Friday, November 23, 2018

मूर्तियों की राजनीति कहां ले जाकर पटकेगी?



हैरानी अब नहीं होती. भाजपा पिछले काफी समय से जातीय गौरव बैठकें कर रही है. दो-चार रोज पहले निषादों की बैठक में उप-मुख्य्मंत्री केशव प्रसाद वर्मा ने कहा कि भाजपा निषाद राज केवट की मूर्ति लगवाएंगे. तब एक नेता जी ने शबरी की मूर्ति लगाने की मांग की. निषाद राज ने वन को जाते राम, लक्ष्मण और सीता को अपनी नौका से गंगा पार कराई थी तो शबरी ने वन में भटकते राम-लक्ष्मण को स्वयं चख-कख कर मीठे बेर खिलाये थे. निषादराज की मूर्ति लगाएंगे तो शबरी की क्यों नहीं!  केवट जातीय गौरव हैं तो शबरी क्यों नहीं!

चुनाव नजदीक हैं. भारतीय जनता पार्टी दलितों-पिछड़ों के वोट हासिल करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रही. लोक सभा चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन को कामयाब होने से रोकना है तो दलित-पिछड़ी जातियों को अपने पाले में करना होगा. इन जातीय सम्मेलनों में हो क्या रहा है? दलितों-पिछड़ों के विकास की बात? शिक्षा और रोजगार की बात? समाज को आगे ले जाने की चर्चा?

सरदार पटेल की विश्व की सबसे बड़ी मूर्ति इसलिए नहीं बनायी गयी कि राजनीति में वे उपेक्षित रहे या नेहरू की कांग्रेस ने उन्हें सम्मान नहीं दिया. वह मूर्ति इसलिए बनवायी गयी है कि पटेल, यानी व्यापक कुर्मी समुदाय खुश हो और पार्टी के पक्ष में वोटों की वर्षा कर दे. देश के निर्माण में सरदार पटेल की भूमिका भूल जाइए. उन्हें कुर्मी नेता के रूप में याद कीजिए. वोटों की राजनीति ने राम मनोहर लोहिया को वैश्य बना दिया है. बापू बनिया हैं. फिर शबरी और निषाद राज की मूर्तियां लगाने की मांग क्यों न हो. आज वे कम महत्त्वपूर्ण नहीं.

जब हमने टीवी के पर्दे पर एक नेता को शबरी की मूर्ति लगाने की मांग करते देखा तभी संयोग से हमारी मुलाकात एक जरदोजी कारीगर से हुई. कपड़ों पर भांति-भांति की कढ़ाई करने का ऐसा हुनर कि देखते रह जाएं. वर्षों के अनुभव से सधा हाथ. साड़ी हो या कुर्ता, रंगीन धागों से ऐसी कढ़ाई कर देते हैं कि उसकी खूबसूरती कई गुना बढ़ जाती है. तारीफ की तो कहने लगे कि साहब, अब काम ही नहीं मिलता. पहले दुकानों से खूब काम मिल जाता था. अब व्यापारी मशीनों से काम कराने लगे हैं. हम एक कढ़ाई दो-चार दिन में करते हैं, मशीनें एक दिन में दर्जन भर पीस तैयार कर देती हैं. हमें तो अब पुताई का काम करके पेट पालना पड़ रहा है.

एक बेहतरीन जरदोजी कारीगर अपने हुनर से नाम और दाम कमाने की बजाय पुताई करने को मजबूर है. परिवार पालना है. उसके हाथ के हुनर को बढ़ावा देने के लिए कोई पार्टी कुछ नहीं कर रही. कितनी कलाएं दम तोड़ रही हैं. कारीगर भूखे मर रहे हैं. देश में खरबपतियों की संख्या साल दर साल बढ़ रही है. गरीबों की हालत नहीं सुधर रही. छोटे किसान खेती छोड़ने को मजबूर हैं. गांव उजड़ कर शहरों में ठुंस रहे हैं. पढ़े-लिखे नौजवानों को रोजगार नहीं मिल रहा. समस्याओं का अम्बार लगा है.

सत्ता में बैठे जिन लोगों को इन सब की तरफ ध्यान देना चाहिए था, कला और कारीगरों का जीवन स्तर उठाने के काम में लगना था, वे गरीबों की जाति ढूंढ-ढूंढ कर मूर्तियां बनवा रहे हैं. ऊंची-ऊंची मूर्तियां बनवाने से गरीब जनता का पेट कैसे भरेगा? उसका जीवन सम्मानजनक कैसे बनेगा? इस पर सवाल नहीं उठ रहे.

वोट की राजनीति ने जरूरी सवालों को कितना पीछे धकेल दिया है. कोई पार्टी इसमें पीछे नहीं. मुद्दा रोजगार नहीं है. बेहतर जीवन स्थितियां मुद्दा नहीं हैं. मुद्दा जाति है, धर्म है और मूर्तियां हैं.

(सिटी तमाशा, 24 नवम्बर, 2018)       

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