Sunday, November 25, 2018

30 साल में अयोध्या की सरयू में बहुत पानी बह चुका


पिछले तीस वर्षों में भारतीय राजनीति ने बहुत उठा-पटक देख ली. बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर बनाने का भाजपा-विहिप का राजनैतिक अभियान भी कई उतार-चढ़ाव से गुजर चुका. बीच के कई साल वह नेपथ्य में गया तो स्वयं भाजपा के चुनावी घोषणा पत्रों में भी उसकी जगह बहुत पीछे चली गयी थी. तब उसकी कुछ खास सियासी वजहें थीं. आज 2018 में वह फिर भाजपा की चुनावी राजनीति के केंद्र में है तो भी उसके बड़े कारण हैं. स्थितियां लेकिन बहुत भिन्न हैं.

इन तीस-बत्तीस वर्षों में दुनिया और भी ज्यादा बदल गयी. विज्ञान और टेक्नॉलॉजी ने खूब छलांग लगाई, मानव के जीने, रहने और संवाद  करने का तौर-तरीका सर्वथा नया हो गया तो धर्मांधता से उपजे आतंकवाद ने बहुत दहलाया और खून-खराबा मचाया. वैचारिक स्तर पर वाम विचार और राजनीति का प्रभाव कम होता गया और दक्षिणपंथी सोच कई देशों में राजनीति पर हावी हो गया.

1990 में आडवाणी की राम-रथ-यात्रा की खबरें देने के लिए हमारे पास प्राइवेटट न्यूज चैनेल नहीं थे, ईमेल नहीं था.  मोबाइल फोन की शुरुवात भारत में जुलाई 1995 में हुई. लैण्डलाइन फोन था लेकिन 145 भारतीयों में सिर्फ एक के पास. खबरें, नारे और अफवाहें फैलाने के लिए मोटर साइकिलों पर सवार युवा दस्ते चीखते-चिल्लाते-भगवा ध्वजज फहराते सड़कों पर दौड़ते थे. अखबारों का ही सहारा था. आज टीवी-इण्टरनेट छोड़िये, हर क्षण हाथ में पकड़े छोटे से मोबाइल-स्क्रीन पर पल-पल का सत्य-असत्य-प्रपंच सब हाजिर है.
दुनिया बदली, तौर तरीके नये हुए लेकिन सत्ता के लिए धर्म की राजनीति की रवायत नहीं बदली.    

थोड़ा पीछे चलें

तब और अब के हालात को समझने के लिए थोड़ा पीछे देखना ठीक रहेगा. बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर बनवाने की गुन-मुन अक्टूबर 1984 में तेज होना शुरू हुई थी जब विहिप ने राम जन्म-भूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन किया था. उस समय अयोध्या से लखनऊ तक की 130 किमी की पद-यात्रा भी की गई थी. उसके बाद धीरे-धीरे यह अभियान बढ़ाया गया. 1986 आते-आते इसकी गूंज राजनैतिक गलियारों तक पहुंच गयी थी.

विश्वनाथ प्रताप सिंह के बोफोर्स हमलों से घायल राजीव गांधी को विहिप के राम मंदिर अभियान को हवा देने में अपना त्राण दिखाई दिया या उनके सलाहकारों ने उन्हें यह राह सुझाई. 1986 में उन्होंने बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने की पहल की और 1989 में चुनावों के ठीक पहले विहिप को बाबरी मस्जिद के निकट मंदिर के लिए भूमि पूजन की अनुमति दे दी.

राजीव को इस चाल का कोई लाभ होता-न होता, भाजपा ने विहिप का राममंदिर अभियान लपक लिया. वह विहिप को पीछे कर स्वयं सामने आ गयी. 1989 के चुनावों में राजीव गांधी की कांग्रेस अपार बहुमत खो कर सिमट गयी तो भाजपा  लोक सभा में दो से 84 सीटों तक पहुंची. अगस्त 1990 में त्त्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने हिंदू ध्रुवीकरण की बढ़ती राजनीति की काट के लिए मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू कर दी तो 1990 में लाल कृष्ण आडवाणी सोमनाथ से अयोध्या की राम रथ यात्रा पर निकले.

इन दो घटनाओं ने भारतीय राजनीति का स्वरूप ही बदल दिया. मध्य और निम्न जातियों के उभार से चुनावी राजनीति उसी पर केंद्रित हो गयी. भाजपा भी थोड़ा रास्ता बदलने को मजबूर हुई. राम मंदिर के नाम पर भड़की भावनाओं से उपजे जुनून ने 1992 में बाबरी ढांचा तो जमींदोज कर दिया लेकिन क्या वहां राम मंदिर बनवाना इतना आसान था?

भाजपा की दुविधाएं

आज यह सवाल फिर भाजपा के सामने खड़ा है, जबकि वह राम मंदिर अभियान को अपनी सत्ता बचाने के लिए इस्तेमाल कर रही है. आज उसकी दुविधाएं बहुत हैं.

पहला तो यही कि 1990 के अयोध्या कूच के दौरान केंद्र और उत्तर प्रदेश में उसकी विरोधी दलों की सरकारें थीं. केंद्र में नरसिंह राव और लखनऊ में मुलायम सिंह यादव थे. आज दोनों जगह भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकारें हैं. तब कानून व्यवस्था बनाये रखना भाजपा के लिए कोई चुनौती नहीं थी, बल्कि 'परिंदा भी पर नहीं मार सकता' जैसी मुलायम की घोषणा को ध्वस्त करने की चुनौती उनके सामने थी.

अयोध्या में आज भी सुरक्षा बंदोबस्त तगड़े हैं लेकिन उस समय तो चप्पे-चप्पे पर चौकसी थी. भाजपा-विहिप के नेता तब खेतों, जंगलों, नदियों को पार कर चोरी से अयोध्या पहुंचे थे. आज उन्हें रोकने वाला कोई नहीं है. बल्कि, ज्यादा से ज्यादा भीड़ वे खुद जुटा रहे हैं. तब विहिप को पीछे कर भाजपा नेता स्वयं भीड़  का नेतृत्त्व करने लगे थे तो आज विहिप नेताओं-संतों को आगे आने दिया जा रहा है. आज की चुनौती राम मंदिर के प्रति समर्पण दिखाना है लेकिन अपनी ही सरकारों के लिए समस्या नहीं बनना है.

भाजपा की इन दुविधाओं को शिव सेना खूब भुना रही है जो महाराष्ट्र की राजनीति में फिलहाल उसके खिलाफ है. भाजपा को कटघरे में खड़ा करते हुए वह पूछ रही है कि राम मंदिर बनाने की नीयत वास्तव में है तो अध्यादेश क्यों नहीं ला रहे? निर्माण शुरू करने की तारीख क्यों नहीं बता रहे?          

शेर की सवारी तो नहीं?

अयोध्या में राम मंदिर बनाने का अभियान अगर भाजपा के लिए उग्र हिंदू ध्रुवीकरण करके राजनैतिक सत्ता पाने  की रणनीति थी तो उसमें वह कुछ सीमा तक कामयाब भी हुई किंतु मण्डल राजनीति उस पर हावी हो गयी. 2014 का उसका केंद्र में सत्तारोहण और पिछले चार सालों में कोई 22 राज्यों की सत्ता तक पहुंचने का श्रेय राम मंदिर अभियान को नहीं दिया जा सकता. 2014 और उसके बाद भाजपा की राजनीति विकास, पारदर्शिता एवं परिवर्तन के नारे पर केन्द्रित रही. 2019 के आम चुनावों में विजय के लिए उसे ये नारे कई कारणों से तारणहार नहीं लग रहे. उसने फिर कमण्डल हाथ में थामा है.

संकट के समय भाजपा को राम ही याद आते हैं लेकिन आज परिस्थितियां बहुत भिन्न हैं. राम मंदिर बनाने-बनवाने का यह अभियान आज ठीक उसी तरह भाजपा का खेवनहार नहीं भी बन सकता जिस तरह 1990-92 में बना था. यह उसके लिए शेर की सवारी ज्यादा साबित हो सकता है.

उन तमाम हिंदू धर्मावलम्बियों, संतों , आदि को भाजपा कैसे समझाएगी जो राम मंदिर निर्माण को राजनीति नहीं, अपने धर्म से सीधे जोड़ कर देखते हैं? कांग्रेस, सपा, बसपा राम मंदिर की राह में रोड़ा थे तो अब क्या बाधा है जबकि केंद्र और राज्य में भाजपा की भारी बहुमत वाली सरकारें हैं? यह सवाल भी उससे उसके समर्थक धर्म प्राण हिंदू पूछ ही सकते हैं कि केंद्र में साढ़े चार साल सत्ता में रहते राम मंदिर बनवाने के लिए क्या किया? अब ऐन चुनावों के समय ही यह क्यों याद आया?

अयोध्या के राम घाट का पानी आज वही नहीं है जो तीस साल पहले था. 

नवम्बर 25, 2018




No comments: