Tuesday, July 10, 2018

फिर उग्र ध्रुवीकरण ही सहारा?



स्वाभाविक है कि भारतीय जनता पार्टी 2019 में केंद्र की सता में बहुमत से वापसी की कोशिश करे, जैसे कि विरोधी दल उसे बेदखल करने के प्रयत्न में लग रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष काफी समय से चुनावी मोड में हैं. अंदरखाने तैयारियां हैं ही, सरकारों के स्तर पर खुल्लमखुला लुभावनी चुनावी घोषणाएं होने लगी हैं. चर्चा यहां यह करनी है कि मोदी सरकार क्या उपलब्धियां लेकर जनता के पास जाना चाहती है और स्वयं जनता-जनार्दन उसके लिए कैसा प्रश्नपत्र तैयार कर रही है?

2014 में देश की जनता कांग्रेस-नीत यूपीए शासन के भ्रष्टाचार और नाकारापन से त्रस्त थी. वह बदलाव चाहती थी. भाजपा में तेजी से उभरे नरेंद्र मोदी ने अपनी वक्तृता, तेजी और ताजगी से भ्रष्टाचार मिटा कर, काला धन वापस लाने एवं चौतरफा परिवर्तन के वादों से जो लहर पैदा की उसने भाजपा को विशाल बहुमत से सत्ता में ला बिठाया. आज जब वे चार साल पूरे कर चुकने के बाद पांचवें वर्ष में जनता की परीक्षा में बैठने वाले हैं तो पास होने की कसौटी क्या होगी? सरकार के पास तो उपलब्धियां गिनाने के लिए हमेशा ही बहुत कुछ होता है. मोदी सरकार ने भी अपना चार साल का प्रभावशाली लेखा-जोखा पेश किया है. मगर पास-फेल करना जनता के हाथ में है.

आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार ने नोटबंदी जैसे दुस्साहसिक और जीएसटी जैसे साहसिक कदम उठाये. इनके नतीजों पर विवाद हैं. तमाम दावों के बावजूद अर्थव्यवस्था अच्छी हालत में नहीं है, विशेष रूप से वह हिस्सा जो सीधे जनता को प्रभावित करता है. महंगाई लगातार बढ़ी है. पेट्रोल-डीजल के ऊंचे भावों ने उसे अनियंत्रित किया है. बैंकों पर डूबे हुए कर्ज का बोझ बढ़ा किंतु प्रयासों के बावजूद वसूली के प्रयास सफल होते न दिखे. बेरोजगारों की संख्या बढ़ने की तुलना में रोजगारों का सृजन अत्यंत सीमित हुआ. युवा वर्ग में आक्रोश है जो तरह-तरह के असंतोषों में फूटा. देश भर का किसान इस पूरे दौर में क्षुब्ध और आंदोलित रहा. बदहाली के कारण उनकी आत्महत्याओं का सिलसिला बिल्कुल कम न हुआ. हाल ही में खरीफ फसलों के समर्थन मूल्यों में अब तक की सबसे बड़ी वृद्धि की जो घोषणा की गयी है, उससे भी वृहद किसान समुदाय प्रसन्न नहीं लगता.

कतिपय आरोपों  के अलावा मोदी सरकार को भ्रष्टाचार के मामलों में क्लीन चिट हासिल है. यूपीए के दूसरे दौर की सरकार के लिहाज से यह बड़ी राहत है लेकिन आम जनता को रोजमर्रा के कामों में भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल गई हो, ऐसा बिल्कुल नहीं है. काले धन पर अंकुश नहीं लग सका. डिजिटल लेन-देन के मोर्चे पर भी शुरुआती उपलब्धि हाथ से फिसल गयी. नोबेल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने यह कह कर मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया है कि 2014 के बाद देश की अर्थव्यवस्था सबसे तेज गति से पीछे की ओर गयी है.

सामाजिक क्षेत्र में सरकार बहुत कुछ करती दिखाई दी लेकिन वास्तव में परिवर्तन कितना आया? हाशिए पर जीने वाली बड़ी आबादी के हालात कितना सुधरे? स्वच्छता अभियान और 2019 तक देश को खुले में शौच-मुक्त करने की महत्वाकांक्षी, सराहनीय योजना पर स्वयं प्रधानमंत्री ने बहुत रुचि ली किंतु आंकड़ों से इतर व्यवहार में वह कितना उअतर पायी? दलितों के कल्याण के वास्ते घोषणाएं बहुत हुईं लेकिन उन्हें सचमुच कितनी आजादी और सामर्थ्य मिली? महिलाओं के प्रति समाज और राजनीति के नजरिए एवं व्यवहार में कितना फर्क आया?

दैनंदिन जीवन में अनुभव करने के कारण जनता इन मुद्दों से सीधे जुड़ी रहती है. वह क्या महसूस करती है? यहां यह कहना आवश्यक है कि देश की ये बहुतेरी समस्याएं न आज की हैं, न इनके लिए सीधे मोदी सरकार जिम्मेदार है. चूंकि स्वयं मोदी ने व्यक्तिगत रूप से भी इस बारे में जनता में बहुत ज्यादा उम्मीदें जगाईं, बढ़-चढ़ कर दावे किये थे, इसलिए उनकी सरकार की जवाबदेही निश्चय ही बढ़ जाती है.

पिछले दिनों की चंद घटनाओं ने संकेत दिये हैं कि मोदी सरकार इन कसौटियों पर शायद असहज अनुभव कर रही है. प्रधानमंत्री का जोर आज भी परिवर्तन और विकास के मुद्दों पर है. उनकी लोकप्रियता अधिक कम नहीं हुई है. लेकिन उनके मंत्री और भाजपा नेता क्या कर रहे हैं? केंद्रीय नागरिक उड्डयन राज्यमंत्री जयंत सिन्हा ने चंद रोज पहले झारखण्ड में उन आठ लोगों को जमानत पर छूटने पर माला पहना कर मिठाई खिलाई जिन्हें अदालत ने गोरक्षा के नाम पर हत्याओं का दोषी पाया है. उसी दिन केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह की खबर आयी कि वे बिहार के अपने निर्वाचन क्षेत्र में दंगा भड़काने के आरोप में जेल में बंद बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं के घर गये, उनके साथ हुए अन्यायपर रोये और बिहार की अपनी ही सरकार को ही दोष देने लगे.

इन्हें हम इन नेताओं की स्फुट भटकनों के रूप में भी देख सकते थे परंतु वरिष्ठ भाजपा नेता, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की अपने ही कैडर के हाथों अब तक जारी ट्रॉलिंग को किस रूप में देखें, जबकि पार्टी-नेतृत्त्व और सरकार उनके पक्ष में आना तो दूर, मौन साधे रहे? राजनाथ सिंह और गडकरी उनके बचाव में आये जरूर मगर काफी बाद में. फिर, पिछले मास जम्मू-कश्मीर सरकार से भाजपा के अचानक अलग होने के फैसले से क्या समझा जाए, जबकि कश्मीर में शांति बहाली भाजपा सरकार का प्रमुख एजेण्डा था?

तो, क्या इसे उग्र हिंदुत्त्व और प्रखर राष्ट्रवाद के पुराने एजेण्डे को प्रमुख स्वर देने के रूप में देखा जाए? यह आशंका इसलिए बलवती होती है कि 2014 के चुनाव की पूरी तैयारी भाजपा ने इसी एजेण्डे के तहत की थी. प्रधानमंत्री-प्रत्याशी के रूप में नरेंद्र मोदी परिवर्तन लाने, विकास करने तथा भ्रष्टाचार और परिवारवाद मिटाने की गर्जनाएं कर रहे थे तो उनके कई नेता नेता गोहत्या, खतरे में हिंदुत्त्व, देशद्रोह, जैसे मुद्दे उछालने में लगे थे. खूबसूरत सपने दिखाने और भावनाओं के उबाल का यह चुनावी मिश्रण-फॉर्मूला सफल रहा था. अब जबकि सपनों को साकार करने के प्रयासों की परीक्षा होनी है, तब क्या फिर से धर्म और राष्ट्रवाद की भावनाओं का ज्वार उठाना भाजपा को आवश्यक लग रहा है? विपक्षी मोर्चेबंदी की काट के लिए उपलब्धियां पर्याप्त नहीं लग रहीं? ध्रुवीकरण का सहारा लिए बिना रास्ता कठिन लग रहा है?

सरकारों की परीक्षा का पैमाना जनता कब क्या बनाती है, यह अक्सर स्पष्ट नहीं होता. 2004 में एनडीए का शाइनिंग इण्डियाआशा के विपरीत उसने नकार दिया था. 2009 में यूपीए को अप्रत्याशित विजय दे दी थी. 2014 में जनता ने विशाल बहुमत से भाजपा को सत्ता सौंपी. 2019 के लिए प्रश्न-पत्र वह बना ही रही होगी.      
 
(प्रभात खबर, 11 जुलाई, 2018) 

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