Tuesday, July 24, 2018

राहुल की गठबंधन-परीक्षा



कांग्रेस ने यह मान कर ठीक ही किया कि 2019 के आम चुनाव में में नरेंद्र मोदी को वह अकेले दम नहीं हरा सकती. इसके लिए विभिन्न राज्यों में क्षेत्रीय दलों से गठबंधन करना जरूरी है. राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद सम्भालने के बाद हुई पहली कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक का यह स्वर बहुत महत्त्वपूर्ण कहा जाना चाहिए. निर्वाचित सांसदों के हिसाब से सबसे बड़ी पार्टी बनने पर गठबंधन के नेता के रूप में राहुल को पेश करना सिर्फ औपचारिकता है. आज अत्यंत सीमित सांसद संख्या के बावजूद कांग्रेस अखिल भारतीय उपस्थिति वाली पार्टी है. कई राज्यों में वह भाजपा के सीधे मुकाबले वाला दल है. क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर वह भाजपा के विरुद्ध राष्ट्रीय गठबंधन बना और चला सकती है. 2004 से लेकर 2014 तक यूपीए उसी के कारण चला. कांग्रेस आगे भी ऐसा कर सकती है.

यह सिर्फ सम्भावना है. राहुल गांधी के लिए पहली चुनौती यहीं से शुरू होती है. परस्पर विरोधी हितों और महत्वाकांक्षी क्षेत्रीय दलों के नेताओं को एक मंच पर लाना आसान काम नहीं है. कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों का कांग्रेस से टकराव है. कई दलों का भाजपा से कांग्रेस सरीखा तीखा विरोध नहीं है. भाजपा-विरोधी राष्ट्रीय गठबंधन बनाने के लिए राहुल को वहां सहयोग की कीमत अपनी जमीन छोड़ कर चुकानी पड़ेगी. वे किस-किस के लिए कितनी जगह खाली करेंगे? फिर स्वयं कांग्रेस के लिए कितना स्थान बचा रहेगा, जबकि इस समय उसे अपने पुनरुत्थान के लिए संघर्ष करना है.

अब जबकि सोनिया गांधी नेपथ्य में हैं, अत्यन्त महत्वाकांक्षी चंद क्षेत्रीय नेता क्या राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकर करने को सहज ही तैयार हो जाएंगे? कांग्रेस कार्य समिति के फैसले पर देवेगौड़ा की सहमति को छोड़ कर सभी क्षेत्रीय नेता मौन हैं. ममता बनर्जी ने पहले ही भाजपा विरोधी फेडरल फ्रण्टकी तैयारी का ऐलान कर दिया है. सम्भावना है कि इसमें वे कांग्रेस को भी शामिल करेंगी लेकिन अपनी पहल की बागडोर राहुल को क्यों थमा देंगी?  तेलंगाना के चंद्रशेखर राव की तरह चंद्र बाबू नायडू राष्ट्रीय भूमिका के आने के संकेत दिये हैं. नवीन पटनायक भाजपा और कांग्रेस से बराबर दूरी बनाए रखने की रणनीति पर चल रहे हैं.

बिहार में राजद के छोटे भागीदार के रूप में उनकी दोस्ती चल जाएगी लेकिन उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश उन्हें कितनी जगह देंगे? सपा-बसपा दोनों मिल कर भाजपा को हराने की स्थिति में हैं तो वे कांग्रेस को शामिल करेंगे भी या नहीं? करेंगे तो दूसरे राज्यों में उसकी कितनी बड़ी कीमत मांगेंगे? यानी क्षेत्रीय क्षत्रपों के अलग-अलग राजनैतिक स्वार्थ हैं. कांग्रेस के साथ कोई रियायत वे नहीं करने वाले. राहुल की परीक्षा यह है कि उन्हें कांग्रेस को खड़ा करना है और गठबंधन भी बनाना है. यह डगर सचमुच फिसलन भरी है.

दिखता तो है कि पिछले एक साल में राहुल ने अपने को नरेंद्र मोदी से सीधे मुकाबले के लिए तैयार किया है. गुजरात चुनाव से लेकर हाल के अविश्वास प्रस्ताव तक वे क्रमश: रणनीति बदलते एवं आक्रामक होते आये हैं. इसमें भाजपा से ज्यादा क्षेत्रीय दलों के लिए स्पष्ट सन्देश है कि 2019 में भाजपा को रोकना है तो कांग्रेस ही उस मोर्चे की धुरी बन सकती है और राहुल उसके स्वाभाविक नेता हैं. क्षेतीय दल इस संदेश को कितना ग्रहण कर रहे हैं?

भाजपा इस खतरे को अच्छी तरह पहचानती है. इसीलिए नरेंद्र मोदी लगातार न केवल कांग्रेस पर हमलावर हैं बल्कि क्षेत्रीय दलों को सावधान करते रहते हैं कि कांग्रेस किस तरह अपने सहयोगी दलों को छलती रही है और आगे भी ऐसा करेगी. वह क्यों चाहेगी कि कांग्रेस के नेतृत्त्व में उसके विरुद्ध कोई गठबंधन बने. गठबंधन की राहुल की राह बहुत कुछ निर्भर करेगी वर्षांत में होने वाले मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधान सभा चुनाव नतीजों पर. अगर कांग्रेस वहां भाजपा से सत्ता छीन पाती है तो उसके लिए 2019 की राह ही नहीं, क्षेत्रीय दलों का नेतृत्त्व पाना भी आसान हो जाएगा.

मोदी के विरुद्ध राहुल की दूसरी बड़ी तैयारी चुनावी मुद्दे चुनने में दिख रही है. यह महत्त्वपूर्ण होगा कि मोदी सरकार के खिलाफ वे क्या-क्या मुद्दे लेकर जनता के बीच जाते हैं. 2014  की तुलना में लोकप्रियता कम होने के बाद भी मोदी चुनाव जिताऊ नेता बने हुए हैं. जनता का एक बड़ा वर्ग उनसे निराश नहीं हुआ है. जो विफलताएं हैं भी, उन पर आक्रामक हिंदुत्त्व का भाजपा-संघ का एजेण्डा हलके नशे की तरह तारी है. इसलिए गुजरात चुनाव के समय राहुल गांधी ने उदार-हिंदुत्त्व का जो चोला पहना था, वह उतारा नहीं है. बल्कि, उन्होंने इधर लगातार यह दिखाने की कोशिश की है कि कांग्रेस को भी हिंदुत्त्व से प्रेम है किंतु किसी के प्रति नफरत भरा नहीं. अविश्वास प्रस्ताव पर अपने धारदार भाषण में जब वे नरेन्द्र मोदी को धन्यवाद देते हैं कि आपने मुझे हिंदू होने का मतलब समझाया, आपने मुझे कांग्रेस होने का मतलब समझायातब वे जनता को सायाश यही संदेश दे रहे थे. इसी के बाद वे देश में जगह-जगह नफरत में मारे जा रहे लोगों की चर्चा करते हैं, सबसे मुहब्बत करने और स्वयं नरेद्र मोदी से भी नफरत नहीं करने की बात कहते हुए प्रधानमंत्री के गले लग जाते हैं.

इसमें चाहे जितनी नाटकीयता देखी जाए, चाहे जितना वितण्डा खड़ा किया जाए, असल में यह मोदी के खिलाफ एक राष्ट्रीय विमर्श चुनने का राहुल का योजनाबद्ध प्रयास था. इसमें उग्र हिंदुत्त्व और नफरत की राजनीति के मुकाबले बहुलतावादी भारतीय संस्कृति का मुद्दा जनता के सामने रखने का प्रयास दिखाई देता है. वह कितना प्रभावी होगा, यह अलग बात है.

राहुल को कांग्रेस की बागडोर ऐसे समय मिली है जब पार्टी विपक्ष में और सबसे कमजोर हालत में है जबकि मुकाबले में बहुत ताकतवर नेता तथा सत्तारूढ़ दल है. यह विपरीत स्थितियां उनकी राजनीति और नेतृत्त्व कौशल के लिए बड़ा अवसर भी बन सकती हैं. कांग्रेस में दूसरे नम्बर की हैसियत से वे एक दशक से ज्यादा गुजार ही चुके हैं. अब परीक्षा का समय है. उनके लिए अच्छी बात यह है कि कांग्रेस की जड़ें अखिल भारतीय और गहरी हैं.  

भाजपा आज देश भर में चाहे जितना छाई दिख रही हो, उसकी अखिल भारतीयता अपेक्षाकृत नयी है. अनुकूल हवा-पानी पाते ही कांग्रेसी जड़ों को पनपने में देर नहीं लगेगी. यह अनुकूलता भाजपा के अपने अंतर्विरोधों से, क्षेतीय दलों के साथ गठबंधन की रणनीति से और राहुल की अब तक की कांग्रेस-दीक्षा से सम्भव हो सकती है. कांग्रेस को लगभग खत्म कर चुकने का दावा करने के बावजूद भाजपा का कांग्रेस-भय इसी कारण बना हुआ है.  
(प्रभात खबर, 25 जुलाई, 2018) 



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