Friday, November 16, 2018

बीमार और बेलगाम बच्चे किसने बना दिये?



ताजा रिपोर्ट है कि लखनऊ के मेडिकल कॉलेज में आजकल हर महीने करीब 20 बच्चे डायबिटीज के रोगी पाये जा रहे हैं. कुछ वर्ष पहले तक यह संख्या इक्का-दुक्का ही थी.  मुम्बई के बाल-इण्डोक्राइन विशेषज्ञों के शोध में पाया गया है कि पिछले दो दशक में भारत में बच्चों में डायबिटीज बीमारी दो से तीन प्रतिशत तक बढ़ी है. लखनऊ से लेकर मुम्बई तक के विशेषज्ञों का अध्ययन बताता है कि इसकी वजह अनाप-शनाप एवं अनियमित खान-पान, खेल-कूद की कमी और पढ़ाई का बढ़ता दवाब है.

तकलीफ होती है लेकिन आश्चर्य नहीं होता. किसी मुहल्ले में चले जाइए, बच्चे खेलते नहीं दिखाई देंगे. शाम हो या छुट्टी के दिन, पार्कों-गलियों-नुक्कड़ों में बच्चों का शोर सुनाई नहीं देता. बच्चों का खेल और  शोर-शराबा देखना-सुनना हो तो झुग्गी-झोपड़ियों का रुख करना होगा. वहां के बच्चे आज भी बचपन जीते हैं, गरीबी और अभावों में ही सही. कॉलोनियों में आ बसे मध्य-वर्गीय परिवारों के बच्चे घरों, स्कूलों और कोचिंग संस्थानों में कैद हैं. मेडिकल कॉलेज के चिकित्सक हिमांशु कुमार का शोध इसी की पुष्टि करता है. जो बीस बच्चे हर महीने डायबिटीज के रोगी पाये जा रहे हैं वे शहर के नामी स्कूलों में पढ़ने वाले हैं. गरीब बस्तियों से शायद ही कोई बच्चा डायबिटिक पाया जाता हो.

बच्चों की दिनचर्या देख कर अक्सर मन में पीड़ा उठती है. छोटे-छोटे बच्चे हाथ में स्मार्ट फोन लिये बिना दूध पीते हैं न खाना खाते हैं. माता-पिता के पास उन्हें बहलाने-व्यस्त रखने का एक ही तरीका बचा है- मोबाइल. स्कूल जाते हर बच्चे के पास स्मार्ट फोन है. फोन से ज्यादा वह खेल है. मना करने पर वह कलह का कारण है. वह घर के किसी कोने में या अपने कमरे में चुपचाप कैद रहने का माध्यम है. कोई शरारत नहीं, घर के बाहर छुपन-छुपाई-गेंदताड़ी, उछल-कूद नहीं. सारी दोस्तियां और झगड़े भी मोबाइल में.

थोड़ा बड़े होते ही स्कूल-कॉलेज के बाद कोचिंग की दौड़. नाइण्टी परशेण्ट से ज्यादा नम्बर लाने का दवाब. बहुत सारे बच्चे घर से दो-दो टिफिन लेकर निकलते हैं. एक स्कूल के लिए दूसरा कोचिंग के वास्ते. सुकून से बैठ कर खाने का वक्त नहीं. अब तो टिफिन की जगह स्विग्गीवगैरह ने ले ली है. रोटी-पराठा, आलू-पूरी नहीं. फास्ट फूड जिसे जंक कहा जाता है. डॉक्टरों की इस चेतावनी का कोई असर नहीं कि जंक फूड बच्चों को थुल-थुल, आलसी और बीमार बना रहा है. डायबिटीज को क्या दोष देना कि वह बच्चों को भी नहीं छोड़ रहा.

खरबपतियों की संख्या बढ़ रही है तो मध्य-वर्ग के पास भी पैसा आ रहा है. बिना सोचे-समझे जीवन-शैली बदली जा रही है. प्रतिद्वंद्विता-सी मची है. स्कूटी, बाइक और कारें बच्चों के हाथ में देने में गौरव-बोध है. पैदल चलना किसी को गवारा नहीं. आये दिन कारों में नशा करते-झगड़ते युवाओं की खबरें क्यों कर चौंकाएंगी.

तीन दिन पुराने वाकये से कोई अचम्भित नहीं हुआ होगा जब दो गाड़ियों मे सवार दोस्तों ने आपस ही में असलहे लहराये और एक-दूसरे की कारों के शीशे तोड़ कर बीच सड़क बवाल करते रहे. यह नयी उच्छृंखल पीढ़ी का फनहै. समय यह सब नहीं सिखाता. उसे मत कोसिये. इसकी जड़ें लालन-पालन में देखिये.

माता-पिता और सयानों को को आंख दिखा कर मनमानी करने वाली पीढ़ी को हमने बचपन से कितनी मुहब्बत दी? हर सुविधा से लाद देना और जमीन पर पांव न रखने देना प्यार होता है? कभी बने उसके लिए घोड़ा? कभी उसके साथ बैठ कर कहानियां सुनाईं? हमारे पास वक्त नहीं और जन्म दिन के उपहार महंगे मोबाइल और गाड़ियों तक सीमित हो गये हैं तो बच्चे बीमार ही होंगे- डायबिटीज हो या बेलगाम दिमाग.
     
(सिटी तमाशा, 17 जनवरी, 2018)    

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