Friday, July 27, 2018

इस बरसात में आपने कहीं केंचुआ देखा?



पहली मानसूनी बारिश में आंगन में बहुत सारे केंचुए निकल आते थे. मिट्टी के भीतर अपने ठिकानों को छोड़, रेंगते-घिसटते वे पक्के बरामदे से होते हुए घर भीतर दाखिल होने लगते. कमरों में उन्हें जाने से रोकने के लिए नमक की सीमा-रेखा तक बनानी पड़ जाती थी. गमलों की मिट्टी में भी उनका ठिकाना रहता था. घर के सामने पार्क में बिन बरसात भी उनकी खायी-उगली मिट्टी की नन्हीं-नन्हीं गोलियों के ठीहे दूब की जड़ों के ऊपर दिखाई देते थे. छोटी चिड़िया किसी केंचुए को चोंच में दबा कर अपने घोंसले की तरफ उड़ती दिखती थी, जहां बिन पंखों के नन्हे बच्चे चोंच खोले भोजन का इंतजार करते रहते थे. मैंने पिछली कई बरसातों से  केंचुए नहीं देखे. जरा गौर करिए तो और कितना कुछ हमारे आस-पास से गायब होता जा रहा है.

उनका वैसे चाहे जो नाम हो, बचपन से हमारी बहुत जानी-पहचानी लिल-लिल-घोड़ीभी देखे बहुत समय गुजर गया. बारिश के इन दिनों में उनके गुच्छे-जैसे झुण्ड किसी गमले, किसी पौधे की जड़ या आंगन के किसी कोने में दिख जाते. जरा-सी आहट पर एक-दूसरे को पीठ पर लादे लिल-लिल-घोड़ियां तेजी से भागतीं. रोते बच्चों को बहलाने के लिए वे खूबसूरत बहाना होतीं. रातों-रात उनके ढेरों बच्चे निकल आते. कहां गईं लिल-लिल-घोड़ियां, और केंचुए, तितली, और भी जाने क्या-क्या?

जीवन का यह हिस्सा हम शहरियों के जीवन ही से गायब नहीं हुआ है. सुदूर गांवों के खेतों-बागानों में भी विभिन्न जीव-प्रजातियां गायब हो रही हैं, जो हमारे पर्यावरण का जरूरी हिस्सा थीं. बरसात में बाहर निकलने वाले केंचुए शहरियों के घरों में वितृष्णा भले जगाते रहे हों, किसानों का उनसे बेहतर दोस्त नहीं था. मिट्टी के भीतर उनकी सतत उपस्थिति और सक्रियता उसे पोला बनाए रखती थी. यह पोली मिट्टी खूब पानी सोखती थी. भूजल स्तर बना रहता था. पोली मिट्टी में फसलें अच्छी होती थीं. बेहिसाब रासायनिक खादों और कीटनाशकों ने इन किसान-मित्रों की बेरहमी से हत्या कर दी. आज केंचुए दुर्लभ हैं और उन्हें ढूंढ कर पालने की नौबत आ गयी है.

कूड़ा-प्रबंधन से लेकर जैविक खेती तक को बढ़ावा देने के लिए कई साल से काम कर रहे मुस्कान ज्योतिके साथी मेवा लाल से पूछिए तो वे देर तक आपको केंचुओं के योगदान के बारे में बताते रहेंगे. मेरा उनसे वादा है कि मैं केंचुए देखने उनके साथ बाराबंकी के उन खेतों में जाऊंगा, जहां उन्होंने रासायनिक खादों से मुक्त जैविक खेती को बढ़ावा देने का सफल प्रयोग किया है. उनकी मदद से वहां किसान अनियंत्रित कीटनाशकों और उर्वरकों की बजाय जैविक खाद का प्रयोग कर रहे हैं. इससे खेतों में केंचुए फिर पलने लगे हैं. मिटी पोली बन रही है. पानी धरती के भीतर जा रहा है. फसलें अच्छी हो रही हैं.

हम मनुष्यों ने विकास के नाम पर अपने लिए जो सुख-सुविधाएं जुटाने की होड़ पाली है, उसमें अपने अलावा और किसी के बचने की गुंजाइश नहीं छोड़ी है. कंक्रीट के जंगल का विस्तार, हरियाली से दुश्मनी, अंधाधुंध रसायनों, कीटनाशकों, आदि-आदि के प्रयोग से वह सूक्ष्म जीव-संसार नष्ट होता जा रहा है जो है हमारा ही हिस्सा. केंचुए, तितली, गौरैया, आदि समाप्त हो रहे हैं तो हमारा ही अंश मिट रहा है. यह हमारा कोरा भ्रम है कि हम अपने को सुरक्षित कर रहे हैं. सत्य यह है कि अपने पर्यावरण के साथ हम स्वयं खत्म हो रहे हैं. अपने 
समाप्त होते जाने से हमने आंखें मूंद रखी हैं. फिलहाल, केंचुए नहीं निकल रहे तो यह बरसात उदास है. 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 28 जुलाई, 2018) 





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