोपा जा रहा है. क्या ऐसे अपमान और आतंक से लोगों
को समझाया जा सकता है? स्वच्छ भारत मिशन की
दिशा-निर्देशिका कहती है कि गांव-गांव स्वच्छता-दूत तैनात किए जाएं जो लोगों को
समझाएं कि खुले में शौच के क्या-क्या नुकसान हैं. लोगों को मोटीवेट करना है, अपमानित नहीं. कहां हैं स्वच्छता दूत और वे क्या कर रहे हैं?
बहुत सारे लोग शौचालय बनवा लेने के बावजूद खुले में जाना पसंद करते हैं.
पुरानी आदत के अलावा ऐसा शौचालयों की दोषपूर्ण बनावट के कारण भी है. सरकारी दबाव
और मदद से जो शौचालय बनवाए गये हैं, अधिसंख्य में पानी
की आपूर्ति नहीं है. ‘सोकपिट’ वाले शौचालयों में पानी कम इस्तेमाल करने की बाध्यता भी है.
नतीजतन दड़बेनुमा ये शौचालय गंधाते रहते हैं. ‘कपार्ट’ के सोशल ऑडिटर की हैसियत से इस लेखक ने देखा है कि लोग ऐसे
शौचालयों का प्रयोग करना ही नहीं चाहते. बल्कि, उनमें
उपले, चारा और दूसरे सामान रखने लगते
हैं.
एक बड़ी आबादी है जो शौचालय बनवा ही नहीं सकती. उनके लिए दो जून की रोटी जुटाना
ही मुश्किल है. उत्तराखण्ड से लेकर बंगाल तक गंगा के तटवर्ती गांवों को खुले में
शौच- मुक्त कर लेने के सरकारी दावे की पड़ताल में ‘इण्डियन
एक्सप्रेस’ ने हाल ही में पाया
कि लगभग सभी गावों में ऐसे अत्यंत गरीब लोग, जिनमें
दलितों की संख्या सबसे ज्यादा है, अब भी खुले में
निपटने जा रहे हैं. वे शौचालय बनवा पाने की हैसियत ही में नहीं हैं. सरकारी सहायता
तब मिलती है जब शौचालय बनवा कर उसके सामने फोटो खिंचवाई जाए.
एक बड़ी आबादी शहरों-महानगरों में झुग्गी-झोपड़ियों में रहती है. मेहनत-मजदूरी
करने वाले एक बोरे में अपनी गृहस्थी पेड़ों-खम्भों में बांध कर फुटपाथ या खुले
बरामदों में गुजारा करते हैं. ऐसे लोगों के लिए सामुदायिक शौचालय बनवाने के
निर्देश हैं. अगर वे कहीं बने भी हों तो उनमें रख-रखाव और सफाई के लिए शुल्क लेने
की व्यवस्था है, जो इस आबादी को बहुत
महंगा और अनावश्यक लगता है.
खुले में शौच से मुक्ति का अभियान सचमुच बहुत बड़ी चुनौती है. इसका गहरा रिश्ता
अशिक्षा और गरीबी से है. सार्थक शिक्षा दिये और गरीबी दूर किये बिना सजा की तरह इसे
लागू करना सरकारी लक्ष्य तो पूरा कर देगा लेकिन सफलता की गारण्टी नहीं दे सकता. (प्रभात खबर, 04 अक्टूबर 2017)
1 comment:
एक सार्थक प्रयास सार्थक लेख। ज़मीनी हक़ीक़त दर्शाता है यह लेख। पानी नही तो शौचालय का प्रयोग कैसे करेगा कोई। एज़ुकेट किया जाना भी ज़रूरी है। एज़ुकेट हो जायें तो शौचालय प्रयोग करने की उचित व्यवस्था भी ज़रूरी है। असल में ज़रूरत एक को-ऑर्डिनेटेड कार्यक्रम की है, जिसमें स्वच्छता की शिक्षा, शौचालय के निर्माण, उनके रखरखाव की उचित व्यवस्था, घरों,फैक्ट्रीज़ और अस्पतालों से निकलने वाले कूड़े के उचित निस्तारण की व्यवस्था आदि शामिल हों। इसके बिना हम अपने इस लक्ष्य को नही प्राप्त कर सकते। हाँ, यह ज़रूर अच्छी बात है कि अब इस विषय पर चर्चायें भी होने लगी हैं और सरकारों से जनता पूछने भी लगी है । निश्चितरूप से इसका लाभ दूर भविष्य में तो मिलता लगता है, परन्तु आज तो बहुत दूर है मंज़िल।
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