Saturday, July 07, 2018

असली मुद्दा तो एडमिशन का था



प्राध्यापकों से मारपीट एवं कुलपति पर हमले के प्रयास की दुर्भाग्यपूर्ण एवं निंदनीय घटना के बाद लखनऊ विश्वविद्यालय को अनिश्चितकाल के लिए बंद कर दिये जाने की आड़ में मूल मुद्दा दब जाएगा या दबा दिया जाएगा. अब मामला राजनैतिक और कानून-व्यवस्था का बन गया है.

कुछ छात्र-छात्राओं को इस वर्ष विश्वविद्यालय ने अगली कक्षाओं में प्रवेश देने से इनकार कर दिया था. कारण यह कि पिछले वर्ष उन छात्र-छात्राओं ने मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी के विश्वविद्यालय आगमन पर उन्हें विरोध स्वरूप काले झण्डे दिखाये थे. इस अपराधमें उन्हें गिरफ्तार किया गया, जेल में रखा गया और विश्वविद्यालय से निष्काषित कर दिया गया था. बाद में कुछ को परीक्षा देने दी गयी थी लेकिन परीक्षाफल रोक लिया गया. फिर कुछ छात्र-छात्राओं का परीक्षाफल इस शर्त के साथ जारी किया गया कि वे इस विश्वविद्यालय में अगली कक्षाओं में प्रवेश नहीं लेंगे. कुछ ने शायद ऐसा लिख कर भी दिया.

कुछ छात्र-छात्राओं को लगा और बिल्कुल सही लगा कि यह अन्याय और अलोकतांत्रिक है. मुख्यमंत्री शिवाजी से सम्बद्ध जिस कार्यक्रम में भाग लेने विश्वविद्यालय जा रहे थे, उसमें विश्वविद्यालय के धन का इस्तेमाल गलत है., इस आधार पर विरोध किया गया था. यह विशुद्ध रूप से वैचारिक आंदोलन था. काले झण्डे दिखाना या काफिले के सामने आ जाना प्रतिरोध पुराना लोकतांत्रिक तरीका है. विश्वविद्यालय में इससे पहले कई बार हो चुका है.

इसकी आड़ में दूसरे बहानों से अगली कक्षाओं में प्रवेश न देने का फैसला अलोकतांत्रिक है. इसलिए कुछ छात्र-छात्राएं कुलपति कार्यालय के पास शांति पूर्वक धरने पर बैठे थे. उनके समर्थन में कई वरिष्ठ शिक्षाविद, लेखक, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता भी धरने पर बैठे थे. धरने के तीसरे दिन कुछ बाहरी लोगों ने पास ही में प्राध्यापकों पर हमला कर दिया. उसके बाद धरना देने वालों और उनके समर्थकों को पकड़ कर पुलिस थाने भेज दिया गया. विश्वविद्यालय को अनिश्चितकाल के लिए बंद कर दिया गया. अब मामला कुछ और ही बन गया है.

असल मुद्दा, जिस पर बहस होनी चाहिए थी, यही है कि छात्र-छात्राओं से लोकतांत्रिक विरोध करने का अधिकार कैसे छीना जा सकता है जबकि कई बड़े आंदोलन, जिनमें स्वतंत्रता संग्राम और 1974-75 का इंदिरा सरकार विरोधी उग्र आंदोलन भी शामिल है, विश्वविद्यालायों और कॉलेजों से शुरू हुए और फैले? प्रत्येक राजनैतिक दल की छात्र इकाइयां हर कॉलेज और विश्वविद्यालय में सक्रिय हैं. राजनैतिक दलों की छात्र इकाइयों के रूप में ही  वे छात्र संगठनों के चुनाव लड़ते हैं. अक्सर सामाजिक-राजनैतिक मुद्दों पर सार्थक आंदोलन भी करते रहे हैं. विश्वविद्यालय के छात्र संगठनों से राजनैतिक पाठ पढ़ कर निकले कई विद्यार्थी आज विभिन्न दलों में ऊंचे पदों पर और सरकारों में शामिल हैं.

विश्वविद्यालय राजनीति का अखाड़ा नहीं बनने चाहिए लेकिन राजनैतिक सोच को विकसित होने, समाज और राजनीति में सार्थक हस्तक्षेप करने से वयस्क छात्र-छात्राओं को कैसे वंचित किया जा सकता है? वे प्राथमिक कक्षाओं के मासूम विद्यार्थी नहीं हैं. पढ़ाई का सवाल हो या फीस वृद्धि, हॉस्टल की अव्यवस्थाएं हों या सम-सामयिक मुद्दे, वे अपनी आवाज उठाएंगे ही. प्रशासन को उनकी बात सुननी चाहिए. समाधान नहीं निकाला जाएगा तो मामला भड़केगा. तब सारा दोष आवाज उठाने वालों के मत्थे कैसे मढ़ा जा सकता है? यह क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि समय रहते उनकी बात सुन कर समाधान क्यों नहीं निकाला गया?

परिसर में हिंसा के बाद ये सवाल विमर्श से बाहर हो गये हैं. यह और भी दुर्भाग्यपूर्ण है.


(सिटी तमाशा, नभाटा, 7 जुलाई, 2018)

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