Friday, November 02, 2018

‘ऑक्सीजन बार’ और ‘एयर प्यूरीफायर’ से जीवन बचेगा?


अब राजभवन, मुख्यमंत्री आवास, सचिवालय के इर्द-गिर्द और कुछ अन्य वीआईपी इलाकों में पानी का छिड़काव होगा. अग्निशमन गाड़ियों से इन क्षेत्रों के पेड़ तर किये जाएंगे ताकि हवा में जहर कुछ दबे. जिला प्रशासन की कोशिश होती है कि वीआईपी लोगों को जितनी सम्भव हो साफ हवा उपलब्ध कराई जाए. लेकिन ऐसा कब तक हो पाएगा, हुजूर? उनके लिए हवा-पानी इस धरती के अलावा और कहां से ले आएंगे?

अभी जाड़ा आया नहीं है. शरद ऋतु में भी हवा में जहरीले तत्व खतरनाक सीमा तक हो गये हैं. पिछले साल पूस में यह हाल हुआ था. यानी हर साल हालात खराब होते जा रहे हैं. सरकार और प्रशासन को कुछ नहीं सूझता कि क्या करें तो वह पानी छिड़कवाने लगते हैं, निर्माण कार्य बंद करा देते हैं, सड़कों पर वाहनों की संख्या कम करने की अपील करते हैं. ऐसे उपाय जिससे फिलहाल वायु प्रदूषण कुछ कम हो जाए.

हमारी सरकारों की नीतियां और विकास का रास्ते ऐसे हैं कि अधिक से अधिक वाहन बनें और बेचे जाएं, ज्यादा से ज्यादा कंक्रीट का निर्माण हो, गांव उजड़ें और शहर और बड़े होते जाएं, राज मार्ग बनें, वातानुकूलित भवन तैयार हों, जनता वस्तुओं का अंधाधुंध उपभोग करे. इन सबसे प्रदूषण ही फैलना है. प्रदूषण में अस्थाई रूप से थोड़ी कमी करने के लिए यही सरकारें कहती हैं कि फिलहाल गाड़ी कम चलाइए, निर्माण कार्य रोक दीजिए, कचरा कम फैलाइए, वगैरह. क्या विडम्बना है और कैसा विरोधाभास!

तथाकथित विकास का यह रास्ता हमें भुलावे में रख कर विनाश की ओर लिये जा रहा है. जीवन की सहजता और स्वास्थ्य नष्ट कर रहा है. प्रकृति को हमने अपना दुश्मन बना लिया है. पचीस-तीस साल पहले इसी लखनऊ में कितने पेड़ थे. सड़कों के किनारे बड़े-बड़े छायादार पेड़. तालाब थे. बाग-बगीचे थे. वे कहां गये? राजभवन के पास बहुत सुंदर राजकीय नर्सरी थी. आज उसकी जगह वीवीआईपी अतिथि गृह है. पेड़ों को सड़कें खा गईं. तालाबों की जगह कंक्रीट की मीनारें खड़ी हैं. वाहनों से सड़कें, गलियां, मुहल्ले पट गये.

इंदिरानगर अगर राजधानी का पिछले पांच साल से सर्वाधिक प्रदूषित इलाका है तो सिर्फ इसलिए कि कभी तालाबों और हरियाली से भरे इस क्षेत्र में आज सिर्फ कंक्रीट भरा है. किसने किया यह सब? क्या सोचा था कि सांस लेने लायक हवा बची रहेगी?

अरबों-खरबों रु की लागत से स्मार्ट सिटी बनाने का शोर है. अरे पगलो, स्मार्ट गांव बनाओ तो कुछ बात बने. गांव छोटे रहें लेकिन उन्हें सारी आधुनिक सुविधाओं से परिपूर्ण बनाओ. देखना कि वहां प्रकृति बची रहे. तालाब, नदी, जंगल, खेत बचे रहें. मिट्टी-पानी की इज्जत करना सीखो तो हवा हमारा ध्यान रखेगी. विकास की परिभाषा बदलो. आत्मघाती रास्ता छोड़ो.

लेकिन नहीं, पहाड़ों पर हजारों पेड़ काट कर ऑल वेदर रोडबनाने वाले, नदियों का प्रवाह रोक कर उन्हें सुरंगों में डालने वाले, गावों-खेतों को उजाड़ कर सेजबनाने वाले, तालाबों-झीलों को पाट कर इमारतें बनाने वाले, जंगलों में बंगले बनवाने वाले समझ ही नहीं रहे कि इस तरह जो सभ्यता हम तैयार कर रहे हैं, उसमें जीवन रह ही नहीं जाना है. कितने जीव-जंतु-वनस्पतियां इस धरती से लापता हो गईं. नदियां मर गईं. पहाड़ भरभरा कर टूट रहे हैं, जहां कभी जलभराव नहीं होता था, ऐसे शहरों में भारी बाढ़ आ रही है. सब देख रहे हैं लेकिन सावधान नहीं हो रहे.

सारी प्रकृति को चौपट कर मनुष्य बचा रहेगा क्या? ‘एयर प्यूरीफायरऔर ऑक्सीजन बारकब तक काम आएंगे?                 


('सिटी तमाशा', नभाटा, 3 नवम्बर, 2018)

No comments: