सन 1933 में रसायन विज्ञानियों का
एक प्रयोग बिल्कुल ही गलत हो जाने पर ‘दुर्घटनावश’ जो बना वह पॉलीथीन कहलाया. बाद में वह विद्युत इंसुलेशन से
लेकर अनेकानेक काम का साबित हुआ. लेकिन वह राक्षस रक्तबीज की तरह कुछ ऐसा फैला कि
हमारी धरती के लिए बड़ा खतरा बन गया है. ‘कैरीबैग’ नामधारी पन्नियों, रैपरों, आदि के खिलाफ कई देशों में
अभियान चल रहा है. मगर हम तो अपने ऊपर मंडराते खतरे देखने-समझने से ही इनकार करते
हैं. सिर्फ अपना स्वार्थ देखते हैं, भविष्य के प्रति आंखें मूंद लेते हैं. जैसे ही प्रदेश सरकार ने पॉलीथिन पर
रोक का फैसला किया, पॉलीथीन निर्माताओं और व्यापारियों ने इसका विरोध शुरू कर
दिया. उनका तर्क है कि पॉलीथीन उद्योग में लाखों लोग रोजगार
में लगे हैं. उन सब के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो जाएगा. किसी का रोजगार नहीं
छीना जाना चाहिए, लेकिन कौन सा संकट बड़ा है? क्या धरती और
मनुष्य के लिए इस जहर का कारोबार करने की इजाजत दी जानी चाहिए?
बेहतर होता कि पॉलीथीन निर्माता खुद इस बड़े संकट को पहचान
कर सरकार के फैसले का स्वागत करते और वैकल्पिक उद्यम चुनते. वे सरकार से कुछ समय, सलाह
और सहायता की मांग करते लेकिन वे आंख मूंद कर सिर्फ विरोध पर अड़े हैं. जाहिर है, वे चोरी-छुपे पॉलीथीन बनाएंगे, बेचेंगे और प्रशासन
छापेमारी करेगा. जैसा हमारे यहां होता है, नूरा-कुश्ती चलेगी
और पॉलीथीन पर रोक वास्तव में लग नहीं पाएगी. शायद यही उद्यमी-व्यापारी चाहते हैं.
प्रदेश में अगला साल चुनाव का है और सरकार किसी को नाराज नहीं करना चाहेगी. व्यापारियों
की कई जन-विरोधी गतिविधियों को सरकार इसी कारण अनदेखा करती आई है.
पॉलीथीन पर रोक के छिट-पुट
प्रयास पहले भी हो चुके हैं लेकिन जनता मानती है न व्यापारी. तीन-चार साल पहले छावनी
परिषद ने प्रस्ताव पारित कर और अभियान चला कर छावनी क्षेत्र में इसका इस्तेमाल बंद
करने का प्रयास किया था. आज वहां शायद ही किसी को इसकी याद हो. इस बार सरकार का
फैसला व्यापक है और 21 जनवरी से अमल का शासनादेश भी आ चुका है. पॉलीथीन का
इस्तेमाल बंद होना तभी सम्भव है जब निर्माता, व्यापारी, दुकानदार और जनता इसे वास्तव में बंद करने की
ठानेंगे. लखनऊ में ही ‘आकांक्षा समिति’ के विक्री केंद्रों पर पॉलीथीन का इस्तेमाल नहीं होता. सामान
कागज के लिफाफों में मिलता है. आदतन लोग पॉलीथीन मांगते हैं तो बताया जाता है कि हम
इस्तेमाल ही नहीं करते. यह समिति गरीब परिवारों की महिलाओं से अखबारी कागज के
लिफाफे बनवाती है. इसी से सीख लेकर कागज के लिफाफे बनाने का उद्यम बड़े पैमाने
क्यों नहीं शुरू किया जा सकता? तरह-तरह के खूबसूरत लिफाफे-थैले बनाए जा सकते हैं. मिट्टी
के कुल्हड़, सकोरे, आदि बनाने वाले उपेक्षित हैं. पॉलीथिन निर्माता इसे ही नई टेक्नॉलॉजी से बड़े
उद्यम में क्यों नहीं बदल सकते? बहुत सारे लोगों को रोजगार मिलेगा और
मिट्टी की सेहत भी दुरुस्त रहेगी. हजार राहें खुल जाएंगी अगर आप मन से चाह भर लें.
वक्त की मांग है कि हम सभी समझें
कि धरती के इस जहर को खत्म करना जरूरी है वर्ना यह हमें खत्म कर देगा. सरकार भी नियम
बना कर सिर्फ छापेमारी न करे. वह पॉलीथीन के विकल्प, उसके लिए सलाह, तकनीकी और आर्थिक सहायता भी उपलब्ध कराए. अगर आप सुबह-सुबह
बाजारों-कॉलोनियों में झाडू लगती देखें या पॉलीथीन बीनने निकली महिलाओं के थैले
में झांक लें तो सदमा लगेगा कि हमारे रोजमर्रा के जीवन में पॉलीथिन किस कदर पैठा
हुआ है. इसलिए अब ठान ही लेना है. (NBT, Lko, 08.01.2016)
1 comment:
सम्पादक महोदय, आज तकनीकी विकास और नवोन्मेष के कारण, केला, मक्का से भी प्लास्टिक के समान मज़बूत और गुणों से युक्त 'बायोडीग्रेडएबिल' पदार्थों का आविष्कार हो चुका है। बिल्कुल ऐसे ही समान गुणों से युक्त भांग के रेशों का भी प्रयोग मनुष्य सदियों से करता आ रहा है। उत्तराखंड में तो इसके कपड़ों का चलन भी रहा है। और तो और, पोर्शे कम्पनी ने अपनी पहली बायोडीग्रेडएबिल प्लास्टिक वाली कार, भांग से बना डाली है। सवाल ये है कि दुनिया भर की सरकारें क्यों जानबूझ कर आंखें बंद करई बैठी हैं? क्या सरकारों की नीयत पर सवाल नहीं उठाए जाने चाहिए?
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